बोकारो। झारखंड अलग राज्य गठन के 24 साल हो गए, एक रघुवर दास को छोड़कर राज्य के सभी मुख्यमन्त्री आदिवासी समुदाय से हुए हैं, जिसमें बाबूलाल मरांडी, अर्जुन मुंडा, मधु कोड़ा, शिबू सोरेन और उनके पुत्र हेमंत सोरेन शामिल हैं। बावजूद राज्य में आदिवासियों पर पुलिसिया उत्पीड़न की घटनाएं लगातार घटती रही हैं।
बता दें कि पिछले दिसम्बर 2021 में बोकारो जिला अंतर्गत गोमिया प्रखंड के चोरपनिया गांव का एक आदिवासी बिरसा मांझी को जोगेश्वर विहार थाना के थाना इन्चार्ज द्वारा बुलाकर कहा गया था कि वह एक 1 लाख रुपए का इनामी नक्सली है, वह पुलिस को सरेंडर कर दे।
पुलिस ने कहा था कि बिरसा मांझी पिता बुधु मांझी कथित एक लाख रुपए का इनामी नक्सल है। इस पर बिरसा ने बताया कि उसके पिता का नाम रामेश्वर मांझी है। बिरसा ने थाना में कहा कि उसका माओवादी पार्टी से कोई जुड़ाव नहीं है। उस वक्त तो बिरसा को जाने की अनुमति दे दी गई, लेकिन 15 दिसंबर को उसे फिर से बुलाया गया और फरवरी 2022 में पुलिस के सामने आत्मसमर्पण करने का आदेश दिया गया।
इसके बाद बिरसा काफी डरा सहमा रहने लगा। उसे इस बात की फिक्र सताने लगी कि उसे इस फ़र्जी आरोप में गिरफ्तार न कर लिया जाए या उसे किसी हिंसा का शिकार न बना दिया जाए।
बता दें कि उस वक्त बिरसा के साथ गए स्थानीय ग्राम पंचायत के एक जनप्रतिनिधि सुखराम हांसदा ने बताया कि जब वे थाने में थे, तब पुलिस उपाधीक्षक (डीवाईएसपी) सतीश चंद्र झा ने एसएचओ के फोन पर बात की। बिरसा को जागेश्वर विहार से करीब 20 किलोमीटर दूर तेनुघाट में उनके कार्यालय में वरिष्ठ अधिकारी से मिलने के लिए भेजा गया।
हांसदा ने बताया कि “डीवाईएसपी साहब ने उनसे कहा कि वे घर जाएं, आराम से रहें, अपने बेटे की शादी करें और फरवरी में आत्मसमर्पण कर दें।” झा ने कथित तौर पर कहा था कि “आत्मसमर्पण योजना के तहत उपलब्ध लाभ” बिरसा को दिए जाएंगे।
इसकी जानकारी जब झारखंड जनाधिकार महासभा को हुई तो महासभा ने इस बाबत बोकारो एसपी को 4 जनवरी 2022 को एक पत्र देकर मामले की निष्पक्ष जांच की मांग की। महासभा ने कहा था कि बिरसा मांझी पर इनामी नक्सल होने का आरोप बेबुनियाद है। ऐसा प्रतीत होता है कि स्थानीय पुलिस द्वारा किसी माओवादी घटना के लिए आरोपी ढूंढने के क्रम में हवा में तुक्का मारा गया है, जिसमें निर्दोष बिरसा मांझी को फंसया गया है।
महासभा ने पत्र के जरिए मांग की थी कि बिरसा मांझी पिता रामेश्वर मांझी का नाम इनामी नक्सलों की सूची से हटाई जाए एवं इस पर माओवादी होने के सम्बन्ध में लगे गलत आरोपों को वापिस लिया जाए। महासभा ने पत्र के माध्यम से एसपी को बताया कि गोमिया क्षेत्र में ऐसे कई निर्दोष आदिवासी-मूलवासी हैं जिनपर माओवादी होने के गलत आरोप लगाया गया है। अतः महासभा आपसे अपील करती है कि ऐसे सभी मामलों की समीक्षा की जाए एवं निर्दोष लोगों को आरोप मुक्त किया जाए।
उस वक्त बिरसा ने पुलिस से मुक्ति के लिए स्थानीय गोमिया विधायक से भी गुहार लगाया था। उसके बाद यह मामला लगभग शांत हो गया और बिरसा मांझी अपनी रोजी रोटी में फंस गये। लेकिन लगभग तीन साल के बाद बिरसा मांझी के एक लाख इनामी माओवादी का फर्जी भूत फिर से बाहर आ गया है और पुलिस उसे पुनः सरेंडर करने का दबाव बना रही है।
