
(एबीपी न्यूज़रूम में बुधवार और गुरुवार को जो ‘कत्लेआम’ मचा उसकी गूंज दूर तक सुनाई दी है। वरिष्ठ पत्रकार पुण्य प्रसून वाजपेयी और संपादक मिलिंद खांडेकर के हटाए जाने और अभिसार शर्मा को ऑफ एयर किए जाने की इस घटना को देश में लागू ‘इमरजेंसी’ के खुले खेल के तौर पर देखा जा रहा है। ये मसला संसद में भी उठा। लेकिन जहां उठना चाहिए था वहां इसकी कोई आवाज नहीं सुनाई दी। मीडिया तकरीबन इस मसले से बेखबर दिखा। किसी एक भी पेपर या चैनल ने इस मुद्दे को उठाना जरूरी नहीं समझा। ऐसे में कुछ पत्रकारों ने जरूर इस जोखिम को हाथ में लिया और अपने वर्तमान और भविष्य की चिंता किए बगैर इसके खिलाफ बोलने का साहस दिखाया। पेश है उनमें से कुछ प्रमुख पत्रकारों और व्यक्तियों की प्रतिक्रियाएं- संपादक)
कमर वहीद नकवी, पूर्व संपादक, आजतक
एबीपी न्यूज़ में पिछले 24 घंटों में जो कुछ हो गया, वह भयानक है। और उससे भी भयानक है वह चुप्पी जो फ़ेसबुक और ट्विटर पर छायी हुई है। भयानक है वह चुप्पी जो मीडिया संगठनों में छायी हुई है। मीडिया की नाक में नकेल डाले जाने का जो सिलसिला पिछले कुछ सालों से नियोजित रूप से चलता आ रहा है, यह उसका एक मदान्ध उद्-घोष है। मीडिया का एक बड़ा वर्ग तो दिल्ली में सत्ता-परिवर्तन होते ही अपने उस ‘हिडेन एजेंडा’ पर उतर आया था, जिसे वह बरसों से भीतर दबाये रखे थे।
यह ठीक वैसे ही हुआ, जैसे कि 2014 के सत्तारोहण के तुरन्त बाद गोडसे, ‘घर-वापसी’, ‘लव जिहाद’, ‘गो-रक्षा’ और ऐसे ही तमाम उद्देश्यों वाले गिरोह अपने-अपने दड़बों से खुल कर निकल आये थे और जिन्होंने देश में ऐसा ज़हरीला प्रदूषण फैला दिया है, जो दुनिया के किसी भी प्रदूषण से, चेरनोबिल जैसे प्रदूषण से भी भयानक है। घृणा और फ़ेक न्यूज़ की जो पत्रकारिता मीडिया के इस वर्ग ने की, वैसा कुछ मैंने अपने पत्रकार जीवन के 46 सालों में कभी नहीं देखा। 1990-92 के बीच भी नहीं, जब रामजन्मभूमि आन्दोलन अपने चरम पर था। मीडिया का दूसरा बहुत बड़ा वर्ग सुभीते से गोदी में सरक गया और चारण बन गया। जैसा कि उसने 1975 में इमरजेंसी के बाद किया था। इतना ही नहीं, इस बार तो वह इस हद तक गटर में जा गिरा कि पैसे कमाने के लिए वह किसी भी तरह के साम्प्रदायिक अभियान में शामिल होने को तैयार दिखा।
कोबरापोस्ट के स्टिंग ने इस गन्दी सच्चाई को उघाड़ कर रख दिया। लेकिन यह भयानक चुप्पी तब भी छायी रही। सोशल मीडिया में भी, पत्रकारों और पत्रकार संगठनों में भी और आम जनता में भी। इसीलिए हैरानी नहीं होती यह देख कर कि एक मामूली-सी ख़बर को लेकर एबीपी न्यूज़ के सम्पादक मिलिंद खांडेकर से इस्तीफ़ा ले लिया जाय और अभिसार शर्मा को छुट्टी पर भेज दिया जाय। अभी ख़बर मिली कि पुण्य प्रसून वाजपेयी भी हटा दिये गये। उनके शो ‘मास्टरस्ट्रोक’ को पिछले कुछ दिनों से रहस्यमय ढंग से बाधित किया जा रहा था। इन सब घटनाओं पर कुछेक गिने-चुने पत्रकारों को छोड़ कर ज़्यादातर ने अपने मुंह सी रखे हैं। ऐसा डरा हुआ मीडिया मैं इमरजेंसी के बाद पहली बार देख रहा हूँ।
