Friday, April 19, 2024

निजीकरण के रथ की अगुवाई करेंगे, झारखंड के शिक्षा मंत्री

झारखंड सरकार के शिक्षा मंत्री जगरनाथ महतो ने झारखंड जिला परियोजना परिषद की पिछले दिनों हुई एक बैठक में एक असंवैधानिक बयान दे डाला। उन्होंने कहा कि ‘सरकार हर बच्चे पर सालाना 22 हजार रुपए खर्च करती है, लेकिन अब तक शिक्षा व्यवस्था दुरुस्त नहीं हो पाई। अगर शिक्षा व्यवस्था दुरुस्त नहीं हुई तो राज्य के करीब 42 हजार स्कूलों को निजी हाथों में दे दिया जाएगा। ‘जबकि ‘शिक्षा का अधिकार अधिनियम’ के तहत यह बयान पूरी तरह असंवैधानिक ही नहीं बल्कि उनके अधिकार क्षेत्र से कोसों दूर है।

शिक्षा मंत्री के इस बयान के बाद समाज के सभी तबके भौंचक्का हैं। लोगों का कहना है कि शिक्षा मंत्री का बयान बेहद गैर-जिम्मेदाराना, अव्यवहारिक व मंत्रीपद की गरिमा के विरुद्ध तथा शिक्षा का अधिकार अधिनियम का घोर उलंघन एवं असंवैधानिक है।

बता दें कि चालू वित्तीय वर्ष के डेढ़ महीने से भी कम समय बचे हैं, लेकिन शिक्षा विभाग 450 करोड़ रुपए खर्च नहीं कर पाया है। मंत्री के अनुसार ये पैसे छात्रों के बौद्धिक कार्यकलापों और शारीरिक विकास मद में खर्च होने थे। अब इन पैसों को सरेंडर करने की नौबत आ गई है।

शिक्षा मंत्री ने तर्क दिया कि जो शिक्षक सरकारी नौकरी से रिजेक्ट हो जाते हैं, वैसे शिक्षक निजी शिक्षक कहलाते हैं। फिर भी अभिभावक अपने बच्चों को सरकारी की जगह निजी स्कूलों में भेजने को प्राथमिकता देते हैं।

शिक्षा मंत्री के बयान पर माले के विधायक विनोद सिंह कहते हैं “इस तरह का बयान देकर अपनी जिम्मेदारियों से सरकार नहीं भाग सकती। अगर यह तर्क है कि अगर शिक्षा व्यवस्था दुरुस्त नहीं हुई तो राज्य के करीब 42 हजार स्कूलों को निजी हाथों में दे दिया जाएगा, तो यह सबपर लागू होता है,  वो चाहे कृषि क्षेत्र हो, अथवा स्वास्थ्य क्षेत्र।”

नरेगा वॉच के राज्य संयोजक व सामाजिक कार्यकर्ता जेम्स हेरेंज कहते हैं “शिक्षा एक मौलिक अधिकार है। सरकारें अपनी जवाबदेही से मुकर नहीं सकती। स्कूलों को निजी हाथों में देने संबंधी मंत्री का बयान अत्यंत ही दुर्भाग्यपूर्ण व असंवैधानिक है। शिक्षा को निजी हाथों में देना एक तरह से व्यपारियों के हाथों झारखंड के बच्चों का भविष्य सौंपना होगा।”

75 वर्षीय उद्यमी रतन देव सिंह मंत्री के बयान पर काफी आक्रोशित हो उठते हैं और कहते हैं “यह तो सरासर शिक्षा का अधिकार कानून का खुला उल्लंघन होगा, संविधान के साथ खिलवाड़ होगा। यह बयान कतई संवैधानिक नहीं है, सरकार का कोई मंत्री ऐसा बयान दे, यह पूरी तरह से गैर-जिम्मेदाराना बयान है। इसके खिलाफ झारखंड की जनता को आन्दोलित होना चाहिए।”

स्वतंत्र शोधकर्ता व लेखक देव कुमार का मानना है “शिक्षा का अधिकार वर्तमान में हर बच्चे को है और उसे मिलना भी चाहिए। शिक्षा का आशय बच्चों का शारीरिक, मानसिक, बौद्धिक व अध्यात्मिक विकास करते हुए बच्चों का सर्वांगीण विकास करना होता है।” चूंकि शिक्षा राज्य के अधीनस्थ विषय हैं अतः यह तब तक बेहतर और गुणवत्तापूर्ण संभव नहीं होगा, जब तक कि राज्य सरकार स्पष्ट मंशा एवं नीति के साथ काम न करें। सरकार के मंत्री का बयान स्पष्ट करता है कि सरकारी स्कूलों के निजीकरण की योजना बनाई जा रही है। अगर ऐसा होता है तो पूरे राज्य की शिक्षा व्यवस्था चरमरा जायेगी, और गरीब बच्चे शिक्षा के अधिकार से वंचित हो जाएंगे।