करीब एक माह पूर्व जागेश्वर विहार की पुलिस ने बिरसा को बुलाकर कहा कि उसपर एक लाख इनामी नक्सल होने का आरोप है तो जल्दी सरेंडर कर दो। इसपर बिरसा ने पिछली सारी बात बताई जो उसके और पुलिस के साथ दिसंबर 2021 में बातचीत हुई थी। दारोगा ने उसका नाम और उसके पिता का नाम पूछा फिर आधार कार्ड से मिलान किया और बोला ठीक है, हमलोग देखते हैं।
बिरसा ने बताया कि उसके बाद जब वह 17 अगस्त को पास की नदी में मछली पकड़ने गया था तब पुलिस उसके घर पर आई थी और उसे खोज रही थी। उसके बाद से बिरसा मांझी डरा सहमा रह रहा है। उसे इस बात का भय है कि कहीं पुलिस उसे गिरफ्तार करके जेल भेज देगी या एनकाउंटर कर देगी, क्योंकि वह आए दिन इस तरह की घटनाओं को देखता सुनता आ रहा है।
बताते चलें कि बिरसा व इसके परिवार की आजीविका मज़दूरी पर निर्भर है। परिवार के सभी व्यस्क सदस्य अशिक्षित है। बिरसा व इसका बड़ा बेटा मजदूरी करने ईट भट्टा जाते हैं या बाहर पलायन करते हैं। इसके अलावा बिरसा व परिवार के अन्य सदस्य गांव में ही रहते हैं, परिवार की आर्थिक स्थिति बहुत कमज़ोर है।
बिरसा मांझी व गांव के कई लोगों पर 2006 में इनके एक रिश्तेदार ने डायन हिंसा सम्बंधित मामला ( 40/2006 पेटरवार थाना) दर्ज करवा दिया था। इन पर लगे आरोप गलत थे। उस मामले में अधिकांश लोग आरोपमुक्त हो चुके हैं। बिरसा के अनुसार पिछले कुछ सालों में इस पर माओवादी घटना से सम्बंधित आरोप लगाया गया, लेकिन मामले की जानकारी उसे नहीं थी।
2018-19 में इसकी कुर्की जब्ती भी की गयी थी। लेकिन आज तक बिरसा को पता नहीं चला कि किस मामले में कुर्की जब्ती की कार्रवाई हुई थी। उसे कार्रवाई से पूर्व किसी प्रकार का नोटिस भी नहीं दिया गया था।
बिरसा मांझी का माओवादी पार्टी से किसी भी तरह से जुड़ाव नहीं है। इस बात की पुष्टि इसके पड़ोसी भी करते हैं। इसके बावजूद इसे एक इनामी नक्सली करार देना एवं इसे सरेंडर करने के लिए कहना पुलिस की कार्रवाई पर कई सवाल खड़ा करता है। मज़दूर वर्ग के एक गरीब व अशिक्षित आदिवासी पर इस प्रकार का गलत आरोप लगाना कोई नयी बात नहीं है। बिरसा को न उसके विरुद्ध मामले की जानकारी है और न आरोपों को गलत सिद्ध करने के वास्ते लम्बी क़ानूनी लड़ाई के लिए संसाधन है।
बिरसा बचपन में में अनाथ हो गए थे। मामा के घर उनकी परवरिश हुई। बचपन से ही बिरसा इधर-उधर मजदूरी करके अपना पेट भरते रहे। 2019 में उनके गांव चोरपनिया में उनके घर के पास एक ईंट भट्ठा स्थापित किया गया, तो बिरसा ने वहां काम करना शुरू कर दिया, जिन महीनों में काम उपलब्ध था, तब उन्हें 250 रुपये प्रतिदिन की कमाई होती थी।
करीब 50 साल के बिरसा पर पत्नी, तीन छोटी बेटियां और एक बेटा की परवरिश की जिम्मेदारी है। इनकी इस जिम्मेदारी में घर के मेंबर भी हिस्सेदारी निभाते हैं तब जाकर सभी का पेट चलता है।
बताते चलें कि बोकारो जिला मुख्यालय से लगभग 50 किलोमीटर पश्चिम में स्थित घने जंगलों वाला गोमिया प्रखंड मुख्य रूप से विस्फोटक फैक्ट्री आईईएल और माओवादी हिंसा और नक्सलियों की गिरफ़्तारी की लगातार रिपोर्ट के लिए जाना जाता है। गोमिया के नक्सलवाद प्रभावित झुमरा पहाड़ी क्षेत्र में गरीब आदिवासी रहते हैं, जिनमें से ज़्यादातर निरक्षर या अर्ध-शिक्षित हैं।
(झारखंड से विशद कुमार की रिपोर्ट)