Wednesday, April 24, 2024

सहारनपुर से ग्राउंड रिपोर्टः खाकी निक्कर वाले नहीं थे, इसलिए रही शांति

सीएए-एनआरसी के खिलाफ़ हुए विरोध प्रदर्शनों में सबसे ज़्यादा हिंसा और पुलिसिया बर्बरता उत्तर प्रदेश में हुई। विशेषकर मुस्लिम बाहुल्य इलाकों को जानबूझकर निशाना बनाया गया।

सहारनपुर में मुस्लिम समुदाय के लोगों का मुख्य पेशा ‘वूड कार्विंग’ है। इसके अलावा ये समुदाय रिक्शा चलाकर या दूसरे सामानों की दुकानदारी करके गुजारा करता है। एनआरसी-सीएए के खिलाफ़ हुए विरोध प्रदर्शनों में मुजफ्फ़रनगर, मेरठ, कानपुर और लखनऊ में कई लोगों की मौत हुई। मुस्लिम बाहुल्य सहारनपुर बेहद शांत और सौहार्द्रपूर्ण बना रहा।

आखिर सहारनपुर के लोग सीएए-एनआरसी के बारे में क्या सोचते हैं ये जानने के लिए हम सहारनपुर के लोगों के बीच गए। 70 वर्षीय अखलाक कहते हैं, “यहां पुलिस सहयोग कर रही है, प्रशासन अच्छा है, इसलिए हिंसा और बलवा नहीं है। लोगों ने शांतिपूर्ण विरोध प्रदर्शन किया है। वो बताते हैं कि धारा 144 लागू है। प्रशासन के आदेश पर पुलिस ने दो दिन जल्दी बाज़ार बंद करवा दिए थे। बाकी वैसी कोई बहुत दिक्कत तलब बात नहीं हुई।”

लकड़ी के मंदिरों के शीर्ष को आग में सेंक कर यूनिक कलर देते वहीद भाई कहते हैं- “जुमे के दिन बाज़ार में पुलिस का जमावड़ा रहता है, क्योंकि सहारनपुर में जो भी प्रोटेस्ट हुए हैं, वो जुमे के दिन हुए हैं। मस्जिदों के आस-पास भी बड़ी मात्रा में पुलिस बल मौजूद रहता है। बाज़ार के दोनों ओर यानि गोल्ड कोठी और कुतुब शेर चौक पर पुलिस थाने हैं। इसकी वजह से दिन और रात में पुलिस की आवाजाही लगी ही रहती है।” वहीद भाई बताते हैं कि जो लोग अब इस दुनिया में हैं ही नहीं (उनके अब्बू-अम्मी गुजर चुके हैं) उनका जन्म स्थान और जन्म तिथि हम कहां से लाएं। 

भोजनालय संचालक सुहेल बताते हैं, “कहीं हिंसा या उपद्रव जैसी बात सहारनुर में तो नहीं हुई, लेकिन विरोध मार्च के अगले दिन रात में लक्कड़ बाज़ार, खजूरतला, छोपरी मंडी इलाके के कई लड़कों को पुलिस उठाकर ले गई थी, पूछताछ के लिए रात भर थाने में रखा भी था, लेकिन स्थानीय सांसद फजलुर्रहमान (बसपा) और स्थानीय विधायक मसूद अख्तर (कांग्रेस) और इमरान मसूद के हस्तक्षेप के बाद अगले दिन सुबह ही उन लड़कों को छोड़ दिया गया था।”

उन्होंने बताया कि इसके अलावा धारा 144 के उल्लंघन के आरोप में 1600 लोगों के खिलाफ़ केस दर्ज किया गया था जबकि 400 से ज़्यादा के खिलाफ़ प्रशासन द्वारा मुकदमा भी दर्ज़ करवाया गया है।”

वूड कार्विंग का काम करने वाले इब्राहिम कहते हैं, “रैली निकालने की डीएम की परमीशन नहीं है। ये तो वही मिसाल है कि जबरा मारै और रोवैय भी न देय। वो ये भी बताते हैं कि चंद्रशेखर आजाद रावण का गृहनगर होने के बावजूद दलित समुदाय का उतना समर्थन नहीं मिला है।” 

पैडल रिक्शा चलाने वाले 55 वर्षीय मोहम्मद वसीम अपने किराए के रिक्शे पर लगे तिरंगे को दिखाते हुए कहते हैं, “मैं दिल से हिंदुस्तानी हूं। हर 26 जनवरी को रिक्शे पर तिरंगा लगाता हूं और फिर ये पूरे साल भर लगा रहता है। मैं तिरंगे की हिफाजत और रख रखाव करता हूं।” एनआरसी के सवाल पर वो कहते हैं, “एनआरसी-सीएए सरकार द्वारा उठाया गया एक गलत कदम है। मैं मजदूर आदमी हूं, कहां जाऊंगा। इस सरकार में पहले मुफ्त खाता खुलवाया गया अब उसमें पैसे निकालने पर टैक्स लगाते हैं। इस सरकार ने अच्छे दिन के वादे पर हमें ठगकर कंगाल कर दिया।”

