मध्यप्रदेश के मुख्यमंत्री शीघ्र ही विभिन्न मंडलों एवं कार्पोरेशन्स के अध्यक्षों, उपाध्यक्षों और सदस्यों की नियुक्ति की घोषणा करने वाले हैं। इनकी कुल कितनी संख्या है इसका निश्चित ज्ञान नहीं है। परन्तु इतना पक्का है कि इन संगठनों के सभी पदाधिकारियों को भारी-भरकम वेतन एवं अन्य सुविधाएँ मिलती हैं। प्रश्न यह है कि क्या इसकी उपयोगिता है? इस पर उस स्थिति में जब हमारी सरकार की वित्तीय स्थिति अत्यधिक खस्ता है, इन पदों को भरना क्या ज़रूरी है?
सरकारी क्षेत्रों में कार्पोरेशन का कंसेप्ट सबसे पहले ब्रिटेन में हुआ था। ब्रिटेन में सबसे पहले ब्रिटिश ब्रॉडकॉस्टिंग कार्पोरेशन (बीबीसी) की स्थापना की थी। यह शायद डेमोक्रेटिक कंट्री में बनाई गई पहली कार्पोरेशन थी। इसी तरह की कार्पोरेशन और निगमों में विभिन्न पदों पर किसकी नियुक्ति की जाए, इस पर विचार करने के लिए ब्रिटिश सरकार ने वहां की संसद की एक कमेटी बनाई थी। इस कमेटी ने अन्य बातों के अतिरिक्त यह भी तय किया था कि इस कार्पोरेशन के अध्यक्ष और अन्य पदों पर हॉउस ऑफ कॉमन्स के सदस्य की नियुक्ति नहीं की जाएगी।
आज़ादी के बाद जब भारत में इस तरह के निगमों और मंडलों का गठन किया जाने लगा तो यहां भी यह प्रश्न उठा कि इनके पदाधिकारी किन्हें बनाया जाए। इस मुद्दे पर विचार करने के लिए संसद की एक समिति बनाई गई थी। इस समिति के अध्यक्ष कृष्णा मेनन को बनाया गया था। मेनन कमेटी ने भी इसी तरह की सिफारिश की और इस बात की स्पष्ट सिफारिश की थी कि इन निगमों एवं मंडलों के पदाधिकारी संसद के सदस्य को नहीं बनाया जाए।
मध्यप्रदेश में भी इस प्रश्न पर विचार किया गया और यहां कि विधानसभा के एक वरिष्ठ सदस्य श्री महेन्द्र सिंह कालूखेड़ा की अध्यक्षता में एक समिति बनाई थी। इस समिति ने भी यही सिफारिश की थी कि किसी विधायक को निगम मंडलों के किसी भी पद पर नियुक्ति न की जाए। परन्तु कृष्णा मेनन समिति और कालूखेड़ा समिति की सिफारिशों के बावजूद कई मामलों में सांसद और विधायकों को अध्यक्ष बनाया जाने लगा।
साधारणतः यह समझा जाता है कि सांसद और विधायक को कोई भी प्रशासनिक जिम्मेदारी न सौंपी जाए, क्योंकि संसद और विधानसभा का मुख्य कार्य शासन पर नियंत्रण रखना है। उसकी नियंत्रण रखने की ताकत उस समय कम हो जाती है जब उसकी नियक्ति किसी प्रशासनिक पद पर हो जाती है। आशा है कि अब जो नियुक्तियां होने वाली हैं उनमें इस बात का ख्याल रखा जाएगा। परंतु दुर्भाग्य की बात है कि इन पदों का उपयोग असंतुष्ट राजनीतिज्ञों को संतुष्ट करने के लिए किया जाता है। यदि किसी विधायक को मंत्री परिषद में शामिल नहीं किया जा सका या कोई अन्य लाभकारी पद नहीं दिया गया है तो उसे इन निगमों या मंडलों में पद देकर संतुष्ट किया जाता है।
परंतु कई राज्यों में ऐसा नहीं है। मैं स्वयं कई निगमों एवं मंडलों के कर्मचारी एवं यूनियनों के मंडलों में अध्यक्ष रह चुका हूँ। उस हैसियत से मैंने देश के कुछ राज्यों का भ्रमण किया, यह देखने के लिए कि उन राज्यों में निगमों और मंडलों का प्रशासन कैसे चलता है। आज क्या स्थिति यह कहना मुश्किल है। क्योंकि परिस्थितियां बहुत जल्दी बदलती हैं। परंतु उस समय मैं अनेक राज्यों में गया था। जिन राज्यों में मैं गया था उसमें गुजरात भी शामिल था।
गुजरात के भ्रमण के दौरान मैंने वहां के निगमों एवं मंडलों के अध्यक्षों से मुलाकात की। उनमें से बहुसंख्यक ने मुझे बताया कि वे जिन निगमों और मंडलों के अध्यक्ष हैं उनसे वे वेतन के रूप में एक पैसा भी नहीं लेते हैं और वाहन और मकान समेत अन्य सुविधाएँ भी नहीं लेते हैं। उनमें से बहुसंख्यक ने यह बात भी बताई कि गुजरात में भले ही सरकारों में परिवर्तन हो परंतु बहुसंख्यक मामलों में निगमों और मंडलों के अध्यक्षों को नहीं हटाया जाता है क्योंकि वे साधारणतः जिस मंडल या निगम के अध्यक्ष होते हैं और उन्हें जो काम सौंपा जाता है उनके संबंध में उन्हें भरपूर ज्ञान होता है। इस कारण ऐसे अध्यक्ष इन निगमों या मंडलों के नफे की संस्था बना देते हैं। ऐसा मध्यप्रदेश में नहीं है। यहां पर अनेक निगम और मंडल घाटे में चलते हैं और घाटे में चलने के कारण उन्हें बंद भी कर दिया जाता है। इसलिए मेरा सुझाव है कि मंत्रियों को ही निगम मंडल का अध्यक्ष बना देना चाहिए और बाकी पदों पर भी विषयों के जानकारों को नियुक्त किया जाना चाहिए।
परंतु ऐसी संस्थाओं में अध्यक्ष और अन्य पदाधिकारियों की नियुक्ति की आवश्यकता है जो सामाजिक काम करते हैं, जैसे महिला आयोग, बच्चों से संबंधित आयोग, अल्पसंख्यक आयोग, अनुसूचित जाति एवं जनजाति आयोग, आदि। परंतु इनमें भी अध्यक्ष विषयों के जानकारों को ही बनाया जाना चाहिए और ऐसे व्यक्तियों को बनाया जाए जो किसी भी राजनीतिक पार्टी और विशेषकर उस समय की सत्ताधारी पार्टी से जुड़े न हो। क्योंकि उसी हालत में वे न्यायपूर्ण कार्यवाही कर पायेंगे। जैसे यदि महिला आयोग की अध्यक्ष सत्ताधारी पार्टी से जुड़ी है तो वह ऐसी पीड़ित महिला की बात नहीं सुनेगी जिसकी शिकायत सत्ताधारी पार्टी से जुड़े किसी व्यक्ति के विरूद्ध हो।
(एल.एस. हरदेनिया स्वतंत्र टिप्पणीकार हैं)