उत्तराखण्ड में धर्मान्तरण विरोधी कानून तो आया मगर लोकायुक्त और सख्त भू-कानून गायब

उत्तराखंड विधानसभा  का 29 नवम्बर से शुरू हुआ शीतकालीन सत्र अनुपूरक बजट पारित कर दो  ही दिन में संपन्न हो गया। इस सत्र में सरकार ने धर्मान्तरण जैसे अपनी सुविधा और राजनीतिक लाभवाले विधेयक तो पारित करा दिये मगर लोकायुक्त और सशक्त भूमि कानून जैसे विधेयक फिर टाल दिये।  जब कि सरकार और सत्तारूढ़ दल ने इन कानूनों का वायदा  भी  किया था।

बुधवार को विधानसभा अध्यक्ष श्रीमती ऋतू खंडूरी भूषण ने दिनभर की  कार्यवाही के बाद शाम को 5440 करोड़ का अनुपूरक बजट पास कराने  के बाद विधानसभा की कार्यवाही अनिश्चितकाल  के लिए  स्थगित कर दी। सात दिन के विधानसभा सत्र को दो दिन में निपटाने पर कांग्रेस ने तीखी प्रतिक्रिया व्यक्त की है। प्रदेश कांग्रेस अध्यक्ष करन माहरा ने सरकार पर समय से पहले मैदान छोड़ने का आरोप लगाया है। वहीं,  इस पर विधानसभा अध्यक्ष ऋतु खंडूड़ी भूषण ने कहा कि बगैर बिजनेस सत्र चलाना बेईमानी है। सत्र और सदन करदाताओं के पैसे से चलता है। प्रदेश की इतनी समस्याएं और इतने मुद्दे फिर भी विधानसभा के पास चर्चा के लिये कोई विषय न होना हकीकत से मुंह मोड़ना ही है।

इस सत्र में सरकार ने विधानसभा से कुल 19 विधेयक पारित कराये जिनमें मुख्य उत्तराखंड धर्म स्वतंत्रता (संशोधन) विधेयक और उत्तराखंड लोकसेवा (महिलाओं के लिए क्षैतिज आरक्षण) विधेयक भी शामिलहै। इनके अलावा उत्तर प्रदेश भू-राजस्व अधिनियम 1901 में भी संशोधन हो गया मगर भू-कानून में सुधार या नया कानून लाने पर कोई विधेयक नहीं आया। जब कि सरकार जनता के दबाव के कारण बार-बार सशक्त भू-कानून लाने के दावे करती रही है।

इस सत्र में सरकार वायदे के अनुसार सशक्त भू-कानून तो नहीं लाई अलबत्ता सदन में उत्तराखंड (उत्तर प्रदेश जमींदारी विनाश एवं भूमि व्यवस्था अधिनियम 1950) ( संशोधन)  विधेयक 2022 जो विधानसभा द्वारा 17 जून 2022 को पारित किया गया और, उसको राज्यपाल की अनुमति 22 जुलाई 2022 को मिलने तथा उक्त विधेयक के अधिनियम बनने की सूचना अवश्य सदन में दी गयी। मतलब यह कि प्रदेश की जमीनों की खुली लूट पर थोड़ा बहुत अंकुश लगाने के लिए उपरोक्त अधिनियम की धारा 143 क में जो बंदिशें थीं भी, वे अब समाप्त हो गयीं और उद्योगों के नाम पर धन्ना सेठों और जमीनखोरों ने जो जमीनें खरीदी थीं उनको वे अब महंगे दामों पर बेचने के लिये स्वतंत्र हैं।

पिछली त्रिवेंद्र सरकार ने औद्योगीकरण के नाम पर उत्तराखंड के गरीब काश्तकारों की जमीनें हड़पवाने का रास्ता जरूर खोला था और मगर साथ ही लोकलाज को ध्यान में रखते हुये धारा 143 में उपधारा‘ ‘क’’ जोड़ कर यह बंदिश अवश्य लगायी थी कि अगर कोई पक्ष उद्योग के जिस प्रयोजन के लिए जमीन लेगा और समय सीमा के अंदर उद्योग नहीं लगाएगा तो जिला कलेक्टर धारा 168 के तहत वहजमीन छीन कर सरकार के पक्ष में कर देगा। चूंकि वह समयावधि पूरी हो रही थी इसलिए भूखोरों की हिमायती सरकार ने उनके हितों को ध्यान में रखते हुये धारा 143 की वह उपधारा ‘‘क’’ ही हटा दी। न रहे बांस और न बजे बांसुरी ! यह खुश खबरी इसी सत्र में दी गयी।