उन्होंने कहा कि बैटरी रिक्शा ने हमें बेकार कर दिया। सवारी इस रिक्श में बैठती ही नहीं। बाजार से सामान ढोने का कुछ काम मिल जाता है तो दिन भर में 100-200 रुपये की आय हो जाती है। रिक्शा मेरा नहीं है। इसे भी मैं 30 रुपये प्रतिदिन के किराए पर लेता हूं। बैटरी रिक्शा एक लाख पैंत्तीस हजार रुपये का है। इसे हम ख़रीद नहीं सकते।” 

अपनी बकरी को पत्तियां खिलाते हुए ज़हीर अहमद बताते हैं, “जुमे के दिन दो बड़ा जुलूस, एक जामा जामा मस्जिद से और दूसरा खाताखेड़ी से निकला था। दोनों जुलूस घंटा घर पहुंचकर मिल गए थे। करीब एक लाख लोग उस समय घंटाघर पर पहुंचे थे। हाथों में कैंडिल लेकर बेहद शांतिपूर्ण तरीके से। उस जुलूस मे सभी बिरदारी के लोग थे। हिंदू भी मुस्लिम भी।” जहीर बताते हैं कि पुलिस एक दो चक्कर लगाती है दिन भर में।

एनआरसी-सीएए पर जहीर अहमद नाराज़गी जाहिर करते हुए कहते हैं, “सरकार गलत कर रही है। हमारे पुरखों की हड्डियां इस मुल्क़ की मिट्टी का हिस्सा बन चुकी हैं। हम भी इसी मुल्क़ की मिट्टी से बने हैं और मरकर इसी मिट्टी में मिल जाएंगे।” 

अपने मुस्लिम संगी और हमपेशा मोहम्मद इस्लाम के साथ बैठकर रोटी खाते रिक्शा चालक मुकेश कहते हैं, “पीढ़ियों से हम एक-दूजे के साथ रहते आए हैं। मैं रिक्शा-चालक हूं, मगर शिक्षित हूं। इस देश के इतिहास और इस देश की संस्कृति समाज और देशकाल के निर्माण में मुस्लिम समुदाय के योगदान से अनजान नहीं हूं। ये कलाकार और बेहद मेहनती कौम है। मेरे सहारनपुर की पहचान लकड़ी पर इनकी कलाकारियों की बदौलत से ही है। दिल्ली की पहचान लाल किला और देश की वैश्विक पहचान दिलाने वाली ताजमहल मुस्लिम कौम की ही देन है।”

मुकेश कहते हैं कि मुस्लिम समुदाय की संस्कृति वाली चीजों को अगर निकाल दो तो आज हमारे शादी-विवाह, गीत-संगीत और त्योहार बेजान हो जाएंगे। मैं समाज और देश को बांटने वाले एनआरसी और सीएए कानून की कड़ी निंदा करता हूं।” मुकेश कहते हैं, “भले हिंदू हूं, लेकिन मुझे भी अपने मां-बाप की जन्म तिथि और जन्म स्थान नहीं मालूम हैं। मेरे पास भी बहुत से कागजात नहीं हैं। ये सिर्फ़ हिंदू-मुस्लिम का मुद्दा नहीं है। ये सरकार दरअसल गरीब विरोधी है।”

लहंगा और साड़ी सूट की दुकान चलाने वाले सलीम बताते हैं, “यहां जो विरोध प्रदर्शन हुआ वो बस जुमे के दिन हुआ। लगातार नहीं हुआ जैसा कि शाहीन बाग़ या जामिया में हो रहा है।” इसकी वजह सलीम बताते हैं कि अधिकांश लोगों की पहली लड़ाई पेट की भूख के खिलाफ़ है। जहां हर रोज कमाना, हर रोज खाना है। पूरा समुदाय एकमत से एनआरसी–सीएए के खिलाफ़ हैं।”

क्या लड़कियां और स्त्रियां भी इन विरोध जूलूसों में शरीक हुई थीं? पूछने पर सलीम बताते हैं कि पारंपरिक क़स्बाई समाज होने के नाते इन विरोध प्रदर्शनों में स्त्रियां और लड़कियां शामिल नहीं हुई थीं।  दिनेश कुमार बताते हैं, “सीएए-एनआरसी विरोध प्रदर्शनों में सहारनरपुर के शांत रहने की एक बड़ी वजह ये है कि यहां खुराफ़ात करने वाले लोग नहीं हैं।”

कैसी खुराफ़ात करने वाले लोग? पूछने पर दिनेश हंसते हुए कहते हैं, “खाकी निक्कर वाले। इस देश में सारी फसाद की जड़ वही हैं। यहां सहारनपुर में वो आस-पास नहीं भटकने पाते। इसीलिए ये इलाक़ा इतना शांत है।”

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