झारखंड। हाल के दिनों में जब एकाध महीने बाद ही झारखंड में विधानसभा चुनाव का बिगुल बजने वाला है, भाजपा राज्य में साम्प्रदायिक ध्रुवीकरण तैयार करने की जद्दोजहद में अपनी सारी उर्जा लगा रही है। राज्य के गैर आदिवासी वोटरों पर तो उनको भरोसा है, लेकिन जिस तरह पिछले लोकसभा चुनाव में आदिवासी आरक्षित सीटों पर भाजपा को शिकस्त मिली है, उसे देखते हुए भाजपा का अब सारा ध्यान आदिवासी वोटरों पर केंद्रित हो रहा है।
इसी आलोक में भाजपा व उसके प्रमुख नेता राज्य में कम होती आदिवासियों की संख्या पर लगातार बयान देते हुए यह बताने की कोशिश में लगे हैं कि झारखंड में बड़ी संख्या में बांग्लादेशी घुसपैठी आ रहे हैं, जिसके कारण आदिवासियों की जनसंख्या कम हो रही है। इनके इस हथकंडे का सबसे मजबूत हिस्सा यह है कि बांग्लादेशी घुसपैठी आदिवासी लड़कियों से शादी कर रहे हैं, ज़मीन हथिया रहे हैं, लव जिहाद, लैंड जिहाद कर रहे हैं आदि-आदि।
इस राजनीतिक एजेंडे में इन भाजपा नेताओं का कहना है कि झारखंड बनने के बाद संथाल परगना में आदिवासियों की जनसंख्या 16% कम हुई है और मुसलमानों की 13% बढ़ी है। सांसद निशिकांत दुबे ने तो संसद में बयान तक दे दिया कि 2000 में संथाल परगना में आदिवासी 36% थे और अब 26% हैं और इसके जिम्मेवार बांग्लदेशी घुसपैठ (मुसलमान) हैं।
कहना ना होगा कि तथ्यों से परे वक्तव्यों और झूठ को सच बनाने की कला में भाजपाई नेताओं व उनके जनप्रतिनिधियों का कोई सानी नहीं है।
उल्लेखनीय है कि वर्ष 1951 की जनगणना के आधार पर एकीकृत बिहार के झारखंड के क्षेत्र में रहने वाले आदिवासियों की जनसंख्या कुल आबादी का 35.8 प्रतिशत थी, जो अब घटकर करीब 26.2 प्रतिशत के आसपास पहुंच गयी है।
वहीं भाजपा सांसद निशिकांत दुबे संसद में दिए बयान में कहा कि वर्ष 2000 में झारखंड के संथाल परगना में आदिवासी 36% थे और अब 26% हो गए हैं। इससे इन जनप्रतिनिधियों के ज्ञान का अंदाजा लगाया जा सकता है।
आदिवासियों की जनसंख्या की बात करें तो 1920 के दशक में इनकी आबादी 70% के करीब थी। इसी के मद्देनजर उस वक्त आदिवासियों के लिए झारखंड अलग राज्य की परिकल्पना की गई थी, जिसको अमली जामा 1938 में जयपाल सिंह मुंडा ने आदिवासी महासभा का गठन करके पहनाया था। आजादी के बाद 1949 को रांची में जयपाल सिंह मुंडा ने राजनीतिक दल झारखंड पार्टी के रूप में आगे बढ़ाया और झारखंड अलग राज्य की मांग रखी।
18वीं और 19वीं सदी के ब्रिटिश शासन काल में बंगाल प्रेसीडेंसी भारत का सबसे बड़ा ब्रिटिश प्रांत का हिस्सा था। जिसे ब्रिटिश सत्ता ने 1 अप्रैल 1936 को बिहार और उड़ीसा का विभाजन कर दोनों को बंगाल प्रेसीडेंसी से अलग कर दिया। इसके पहले 22 मार्च 1912 को बिहार को अलग प्रांत के रूप गठित किया गया था। उस वक्त बिहार, उड़ीसा और बंगाल के आदिवासी क्षेत्रों में आदिवासियों की आबादी 70 फीसदी से अधिक थी। जो झारखंड राज्य गठन के बाद अब 26.2 फीसद है।
राज्य में आदिवासियों की जनसंख्या इतना कम होने के कई कारणों में एक जो बड़ा कारण है, वह यह है कि झारखंड राज्य का गठन बिहार के ही कुछ हिस्सों को काटकर किया गया है, जबकि उड़ीसा व बंगाल के भी आदिवासी क्षेत्रों को मिलाकर अलग झारखंड राज्य की परिकल्पना थी।