सरकार ने धर्मान्तरण कानून को और अधिक कठोर बनाने के लिए भी विधेयक पारित करा दिया, जबकि इसी राजनीतिक उद्देश्य से त्रिवेंद्र सरकार ने 2020 में यह कानून पहले ही बना दिया था। मौजूदा सरकार को अपनी धर्मनिष्ठ छवि को त्रिवेंद्र सरकार से अधिक गहरी साबित करनी थी, इसलिए त्रिवेंद्र सरकार द्वारा बनाये गये कानून को और अधिक कठोर बना दिया गया। सरकार का असली निशाना लव जेहाद पर था, जबकि राज्य में धर्मान्तरण ईसाई मिशनरियां कर रही हैं। सदियों  से तिरिस्कृत-अपमानित अनुसूचित जाति के लोग अछूत का टैग फेंकने और गरिमापूर्ण जीवन के लिए बाबा साहब अम्बेडकर की राह चल रहे हैं।

भाजपा ने 2017 के चुनाव में सत्ता में आने के 100 दिन के अंदर बेहतरीन लोकायुक्त कानून लाने का वायदा किया था। सौ दिन क्या 5 साल निकलने के बाद दूसरी पारी में भी साल निकल गया,  लेकिन उस आदर्श लोकायुक्त का कहीं अता पता  नहीं। उत्तराखंड विधानसभा ने संसद द्वारा सर्वसम्मति से पारित जो लोकायुक्त अपनाया था और जिसके आधार पर 2016 में लोकायुक्त के गठन की प्रक्रिया शुरू हुयी थी, उसका भी गला घोंट कर मार दिया गया।

इस बीच पिछली त्रिवेन्द्र रावत सरकार के कार्यकाल में खंडूरी सरकार के कार्यकाल का लोकायुक्त बिल खोद कर निकाला गया मगर उस पर भी दर्जनों संशोधन कराये गये और फिर विधानसभा की आलमारी में बंद कर दिया गया ताकि सुप्रीम कोर्ट दखल  न दे सके। कोर्ट ने राज्य सरकार को जब तीन महीने के अंदर लोकायुक्त लाने का आदेश 2019 में दिया था तो तत्कालीन सरकार ने लोकायुक्त का अधूरा विधेयक विधानसभा की आलमारी में बंद करा दिया था। कोर्ट अब विधानसभा को आदेश तो नहीं दे सकता। लोकायुक्त की बात आती है तो सरकार बिल विचाराधीन कह कर पल्ला झाड़ देती है।

नियमानुसार विधानसभा की साल में कम से कम 60 बैठाकें होनी चाहिए ताकि राज्य की समस्याओं और भविष्य की योजनाओं पर विस्तार से मंथन हो सके। लेकिन अब दो ही दिन में विधानसभा के सत्र निपटाने का रिवाज  शुरू हो गया है। ग्रीष्मकालीन राजधानी गैरसैण में तो सरकार और विधायकों को ठंड लगती है लेकिन अब देहरादून में भी ठंड लगने लगी है। भराड़ीसैण में अगर ग्रीष्मकाल में भी सरकार को ठंड लगनी है तो उसे ग्रीष्मकालीन राजधानी की घोषणा का क्या मतलब?

विधायक साल में 20 दिन भी विधानसभा में नहीं बैठ रहे हैं और हर साल उनके वेतन भत्तों और अन्य सुविधाओं में वृद्धि हो रही है। दुधारू  विधायक निधि बढ़ती जा रही है।जीवन भर सरकार की सेवा करने वाले कर्मचारियों की  पेंशन बंद है और साल में एक महीने से कम विधानसभा में हाजिरी देने वाले विधायक जितनी बार विधायक बनेंगे उतनी बार पेंशन के हकदार हैं। क्योंकि वे खुद ही मांगने वाले और खुद ही खुद को देने वाले हैं।

(जयसिंह रावत वरिष्ठ पत्रकार हैं और देहरादून में रहते हैं।)

जयसिंह रावत
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