मंत्री के बयान पर रांची यूनिवर्सिटी में जनजातीय भाषा सहायक प्राध्यापक व खोरठा रचनाकार दिनेश दिनमणी कहते हैं कि शिक्षा मंत्री महोदय का यह बयान बिल्कुल अनुचित है। क्या स्कूल की व्यवस्था को ठीक करने के लिए निजीकरण ही एकमात्र उपाय है? शिक्षा को निजी हाथों में सौंपना शिक्षा का बाजारीकरण है। शिक्षा के नाम पर पूंजीपतियों को जनता से निर्मम लूट का अवसर देना है। सरकारी स्कूलों को ठीक करना है तो केरल और दिल्ली की नीति, सोच-संकल्प और कार्यशैली का अध्ययन करवा कर झारखंडी परिप्रेक्ष्य में ठोस कदम उठाने की जरूरत है, निजीकरण की नहीं।  

शिक्षा मंत्री के बयान पर भारत ज्ञान विज्ञान समिति के राष्ट्रीय महासचिव काशीनाथ चटर्जी कहते हैं “शिक्षा मंत्री का यह बयान गैर-जिम्मेदारना है। शिक्षा मंत्री माननीय जगन्नाथ महतो जब शिक्षा मंत्री बने तो उन्होंने झारखंड की शिक्षा पर कुछ अच्छा करने का कोशिश की थी। पहला उन्होंने स्कूलों के मर्जर के विरुद्ध कदम उठाया, दूसरा उन्होंने पारा शिक्षकों के वेतन में वृद्धि की और पारा शिक्षकों को सहायक शिक्षक के रूप में पदोन्नति दी। शायद देश में इस तरह के काम करने में झारखंड राज्य पहला राज्य बना। लेकिन उनका ऐसा बयान काफी निराशाजनक है और केंद्र सरकार द्वारा जो शिक्षा नीति लाई गयी है, वह निजीकरण को बढ़ावा देता है, उसका समर्थन करता है। यह चिंतनीय विषय है, अगर एक शिक्षा मंत्री इस तरह का बयान देते हैं तो झारखंड जो पहले ही शिक्षा में पीछे है और भी पीछे चला जाएगा। मौजूदा केंद्र की सरकार जिसने कोविड के दौरान नई शिक्षा नीति लागू की है उससे निजीकरण को बढ़ावा मिलेगा। केंद्रीयकरण को बढ़ावा मिलेगा, और खास कर इस बार के बजट में केंद्र सरकार के द्वारा डिजिटल विश्वविद्यालय की बात की गई है, यह नीति गरीबों और वंचितों को शिक्षा से दूर कर देगा।

चटर्जी आगे कहते “देश के 9 राज्यों के 35,000 घरों का सर्वेक्षण किया गया, जिसमें यह बात सामने आयी है कि 95% बच्चों के पास मोबाइल नहीं है। झारखंड में भी हमने जो सर्वे किया था, उसमें भी यही बात उभर कर आई थी। ऐसी स्थिति में शिक्षा मंत्री का यह बयान केंद्र सरकार की जन विरोधी शिक्षा नीति को लागू करने में मदद करेगा।” हम मानते हैं की अंतिम जन तक शिक्षा का विस्तार और पहुंच तभी हो सकती है जब सरकारी स्कूलों को मजबूत किया जाए। इसके लिए स्कूल प्रबंध समिति को सुदृढ़ करने, समुदाय को जागृत करने के साथ-साथ जिन क्षेत्रों में हिंदी से इतर दूसरी भाषा बोली जाती है, अर्थात संथाली, नागपुरी, मुंडारी इत्यादि वहां के शिक्षकों को 6 महीने तक इन भाषाओं का प्रशिक्षण लेकर बच्चों को उनकी मातृ भाषाओं में भी समझाना चाहिए।” सरकारी स्कूलों को मजबूत कर ही हम झारखंड को शिक्षित राज्य बना सकते हैं, इसलिए हम इस तरह के वक्तव्य का विरोध करते हैं।

ज्ञान विज्ञान समिति झारखंड के अध्यक्ष शिव शंकर प्रसाद का कहना है कि शिक्षा मंत्री का यह फरमान विभाग के उन पदाधिकारियों और शिक्षकों के लिए है जो अपना काम नहीं करते हैं। उन्होंने कहा कि एक छात्र पर 22,000 रूपये खर्च किये जाते हैं लेकिन रिजल्ट नहीं मिलता है। इस सम्बंध में मेरा मानना है कि यह बात सही है कि अधिकांश सरकारी शिक्षक अपने दायित्व का निर्वहन ईमानदारी से नहीं करते हैं, लेकिन निजीकरण इसका समाधान नहीं है। आज भी देश के कई राज्यों में सरकारी स्कूल की पढ़ाई बेहतर है, जिसमें केरल, दिल्ली, और कुछ हद तक तामिलनाडु, महाराष्ट्र भी शामिल हैं। हमें तंत्र को सुधारने की जरूरत है, तंत्र को समाप्त करने की नहीं। शिक्षा जैसे बुनियादी आवश्यकता को कभी भी निजी हाथो में नहीं दिया जाना चाहिए।