एडिटर्स गिल्ड ऑफ़ इंडिया और ब्रॉडकास्ट एडिटर्स एसोसिएशन मौन हैं। और इस सबसे भी भयानक यह कि देश इस सब पर चुप है। हो सकता है कि आप में से बहुत लोग अपनी व्यक्तिगत वैचारिक प्रतिबद्धताओं के कारण इन सब पर मन ही मन ख़ुश हो रहे हों। लेकिन क्या आज जो हो रहा है, वह भविष्य की सरकारों को इससे भी आगे बढ़ कर मीडिया को पालतू बनाने का रास्ता नहीं तैयार करेगा? अपनी पार्टी, अपनी राजनीतिक विचारधारा, अपनी धारणाओं और अपने पूर्वाग्रहों के मोतियाबिन्द से बाहर निकल कर देखिए कि आप भविष्य में किस तरह के लोकतंत्र की ज़मीन तैयार कर रहे हैं?
प्रभात डबराल, पूर्व समूह संपादक, सहारा समय
ये लोग इमरजेंसी वाले इंदिरा/ संजय गिरोह से भी ज़्यादा खतरनाक हैं, और ज़्यादा शातिर भी। लोकतंत्र के चौथे खम्भे को पालतू बनाने के लिए इंदिरा गांधी को कानून का डंडा फटकारना पड़ा था, जिसके लिए उन्होंने बाद में माफ़ी भी मांगी। इन्होंने चतुराई से काम लिया। सबसे पहले अपने धनपशुओं की दौलत से समाचार प्रतिष्ठानों के शेयर खरीदे, उन पर कब्ज़ा किया, अपने नए चैनल निकाले और फिर भी जब कुछ आवाज़ें खामोश नहीं हुईं तो उन्हें नौकरी से निकलवा दिया। खंडेकर, पुण्य प्रसून और अभिसार को सरकार ने नहीं चैनल मालिकों ने निकाला। ज़ाहिर है कि ये काम सरकार के दबाव में ही हुआ। विरोध की आवाज़ पर हुए इस शर्मनाक हमले का प्रतिकार कोई करे भी तो कैसे और कहाँ। कौन सा अखबार और कौन सा न्यूज़ चैनल है जो ईमानदारी से इसके विरुद्ध आवाज़ उठा पायेगा।
अब तो एक ही रास्ता बचा है…सड़कों पर उतरकर विरोध की आवाज़ बुलंद की जाए। ये मानकर चलिए कि टीवी चैनलों और अख़बारों में ये खबर नहीं छपेगी। न छपे। इमरजेंसी की ज़्यादतियों की ख़बरें कितने अखबारों ने छापी थीं।
इससे पहले भी जब-जब मीडिया में विरोध का स्वर दबाने की साजिश हुयी, पत्रकारों की आज़ादी पर हमला हुआ पत्रकारों के कई संगठन थे जिन्होंने एक स्वर में आवाज़ उठाई, धरना प्रदर्शन किये और सरकारों को झुकना पड़ा। ये सही है कि इस बार ये शातिर सरकार पीछे से छुपकर वार कर रही है। लेकिन इस तिकड़म का जवाब भी तो दिया ही जाना चाहिए। आज अगर पत्रकार संगठन खामोश रहे तो फिर कभी आवाज़ उठाने लायक नहीं रहेंगे।
ओम थानवी, पूर्व संपादक जनसत्ता
मैं तो टेलिग्राफ़ के शीर्षकों का गुणगान करता था, एबीपी के कार्यक्रम साझा करता था। बड़े कायर निकले सरकार!
