उत्तर प्रदेश में कानून का राज नहीं रह गया है। पिछले 7 सालों से मजदूरों के हितों विशेषकर महिला कर्मियों के पक्ष में दिए गए हाईकोर्ट के आदेशों का अनुपालन योगी सरकार नहीं कर रही है। अप्रैल माह में 3 तारीख को यू0 पी0 वर्कर्स फ्रंट की जनहित याचिका पर इलाहाबाद हाईकोर्ट की लखनऊ खंडपीठ ने 181 वूमेन हेल्पलाइन को फिर से चालू करने के संदर्भ में आदेश दिया था कि याचिकाकर्ता अपर मुख्य सचिव गृह, उत्तर प्रदेश शासन को अपना सुझाव दे और इस नीतिगत विषय पर प्रदेश के संबंधित अधिकारी सारे पहलुओं पर विचार कर निर्णय लें।
इस संबंध में 8 अप्रैल को अपर मुख्य सचिव गृह, प्रमुख सचिव व निदेशक महिला कल्याण और विभागीय मंत्री बेबी रानी मौर्य को पत्र भेजा गया। लेकिन आज तक सरकार ने इस पर कोई कार्यवाही नहीं की। व्यथित होकर कल 1 जुलाई को वूमेन हेल्पलाइन की महिला कर्मी मुख्यमंत्री जनता दर्शन में गई और वहां भी हाईकोर्ट के आदेश के अनुपालन के लिए गुहार लगाई है। गौरतलब है कि निर्भया कांड के बाद देश में बनी जस्टिस जेएस वर्मा कमीशन ने महिला हिंसा पर रोक लगाने और महिला अधिकारों की रक्षा के संदर्भ में अपनी रिपोर्ट भारत सरकार को दी थी।
इस रिपोर्ट में यह संस्तुति की गई थी कि महिलाओं के लिए एक सार्वभौमिक स्वतंत्र महिला सहायता तंत्र विकसित किया जाना चाहिए और उनके लिए स्पेशल एक फोन नंबर भी होना चाहिए ताकि वह सभी प्रकार की सहायता को एक फोन काल से प्राप्त कर सके। इसके बाद भारत सरकार के निर्देश के बाद उत्तर प्रदेश में अखिलेश सरकार ने 181 वूमेन हेल्पलाइन योजना को 11 जिलों में शुरू किया था। जिसे बाद में योगी सरकार ने विस्तार कर पूरे प्रदेश में लागू किया। जिसमें लखनऊ में 30 सीटर हेल्पलाइन सेंटर और हर जिले में रेस्क्यू वैन का ढांचा बनाया। इसके जरिए बलात्कार, घरेलू हिंसा, छेडखानी समेत यौनिक, सामाजिक व सांस्कृतिक रूप से उत्पीड़ित महिलाओं को हर प्रकार का संरक्षण मिलता था।
यह योजना सरकार की महत्वाकांक्षी योजना थी, खुद सरकार के आला अधिकारियों ने इसकी तारीफ की और बताया कि इसकी बनने के बाद प्रदेश में महिला हिंसा में सहायता प्राप्त करना आसान हुआ है। सरकार ने ‘एक नंबर-समाधान अनेक’ के नारे के साथ पूरे प्रदेश में इसका व्यापक प्रचार प्रसार कराया। सभी लोग जानते हैं कि कोरोना महामारी काल में महिला हिंसा में बढ़ोतरी हुई थी और ऐसी स्थितियों में अपनी जान पर खेल कर 181 वूमेन हेल्प लाइन कर्मियों ने महिलाओं की सहायता करने का काम किया।