वहीं बिहार के कई हिस्सों, भागलपुर, जमुई, देवघर, पूर्णिया आदि जिलों में आज भी कुछ आदिवासी समुदाय बसते हैं। इनमें गोंड, संथाल और थारू समुदाय शामिल हैं। इनकी आबादी बिहार की आबादी का लगभग 2 % है।
उड़ीसा में आधिकारिक तौर पर कुल 64 अलग-अलग आदिवासी समुदायों को इनके समुदाय के रूप में मान्यता मिली हुई है। इन 64 आदिवासी समुदायों में से 13 को “विशेष रूप से कमज़ोर आदिवासी समूह” में शामिल किया गया है। राज्य में ये आदिवासी समुदाय सामूहिक रूप से राज्य की कुल आबादी का लगभग 25 फीसदी हैं।
वहीं पश्चिम बंगाल में राज्य की कुल आबादी का लगभग 8 फीसद आदिवासी समुदाय बसता है, जिनमें कुल 40 अलग-अलग आदिवासी समुदायों को राज्य में मान्यता प्राप्त है। उन 40 आदिवासी समुदायों में से 3 आदिवासी समुदाय “विशेष रूप से कमज़ोर आदिवासी समूह” में शामिल हैं।
झारखंड की बात करें तो यहां 32 आदिवासी समुदाय बसते हैं, जिनमें 8 को “विशेष रूप से कमज़ोर समुदाय समूह” में शामिल किया गया है।
भाजपाई नेताओं और सांसद निशिकांत दुबे के बयान पर अपनी प्रतिक्रिया में “लोकतंत्र बचाओ अभियान (अबुआ झारखंड,अबुआ राज)” कहना है कि निशिकांत दुबे के इस तरह के सभी दावे तथ्य से परे हैं। दुःख की बात है कि अधिकांश मीडिया कर्मी भी बिना तथ्यों को जांचे इन दावों को फैला रहे हैं।
जबकि तथ्य कुछ इस प्रकार हैं-1991 में एकीकृत बिहार के झारखंड क्षेत्र में 27.67% आदिवासी थे और 12.18% मुसलमान। आखिरी जनगणना 2011 के अनुसार राज्य में 26.21% आदिवासी थे और 14.53% मुसलमान। वहीं संथाल परगना में आदिवासियों का अनुपात 2001 में 29.91% से थोड़ा घटकर 2011 में 28.11% हुआ। तो भाजपा का 16% व 10% का दावा पूरी तरह मनगढ़ंत व झूठ है।
आदिवासियों के अनुपात में व्यापक गिरावट 1951 से 1991 के बीच हुई। सवाल है क्यों? इस पर अभियान तीन प्रमुख कारण बताता है।
1- इस दौरान आसपास के राज्यों से बड़ी संख्या में गैर-आदिवासी झारखंड में आये। खास कर उभरते शहरों, औद्योगिकीकरण, कोल माइनिंग व सार्वजनिक क्षेत्र की कंपनियों के निर्माण में लगे ठेका कंपनियों में रोज़गार को लेकर दूसरे राज्यों से लोगों का यहां प्रवास हुआ। उदहारण के लिए, रांची में आदिवासियों का अनुपात 1961 में 53.2% था जो 1991 में घट कर 43.6% हो गया था। वहीं, झारखंड क्षेत्र में अन्य राज्यों से 1961 में 10.73 लाख प्रवासी, 1971 में 14.29 लाख प्रवासी और 1981 में 16.28 लाख प्रवासी आये थे, जिनमें से अधिकांश उत्तरी बिहार व आस-पास के अन्य राज्यों के थे। हालांकि इनमें अधिकांश काम के बाद वापिस लौट गए, लेकिन अनेक बस भी गए।
इसमें दो मत नहीं कि नौकरियों में स्थानीय को प्राथमिकता न मिलने के कारण, पांचवी अनुसूची प्रावधान व आदिवासी-विशेष कानून का सही से न लागू होने के कारण अन्य राज्यों के गैर-आदिवासी बसते गए।
2 – सबसे बड़ा दुखद सच यह है कि आदिवासी दशकों से विस्थापन व रोज़गार के अभाव में लाखों की संख्या में पलायन करने को मजबूर हो रहे हैं, जिसका सीधा असर उनकी जनसंख्या वृद्धि दर पर पड़ता है। केंद्र सरकार के 2017 के आर्थिक सर्वेक्षण रिपोर्ट के अनुसार 2001 से 2011 के बीच राज्य के 15-59 वर्ष उम्र के लगभग 50 लाख लोग पलायन कर गए थे।
