धामी को अपनी ही घोषणाओं का बोझ चैन से रहने नहीं देगा

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उत्तराखण्ड के युवा मुख्यमंत्री पुष्कर सिंह धामी ने चुनाव हारने के बावजूद पार्टी नेतृत्व का विश्वास जीत कर प्रदेश की सत्ता की बागडोर दुबारा हासिल तो कर ली है, लेकिन उनके सामने अब उस विश्वास को कायम रखने के साथ ही जनता का विश्वास जीतने और कुर्सी बचाये रखने की सबसे बड़ी चुनौती है। जनता का विश्वास भी तभी हासिल होगा जबकि जनता से किये गये सैकड़ों वायदे पूरे होंगे। सीमित संसाधनों के कारण चुनाव के दिनों में दिखाई गयी दरियादिली भी मुसीबत बन सकती है। समान नागरिक संहिता का वायदा भी सरकार को शर्मिन्दा करता रहेगा। खटीमा में हार के कारण शायद ही उनका पीछा छोड़ेंगे। इसलिये पूर्व भाजपायी मुख्यमंत्रियों की भांति उन्हें भी कुर्सी जाने का खतरा सताता रहेगा। नगर निकायों और पंचायत चुनावों के बाद उनके कंधों पर 2024 के लोकसभा चुनाव भी होंगे।

सोशल एक्टिविस्ट त्रिलोचन भट्ट का कहना है कि विधानसभा में धामी की हार के जो कारण थे वही कारण आगे भी उनके मार्ग में रोड़े बनते रहेंगे। भाजपा के ही मठाधीशों ने खटीमा सीट पर धामी को अभिमन्यु की तरह घेर कर मारा था। इसलिये भाजपा की पूर्व परम्परानुसार धामी सरकार को बाहर से नहीं बल्कि अंदर से ही खतरा बना रहेगा। जो लोग धामी को खटीमा में हरवा सकते हैं वे आगे भी उन्हें उपचुनाव में हराने का प्रयास कर सकते हैं। कर्मचारियों की पुरानी पेंशन का मामला भी धामी सरकार को चैन से इसलिये नहीं बैठने देगा क्योंकि हिमाचल प्रदेश, दिल्ली, राजस्थान और छत्तीसगढ़ राज्यों ने इसके लिये पहल शुरू कर दी है।

वरिष्ठ सेवा निवृत आइएएस एवं सामाजिक चिन्तक सुरेन्द्र सिंह पांग्ती का मानना है कि चुनाव जीतने के लिये भाजपा ने घोषणाओं का जो पहाड़ खड़ा किया था उससे सुरक्षित उतरना सीमित संसाधनों के कारण आसान नहीं होगा। जनता में जगायी गयी असीमित अपेक्षाएं धामी सरकार की गले फांस बन सकती हैं। राजनीतिक नेताओं ने गढ़वाल बनाम कुमाऊं, पहाड़ बनाम मैदान और ठाकुर बनाम ब्राह्मण की जो खाइयां खोदी हुयी हैं उनमें सरकार के गिरने का खतरा बना रहेगा। मुख्यमंत्री बनने के लिये जो दावेदार खडे हो गये थे वे लंगड़ी मार कर धामी के सपने चकनाचूर कर सकते हैं।

देहरादून स्थित एनजीओ सोशल डेवेलपमेंट फाॅर कम्युनिटीज फाउंडेशन के संस्थापक अनूप नौटियाल का कहना है कि धामी ने पिछले छह महीनों के कार्यकाल में सौगातों की जो झड़ी लगाई थी उनका बहुत बड़ा बोझ धामी के सिर पर रहेगा। चुनाव के दौरान राज्य को 2025 तक देश का अग्रणी राज्य बनाने की घोषणा की गयी थी। अगर इस तरह की घोषणाएं पूरी नहीं हुयीं तो जनता से मिला स्नेह जनाक्रोश में बदल जायेगा। इतिहासकार डॉ. योगेश धस्माना कहते हैं गढ़वाल और कुमाऊं के बीच संतुलन बनाए रखना और असंतुष्टो पर पैनी नजर रखना बड़ी चुनौती होगी। उनकी अग्निपरीक्षा लोकसभा चुनाव में ही होगी। दल के भीतर अयोग्य मंत्री ही उनकी छवि को  बिगाड़ सकते  हैं।

दरअसल सत्ता संभालते ही मुख्यमंत्री धामी के समक्ष नये साल का बजट पेश करने की है। धामी अपने पिछले 6 माह के कार्यकाल में सभी वर्गों को लुभाने के लिये 500 से अधिक सौगातों की घोषणा कर गये थे जिन पर जनता ने कुछ हद तक विश्वास भी किया। पिछली बार समय और बजट की कमी के कारण अब इन सभी चुनावी सौगातों को आने वाले बजट में एडजस्ट करना होगा। अगर घोषणाओं और सौगातों को धरातल पर नहीं उतारा गया तो इसका खामियाजा भाजपा को 2024 के लोकसभा चुनाव में भुगतना पड़ सकता है। गंभीर आर्थिक संकट के कारण राज्य पर कर्ज का बोझ ही 72 हजार करोड़ पार कर चुका है, जिसका ब्याज ही लगभग 7 हजार करोड़ सालाना तक पहुंच गया है। कर्मचारियों को कर्ज लेकर वेतन देना होता है। सरकार को बेतन, भत्ते, मजदूरी और अधिष्ठान पर बजट का 30 प्रतिशत और 2005 से पूर्व नियुक्त कर्मचारियों की पेंशन पर 13.6 प्रतिशत खर्च करना पड़ता है। इधर 2005 के बाद लगे एक लाख से अधिक कर्मचारियों की पेंशन बहाली की मांग का जोर बढ़ता जा रहा है।

भाजपा ने अपने साढ़े 11 साल के शासनकाल में राज्य को 8 मुख्यमंत्री दे दिये और धामी पार्टी की ओर से 9वें हैं। भाजपा के इन अस्थिर मुख्यमंत्रियों को विपक्ष से नहीं बल्कि स्वयं अपने ही दल के नेताओं से खतरा रहा है जो कि धामी के लिये भी बना रहेगा। लोकसभा चुनाव से पहले राज्य में पंचायत और नगर निकायों के चुनाव होने हैं। इन चुनावों को आने वाले लोकसभा चुनाव का सेमीफाइनल भी माना जायेगा।

मुख्यमंत्री के तौर पर धामी ने सत्ता में वापसी पर प्रदेश में गोवा की तरह समान नागरिक संहिता लागू करने की घोषणा की थी। मुस्लिम यूनिवर्सिटी की ही तरह इस घोषणा का देवभूमि की 84 प्रतिशत आबादी पर व्यापक असर हुआ था। चूंकि यह विषय संसद का है और दो मौलिक अधिकारों के टकराव के कारण मोदी-शाह की जोड़ी भी भाजपा के इस मूल मुद्दे को हकीकत में बदल नहीं पायी तो फिर धामी से यह अपेक्षा कैसे की जा सकती है।

(जयसिंह रावत वरिष्ठ पत्रकार हैं और आजकल देहरादून में रहते हैं।)

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