राज्य सरकार के परिवहन मंत्री और कद्दावर नेता शुभेंदु अधिकारी ने मंत्रिमंडल से इस्तीफा दे ही दिया और इस तरह अटकलों के एक अध्याय का समापन हो गया। अलबत्ता उन्होंने विधानसभा से इस्तीफा नहीं दिया है और तृणमूल कांग्रेस ने भी उन्हें बाहर का रास्ता नहीं दिखाया है। अब सवाल उठ रहे हैं कि शुभेंदु अधिकारी किस राह पर चलेंगे। भाजपा और कांग्रेस तो उन्हें ‘भेज रहा हूं निमंत्रण प्रियवर तुम्हें बुलाने’ के ही अंदाज में न्योता दे रहे हैं।
आइए जरा एक बार विकल्पों पर गौर करें। अलबत्ता सियासत में दो और दो का जोड़ चार नहीं भी होता है, तो क्या शुभेंदु अधिकारी अजय मुखर्जी की राह पर चलेंगे। बंगाल में 1967 में विधानसभा का चुनाव होना था। प्रफुल्ल सेन मुख्यमंत्री थे और अतुल्य घोष प्रदेश कांग्रेस के अध्यक्ष थे। अजय मुखर्जी का नंबर कांग्रेस में प्रफुल्ल सेन के बाद ही आता था। प्रफुल्ल सेन से टकराव के बाद अजय मुखर्जी ने बांग्ला कांग्रेस का गठन किया और चुनाव में अपने उम्मीदवारों को उतार दिया। यहां तक कि आरामबाग के गांधी कहे जाने वाले प्रफुल्ल सेन को आरामबाग में ही पराजित कर दिया। विधानसभा चुनाव में किसी को बहुमत नहीं मिला। वाममोर्चा और अजय मुखर्जी के बीच समझौता हो गया। इसके तहत अजय मुखर्जी मुख्यमंत्री बने और ज्योति बसु ने उप मुख्यमंत्री और गृह मंत्री का कार्यभार संभाला।
आइए अब शुभेंदु अधिकारी के पास उपलब्ध विकल्पों पर गौर करें। पहला विकल्प है कि शुभेंदु अधिकारी भाजपा में शामिल हो जाएं, जैसा कि कयास लगाया जा रहा है। अगर ऐसा होता है तो उन्हें संगठन के नियम कानून को मानकर चलना पड़ेगा। उनके कितने समर्थकों को विधानसभा चुनाव का टिकट मिलेगा यह पार्टी तय करेगी। हो सकता है कि संख्या पर समझौता हो जाए लेकिन सियासत में समझौते का क्या हश्र होता है यह सभी को मालूम है।
अगर यकीन न हो तो 70 के दशक में इंदिरा गांधी और हेमवती नंदन बहुगुणा के बीच हुए समझौते का क्या हश्र हुआ था याद कर लें। इसके अलावा तृणमूल कांग्रेस से भाजपा में आए मुकुल राय कोलकाता नगर निगम के पूर्व मेयर सोभान चटर्जी बिधाननगर के पूर्व मेयर सब्यसाची दत्ता आदि आज भी खुद को भाजपा का अनुशासित सिपाही बताते हैं। लिहाजा अगर शुभेंदु अधिकारी भाजपा में शामिल होते हैं तो एक ही अनुशासित सिपाहियों की कतार में शामिल हो जाएंगे।
दूसरा विकल्प है कि तृणमूल कांग्रेस में ही बने रहें, क्योंकि अभी तक तृणमूल से जुड़ी उनकी डोर पूरी तरह टूटी नहीं है। एक जमीनी हकीकत यह भी है कि अभिषेक बनर्जी, ममता बनर्जी का भतीजा और तृणमूल कांग्रेस के डिफैक्टो नेता को चुनौती देने के बाद तृणमूल में वापस आने पर क्या हैसियत रह जाएगी। अगर चुनाव के बाद तृणमूल की सरकार बन भी जाती है तो शुभेंदु अधिकारी घोड़े पर सवार तो होंगे पर चाबुक तो आलाकमान के पास ही रहेगा। अगर भाजपा की सरकार बनती है तो भी यही स्थिति रहेगी। दूसरी तरफ तृणमूल में ही बने रह गए तो लौट के बुद्धू घर को आए फिकरा कसा जाएगा।
तीसरा विकल्प है कि शुभेंदु अधिकारी भी एक अलग पार्टी बना कर अजय मुखर्जी के बांग्ला कांग्रेस की तरह चुनाव लड़ें और विधानसभा चुनावों के बाद हरियाणा के दुष्यंत कुमार की तरह सत्ता के लिए मोल भाव करें। इसके अलावा उनके वोट बैंक के जातिगत समीकरण का सवाल भी है। भाजपा और मुसलमानों के बीच 36 का आंकड़ा सभी को मालूम है और यह भी सच है कि भाजपा के पास एक भी मुसलमान सांसद नहीं है। हैदराबाद नगर निगम के चुनाव में भाजपा का नारा यह साफ कर देता है कि वह बंगाल में किस आधार पर चुनाव लड़ेगी। यह आधार क्या शुभेंदु को रास आएगा। उनके चुनाव क्षेत्र वाले जिले, मसलन पूर्व एवं पश्चिम मिदनापुर, बागोड़ा और पुरुलिया आदि में मुस्लिम मतदाता चुनाव परिणाम को प्रभावित करने की हैसियत रखते हैं।
लिहाजा इन परिस्थितियों में अब सियासत के गलियारे में यह लाख टके का सवाल है कि शुभेंदु अधिकारी क्या करेंगे। मेहंदी हसन की ग़ज़ल की एक लाइन है, पहले जां, फिर जाने जां, फिर जाने जाना बन गए। अब शुभेंदु अधिकारी किसी की जाने जानां बनेंगे या रफ्ता-रफ्ता अपनी हस्ती खुद ही बनाएंगे, नहीं मालूम।
(जेके सिंह वरिष्ठ पत्रकार हैं और आजकल कोलकाता में रहते हैं।)