3 – दशकों से आदिवासियों की जनसंख्या वृद्धि दर अन्य गैर-आदिवासी समूहों से कम रही है। 1951-91 के बीच आदिवासियों की जनसंख्या का वार्षिक घातीय वृद्धि दर (annual exponential growth rate) 1.42% था, जबकि पूरे झारखंड का 2.03% था। अपर्याप्त पोषण, अपर्याप्त स्वास्थ्य व्यवस्था, आर्थिक तंगी के कारण आदिवासियों की मृत्यु दर अन्य समुदायों से अधिक है।
साफ जाहिर है कि भाजपा आदिवासियों की जनसंख्या अनुपात में कमी के मूल कारणों पर बात न करके गलत आंकड़े पेश करके केवल धार्मिक साम्प्रदायिकता और ध्रुवीकरण करना चाहती है। एक ओर भाजपा आदिवासियों की जनसंख्या के लिए चिंता जता रही है, वहीं दूसरी ओर झारखंड सरकार द्वारा पारित सरना कोड, पिछड़ों के लिए 27% आरक्षण व खतियान आधारित स्थानीयता नीति पर न केवल चुप्पी साधे हुए है, बल्कि इन्हें रोकने की पूरी कोशिश करती रही है। मोदी सरकार जाति जनगणना से भी भाग रही है, जिससे समुदायों व विभिन्न जातियों की वर्तमान स्थिति स्पष्ट हो जाएगी।
भाजपा नेताओं के ज्ञान पर कुछ बोलना कीचड़ से सनी सड़क पर दौड़ प्रतियोगिता में भाग लेने के बराबर है।
एक तरफ इनकी विसंगत और विरोधाभासी जानकारी को इन तथ्यों से अंदाजा लगाया जा सकता है कि ये अपने मन मुताबिक देश में बांग्लादेशी घुसपैठी की संख्या कभी 12 लाख बताते हैं, तो कभी 20 लाख बताते हैं और इन घुसपैठियों में इनका निशाना मुसलमान होते हैं। दूसरी तरफ इनकी ही नरेंद्र मोदी के नेतृत्व वाली एनडीए की सरकार, संसद में बयान देती आ रही है कि उनके पास बांग्लादेशी घुसपैठियों से सम्बंधित कोई आंकड़े नहीं हैं।
वहीं, एक तरफ़ भाजपा नेता लव जिहाद जैसे शब्दों का प्रयोग करके साम्प्रदायिकता फैला रहे हैं, जबकि मोदी सरकार ने संसद में जवाब दिया है कि कानून में लव जिहाद नामक कुछ नहीं है एवं केंद्रीय जांच एजेंसियों ने ऐसा कोई मामला दर्ज नहीं किया है।
किसी भी धर्म या समुदाय के व्यक्ति को किसी भी अन्य धर्म या समुदाय के व्यक्ति से शादी करने का जहां तक सवाल है, तो इन्हें पूर्ण संवैधानिक अधिकार है कि वे किसी भी धर्म या समुदाय के व्यक्ति से आपस में शादी कर सकते हैं। हालांकि 2013 के एक शोध के अनुसार झारखंड में केवल 5.7% शादी ही अंतर-धार्मिक (हर धर्म के परिप्रेक्ष में) होते हैं।
झारखंड में भाजपा ने लैंड जिहाद शब्द का भी इजाद कर लिया है और इस परिप्रेक्ष्य में वे प्रचारित कर रहे हैं कि बांग्लादेश के घुसपैठिए लैंड जिहाद भी कर रहे हैं यानी आदिवासियों की ज़मीन हथिया रहे हैं।
जबकि दशकों से झारखंड में सीएनटी (छोटानागपुर काश्तकारी अधिनियम) और एसपीटी (संथाल परगना अधिनियम) का उल्लंघन कर गैर-आदिवासी आदिवासियों की ज़मीन हथिया रहे हैं। पांचवी अनुसूची क्षेत्र के शहरी इलाके इसके स्पष्ट प्रमाण हैं। ऐसे में लैंड जिहाद जैसे सांप्रदायिक शब्दों का प्रयोग कर भाजपा वास्तविकता से भटकाने की कोशिश कर रही है।
एक तरफ़ भाजपा बांग्लादेशी घुसपैठियों की बात कर लैंड जिहाद का प्रचार कर रही है, वहीं दूसरी ओर मोदी सरकार व तत्कालीन रघुवर दास सरकार ने अडानी पावरप्लांट परियोजना के लिए आदिवासियों की ज़मीन का जबरन अधिग्रहण किया था, इसकी कहीं चर्चा नहीं हो रही है। वहीं मोदी व रघुवर दास सरकार ने झारखंड को घाटे में रखकर अडानी को फायदा पहुंचाने के लिए राज्य की ऊर्जा नीति को बदला और संथाल परगना को अंधेरे में रखकर बांग्लादेश को बिजली भेजा।
(विशद कुमार वरिष्ठ पत्रकार हैं।)