ऑल इंडिया जन विज्ञान नेटवर्क, झारखंड के संयोजक समिति के सदस्य असीम सरकार  कहते हैं कि शिक्षा मंत्री द्वारा झारखंड राज्य में  42,000 सरकारी विद्यालयों को प्राइवेट के हाथों में देने की चेतावनी दी गई है। जबकि लोक कल्याणकारी राज्य में शिक्षा की संपूर्ण जिम्मेवारी सरकार की होती है। विद्यालय में गुणवत्तापूर्ण शिक्षा की जिम्मेवारी शिक्षा विभाग की है। अगर गुणवत्तापूर्ण शिक्षा छात्रों को नहीं मिल पा रही है, तो विभाग की मानीटरिंग व्यवस्था की विफलता ही प्रमाणित होती है। शिक्षा मंत्री द्वारा निजी क्षेत्र की पैरवी करना केन्द्र सरकार की नई शिक्षा नीति का समर्थन करना है। खानापूर्ति छोड़ सही अर्थ में मानीटरिंग और स्कूली व्यवस्था में समुदाय को स्वामित्व देते हुए जोड़ने का काम हो।

शिक्षा मंत्री के इस बयान के संदर्भ में यह जान लेना जरूरी है कि शिक्षा का अधिकार अधिनियम क्या है और यह अधिनियम क्या कहता है?

शिक्षा का अधिकार अधिनियम (RTE) क्या है?

शिक्षा का अधिकार अधिनियम के अंतर्गत 6 से 14 वर्ष की आयु के बच्चों को नि:शुल्क और अनिवार्य शिक्षा प्रदान करने का प्रावधान किया गया है, जिससे भारत का प्रत्येक बच्चा अच्छी शिक्षा ग्रहण करने के बाद अपने भविष्य को उज्ज्वल कर सके, और साथ ही देश की उन्नति में सहयोग प्रदान कर सके।

लागू कब हुआ?

शिक्षा का अधिकार अधिनियम का निर्माण वर्ष 2009 में किया गया तथा इसे अप्रैल 2010 से सम्पूर्ण भारत में लागू किया गया।

नियम एवं कानून

● शिक्षा का अधिकार अधिनियम सरकार को निर्देश देता है, कि प्रत्येक बच्चे को उसके निवास क्षेत्र के एक किलोमीटर के अंदर प्राथमिक विद्यालय और तीन किलोमीटर के अन्दर माध्यमिक विद्यालय की सुविधा प्रदान करे। विद्यालय हेतु सरकार बजट का निर्माण करे और उसे प्रभावी ढंग से लागू करे। निर्धारित दूरी पर विद्यालय न होने पर सरकार छात्रावास या वाहन की सुविधा प्रदान करे।

● इस अधिनियम के अंतर्गत किसी भी बच्चे को मानसिक यातना या शारीरिक दंड नहीं दिया जा सकता।

● इसके प्रावधान के अंतर्गत कोई भी सरकारी शिक्षक/शिक्षिका निजी शिक्षण या निजी शिक्षण गतिविधि में सम्मिलित नहीं हो सकता।

● विद्यालय में लड़कियों और लड़कों के लिए अलग-अलग शौचालय की व्यवस्था होनी अनिवार्य है।

● इस अधिनियम के अंतर्गत विद्यालय में शिक्षक और छात्रों का अनुपात 1:30 होना चाहिए, इसमें प्रधानाचार्य के लिए अलग कमरे का प्रावधान किया गया है।

● बच्चे को कक्षा आठ तक फेल नहीं किया जा सकता तथा शिक्षा पूरी करने तक किसी भी बच्चे को स्कूल से निकाला नहीं जा सकता है।

● किसी भी बच्चे को आवश्यक डॉक्यूमेंट की वजह से विद्यालय में प्रवेश देने से मना नहीं किया जा सकता है। प्रवेश के लिए किसी भी बच्चे को प्रवेश परीक्षा देने के लिए नहीं कहा जाएगा।

● इस अधिनियम के अंतर्गत, शिक्षा से सम्बंधित किसी भी शिकायत के निवारण के लिए ग्राम स्तर पर पंचायत, क्लस्टर स्तर पर क्लस्टर संसाधन केन्द्र (सीआरसी), तहसील स्तर पर तहसील पंचायत, जिला स्तर पर जिला प्राथमिक शिक्षा अधिकारी की नियुक्ति करने की व्यवस्था की गयी है।

अब सवाल उठता है कि शिक्षा मंत्री ने किस आधार पर और किस अधिकार के तहत झारखंड के 42 हजार विद्यालयों को निजी हाथों में सौंपने की धमकी दे दी?  सबसे अधिक आश्चर्य यह है कि राज्य का मीडिया इस पर पूरी तरह से खामोश है।

(झारखंड से वरिष्ठ पत्रकार विशद कुमार की रिपोर्ट।)

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