लेकिन कॉर्पोरेट घरानों की आपसी लड़ाई और निहित स्वार्थ में 5 जुलाई 2020 को इस योजना को पुलिस की हेल्पलाइन 112 के अधीन कर दिया गया और इसमें कार्यरत 351 कर्मियों, जिसमें एक दो अपवाद को छोड़कर सभी महिलाएं थी, को नौकरी से निकाल दिया गया। यहां तक कि उनकी अप्रैल, मई और जून माह की मजदूरी का भी भुगतान नहीं किया गया था। इस योजना को बंद करने के विरुद्ध वर्कर्स फ्रंट में हाईकोर्ट में याचिका दाखिल की थी। जिसमें आए हाईकोर्ट ने आदेश का सम्मान करने को सरकार तैयार नहीं है।
इसके पहले इलाहाबाद हाईकोर्ट की लखनऊ खण्ड़पीठ ने रिट संख्या 5905/2023 कोकिला शर्मा बनाम सचिव महिला एवं बाल कल्याण, भारत सरकार व अन्य 6 में दिनांक 22 नवम्बर 2023 को आदेश दिया था कि आर्डर जारी होने की तिथि से चार माह के अंदर ग्रेच्युटी अधिनियम 1972 के अंतर्गत सभी सेवानिवृत्त होने वाली आंगनबाड़ी और सहायिकाओं को ग्रेच्युटी भुगतान किया जाए। जस्टिस मनीष माथुर द्वारा दिए इस आदेश का आज तक अनुपालन नहीं हुआ।
हालत यह है कि 25 मई 2024 को आंगनबाड़ी कर्मचारी संघ द्वारा दाखिल अवमानना याचिका में कोर्ट ने सचिव व निदेशक बाल सेवा एवं पुष्टाहार विभाग को नाटिस जारी करके पूछा है कि क्यों न उन्हें दण्डित किया जाए। बावजूद इसके सरकार की इस दिशा में कोई कार्रवाई नहीं दिख रही है। उत्तर प्रदेश में कार्यरत 1 लाख 89 हजार आंगनबाड़ी कार्यकत्री और 1 लाख 66 हजार सहायिकाओं के लिए उत्तर प्रदेश सरकार ने कोरोना महामारी के समय जुलाई 2020 में 62 साल की उम्र पूरा होने पर सेवानिवृत्त करने का आदेश दिया था।
इस आदेश के बाद करीब 60 हजार आंगनबाडी और सहायिकाओं की सेवानिवृत्ति कर दी गई। इनको पेंशन, ग्रेच्युटी व सवैतनिक अवकाश जैसे सेवानिवृत्ति लाभ देने से सरकार ने मना कर दिया था। इस तुगलकी आदेश के खिलाफ लगातार आंदोलन और न्यायिक कार्यवाहियां जारी थी। इसी बीच सुप्रीम कोर्ट ने 25 अप्रैल 2022 को मनीबेन मगनबाई भारिया बनाम जिला कार्यक्रम अधिकारी, दोंड एवं अन्य मामले में आंगनबाड़ियों को सेवानिवृत्ति के बाद ग्रेच्युटी भुगतान के लिए गुजरात सरकार को आदेश दिया। जिसके बाद उत्तर प्रदेश में भी कई रिट हाईकोर्ट में दाखिल की गई। इन रिटों में इलाहाबाद हाईकोर्ट ने उत्तर प्रदेश की आंगनबाडियों की समान सर्विस कंडीशन को मानते हुए ग्रेच्युटी भुगतान का आदेश दिया। जिसका अनुपालन करने को योगी सरकार तैयार नहीं है। इस मामले में दाखिल अवमानना याचिका की अगली सुनवाई 26 जुलाई 2024 को होगी, जिस पर सभी आंगबाड़ियों की निगाह लगी हुई है।
इसी तरह उत्तर प्रदेश में करीब 2 लाख परिषदीय विद्यालयों और प्राथमिक विद्यालयों में काम करने वाले मिड डे मील रसोइया हैं, जिनमें भी ज्यादातर महिलाएं हैं। इनको न्यूनतम मजदूरी देने का आदेश चंद्रावती बनाम उत्तर प्रदेश सरकार मामले में 15 दिसम्बर 2020 को इलाहाबाद हाईकोर्ट ने दिया था। जस्टिस पंकज भाटिया ने अपने आदेश में कहा था कि मिड डे मील रसोइयों से 1000 रूपए मासिक पर काम करवाना बंधुआ मजदूरी है जिसे संविधान के अनुच्छेद 23 में प्रतिबंधित किया गया है। कोर्ट ने कहा कि सरकार का भी संवैधानिक दायित्व है कि किसी के भी मूल अधिकारों का हनन न हो पाए। सरकार किसी को भी न्यूनतम वेतन से कम नहीं दे सकती है।
