कोलकाता। फैसला तो हाईकोर्ट के जज सुनाएंगे पर तहरीर मेरी होगी। यह एक अजीबोगरीब जिद है पर कलकत्ता हाईकोर्ट का एक कोर्ट इन दिनों इसी कशमकश के दौर से गुजर रहा है। तृणमूल कांग्रेस की सरकार की तरफ से पैरवी करने वाले सरकारी एडवोकेट इन दिनों इस कोर्ट की सुनवाई में हिस्सा नहीं ले रहे हैं, अलबत्ता बायकॉट शब्द का इस्तेमाल नहीं कर रहे हैं। यहां गौरतलब है कि कलकता हाईकोर्ट के बार एसोसिएशन में तृणमूल कांग्रेस समर्थकों का बहुमत है।
इस साल 9 जनवरी को सुबह लोगों ने देखा कि हाई कोर्ट के जस्टिस राजा शेखर मंथा के लेकटाउन स्थित आवास के आसपास के क्षेत्र और हाईकोर्ट के परिसर को पोस्टरों से पाट दिया गया है। उनमें जस्टिस मंथा के खिलाफ व्यक्तिगत आरोप लगे थे और इसके साथ ही उनकी निष्पक्षता पर सवाल उठाया गया था। इसके साथ ही उसी दिन जस्टिस मंथा के कोर्ट के दरवाजे को बाहर से कुंडी लगाकर बंद कर दिया गया। तृणमूल समर्थक एडवोकेट वहां जम गए और किसी को भी अंदर नहीं जाने दिया।
कलकता हाईकोर्ट के डेढ़ सौ वर्षो से भी अधिक के इतिहास में ऐसा पहली बार हुआ है, पर न तो बार और न ही सरकार के कानून मंत्री ने अभी तक इस पर कोई टिप्पणी की है। सरकारी एडवोकेट का जस्टिस मंथा के कोर्ट की सुनवाई में हिस्सा नहीं लेना जारी है।
आगे जाने से पहले इसकी वजह बताते है। भाजपा के शुभेंदु अधिकारी विधानसभा में विपक्ष के नेता हैं, इससे पहले वे तृणमूल कांग्रेस में थे और सरकार में मंत्री भी रहे थे। विधानसभा चुनाव में उन्होंने मुख्यमंत्री ममता बनर्जी को नंदीग्राम से हराया था। विधानसभा चुनाव के बाद शुभेंदु अधिकारी के खिलाफ एफआईआर दर्ज करने का जो सिलसिला शुरू हुआ वह अभी बदस्तूर जारी है।
इसके खिलाफ वे हाईकोर्ट में मामला दायर करते रहे और कठोर कार्रवाई नहीं की जाने के आदेश भी दिया जाता रहा। जब उनके खिलाफ कुल 26 एफआईआर दर्ज हो गई तो जस्टिस मंथा ने आदेश दिया उनके खिलाफ आगे एफआईआर दर्ज करने से पहले कोर्ट से लीव लेनी पड़ेगी। राज्य सरकार की तरफ से इसके खिलाफ डिविजन बेंच में अपील की गई तो डिवीजन बेंच ने भी सिंगल बेंच के फैसले को बरकरार रखा। इसके बाद सरकार सुप्रीम कोर्ट गई तो सुप्रीम कोर्ट ने भी इसे वापस हाईकोर्ट भेज दिया। यानी न्यायिक प्रक्रिया के हर दर पर दस्तक देने के बाद जब नाकाम रहे तो जिसकी लाठी उसकी भैंस के तर्ज पर न्याय दिलाने का फैसला कर लिया।
वैसे भी पश्चिम बंगाल में विपक्ष के खिलाफ एफआईआर दर्ज करने का सिलसिला कोई नया नहीं है। जब मुकुल रॉय भाजपा में थे तो उनके खिलाफ 17 मामले दर्ज किए गए थे और जब वापस तृणमूल में आ गए तो सारे मामले हवा में उड़ गए। इस तरह की एक लंबी फेहरिस्त है।
इससे पहले भी ऐसा हो चुका है। जस्टिस अभिजीत गंगोपाध्याय ने सरकारी स्कूलों में शिक्षकों और ग्रुप सी और डी के कर्मचारियों की नियुक्ति की जांच सीबीआई को सौंप दी थी। इसका नतीजा यह हुआ कि तत्कालीन शिक्षा मंत्री सहित शिक्षा विभाग का कमोबेश पूरा महकमा ही इन दिनों जेल में है।
जब पानी नाक के ऊपर से गुजरने लगा तो बार एसोसिएशन की एक विवादित बैठक में जस्टिस गंगोपाध्याय के कोर्ट की सुनवाई में हिस्सा नहीं लेने का फैसला लिया गया। उनके कोर्ट के सामने धरना भी दिया गया पर जस्टिस गंगोपाध्याय के सख्त रुख के कारण यह खुमार भी जल्दी ही उतर गया। इसके अलावा हर रोज हो रहे घोटाले के नए खुलासे के कारण सरकार बैक फुट पर आ गई है।
जस्टिस मंथा पुलिस के खिलाफ दायर मामलों की सुनवाई करते हैं। तो क्या तृणमूल कांग्रेस की लीगल सेल यह चाहती है कि सरकार की आलोचना करने वालों के खिलाफ हर रोज एफआईआर दर्ज होती रहे और हाई कोर्ट इन पर वैधानिकता की मोहर लगाती रहे। मजे की बात यह है कि शुभेंदु अधिकारी के खिलाफ जितने भी मामले दर्ज किए गए है सारे पांच छह साल पुराने है। उन दिनों शुभेंदु अधिकारी तृणमूल सरकार में मंत्री हुआ करते थे।
जाहिर है कि ऐसे में यह सवाल उठता है कि अगर यह गिरफ्तारियां और मुकदमे सही है तो तृणमूल कांग्रेस के प्रवक्ता साकेत गोखले की गुजरात पुलिस द्वारा की गई गिरफ्तारी नाजायज कैसे है। जादवपुर विश्वविद्यालय के प्रोफेसर अंबिकेश महापात्र को मुख्यमंत्री का कार्टून बनाने के मामले में 10 साल बाद अदालत ने बेकसूर करार दिया है। उनका अपराध भी वही था जो गोखले का है।
अगर केंद्र सरकार के कानून मंत्री के खिलाफ यह आरोप लगाया जाता है कि वह सुप्रीम कोर्ट के कॉलेजियम को अपने दबाव में लेने की कोशिश कर रहे हैं तो हाई कोर्ट के जस्टिस राजाशेखर मंथा को दबाव में लेने की कोशिश को क्या कहेंगे। आज जस्टिस मंथा है तो कल दूसरे भी हो सकते हैं। तो क्या अब फैसले की तहरीर कोई और लिखेगा और जज उस पर सिर्फ दस्तखत भर कर देंगे।
(जेके सिंह वरिष्ठ पत्रकार हैं और कोलकाता में रहते हैं।)