कोर्ट ने प्रदेश के सभी जिलाधिकारियों को इस आदेश पर अमल करने और रसोइयों को न्यूनतम वेतन देने का आदेश दिया। उसी आदेश में केन्द्र व राज्य सरकार को चार माह में न्यूनतम वेतन तय करने और 2005 से अब तक सभी रसोइयों को वेतन अंतर के बकायों का निर्धारण कर भुगतान करने को कहा था। इस आदेश के लागू न होने के कारण अवमानना याचिका इलाहाबाद हाईकोर्ट में दाखिल की गई जिस पर कार्रवाही चल रही है।
उत्तर प्रदेश में तो हालत इतनी बुरी है कि पिछले 5 सालों से उत्तर प्रदेश में न्यूनतम वेतन का भी वेज रिवीजन नहीं हुआ जबकि न्यूनतम वेतन अधिनियम की धारा 3 स्पष्ट रूप से यह कहती है कि हर 5 साल पर मिनिमम वेज का रिवीजन होना चाहिए। 2014 में उत्तर प्रदेश में मिनिमम वेज का रिवीजन हुआ था, जिसे 2019 में पुनः होना था। लेकिन 2024 आ गया अभी तक सरकार ने इसे करने का काम नहीं किया। कई बार विधायकों ने विधानसभा और विधान परिषद में इस सवाल को उठाया तो श्रम मंत्री ने बार-बार यह जवाब दिया कि 6 महीने में न्यूनतम वेतन समिति का गठन कर लिया जाएगा। उनका 6 महीना अभी तक पूरा नहीं हो सका है और आज तक वेज रिवीजन कमेटी तक का गठन नहीं हुआ।
योगी सरकार ने प्रदेश में लगातार एस्मा लगाया हुआ है यानी अपनी किसी भी मांग पर कोई लोकतांत्रिक गतिविधि कर्मचारी, मजदूर द्वारा नहीं की जा सकती। बिजली कर्मियों, 108 एम्बुलेंस ड्राइवरों, रेनूसागर पावर डिवीजन के ठेका मजदूरों समेत जितने भी आंदोलन हुए सबका बर्बरता पूर्वक दमन कर दिया गया। यहीं नहीं अभी सरकार के अपर मुख्य सचिव कार्मिक डॉ. देवेश चतुर्वेदी द्वारा 19 जून को जारी शासनादेश में सरकारी कर्मचारी के प्रिंट मीडिया, इलेक्ट्रानिक मीडिया, सोशल मीडिया ओर डिजीटल मीडिया में अपनी बात कहने पर रोक लगा दी है।
सरकारी कर्मचारी केवल साहित्यिक, कलात्मक या वैज्ञानिक बातों को ही लिख सकता है। जो कर्मी अपने कानूनी अधिकार के लिए हाईकोर्ट गए और वहां से आदेश भी कराकर लाए उसे मानने को सरकार तैयार नहीं है। एक ऐसी स्थिति में जब प्रदेश में आंदोलन की कौन कहे अपनी बात कहने तक अधिकार नहीं है। तब उत्तर प्रदेश में हाईकोर्ट के आदेशों और कानून में प्रदत अधिकारों को लेकर एक बड़े पहल की आज जरूरत है जिसे प्रदेश के सभी संगठनों को मिलकर पूरा करना चाहिए।
(दिनकर कपूर आल इंडिया पीपुल्स फ्रंट के प्रदेश महासचिव हैं)