शीतल पी सिंह, वरिष्ठ पत्रकार
पत्रकार शीतल पी सिंह ने अपने इस घटना के विरोध स्वरूप अपने फेसबुक की डीपी काली कर दी है। उन्होंने दो अलग-अलग पोस्टों में लिखा है कि-
साहेब को टीवी पर एब्सोल्यूट कब्जा मांगता।
सिर्फ वो ही चैनल चलेंगे जो हिंदू-मुस्लिम दंगा करा सकें।
अनिल जैन, वरिष्ठ पत्रकार
अभिव्यक्ति के सारे खतरे उठाने ही होंगे!
एबीपी न्यूज से तीन पत्रकारों के रुखसत होने पर तरह-तरह की प्रतिक्रियाएं देखने में आ रही हैं। सभी का मूल स्वर यही है कि तीनों सरकार और सत्तारुढ़ दल के कोप के शिकार बन गए। लेकिन मैं नहीं मानता कि यह कोई अनहोनी हुई है या इन तीनों पर कोई पहाड़ टूट पड़ा है। इससे पहले भी एबीपी और पूरी तरह सरकार विरोधी माने जाने वाले एनडीटीवी समेत कई चैनलों तथा अखबारों से कई पत्रकार और गैर पत्रकार कर्मचारी निकाले गए हैं। जब उनके बेरोजगार होने पर कोई आह-कराह नहीं तो, इन तीन पर ही क्यों स्यापा करना! कहा जा रहा है कि तीनों को अपने सरकार विरोधी तेवर के चलते एबीपी से बाहर होना पड़ा।
यह बात पुण्य प्रसून और कुछ हद तक अभिसार शर्मा के बारे में तो कही जा सकती है लेकिन मिलिंद खांडेकर को नाहक ही इन दोनों की श्रेणी में रखकर शहीद का दर्जा दिया जा रहा है। खांडेकर के बारे में सब जानते हैं कि वह संघनिष्ठ पत्रकार हैं और वह जहां भी रहा है, उसने उस निष्ठा के अनुरुप ही काम किया है। एबीपी न्यूज पर भी अगर पिछले कुछ सप्ताह से पुण्य प्रसून के शो का सत्ता विरोधी एक घंटा छोड़ दें तो बाकी तेईस घंटे तो बिल्कुल जी न्यूज और इंडिया टीवी की तर्ज पर सत्ता के भजन-कीर्तन ही तो होते हैं। दूसरे चैनलों की तरह वह भी नियमित रुप से हिंदू-मुसलमान करने में लगा रहता है।
जहां तक मास्टर स्ट्रोक की बात है, पुण्य प्रसून का यह शो शुरू करने का फैसला भी चैनल के संपादक की हैसियत से खांडेकर का अपना फैसला नहीं था बल्कि टीआरपी की दौड़ में दूसरे चैनलों की बराबरी करने या उनसे आगे निकलने की गरज से चैनल के प्रबंधन का फैसला था। लेकिन जब सरकार ने चैनल प्रबंधन पर आंखें तरेरी तो प्रबंधन ने अपनी दुकान को बंद होने से बचाने के लिए बिना किसी झिझक के पुण्य प्रसून की गर्दन नाप दी। खांडेकर को तो किन्हीं और वजहों से चलता किया गया है। सत्ता और बाजार की भक्ति में लीन रहने वाले मीडिया संस्थानों में ऐसा तो होता ही रहता है।
सत्ता विरोधी पत्रकारिता करने का खामियाजा भुगतने वाले पुण्य प्रसून और अभिसार कोई पहले या दूसरे पत्रकार नहीं हैं। विभिन्न मीडिया संस्थानों में यह सिलसिला पिछले चार सालों से लगातार चला आ रहा है। शुरुआती दौर में जो लोग इसके शिकार हुए थे, उनमें से मैं खुद भी एक हूँ। लेकिन मैंने न तो कभी अपने पीड़ित होने का प्रचार किया है और न ही कभी मुझे किसी की सहानुभूति की दरकार रही है। मैं प्रबंधन के खिलाफ अपनी लड़ाई कोर्ट में लड़ रहा हूँ।
मैं ही नहीं, मेरे जैसे सैंकड़ों पत्रकार हैं, जो अपना जीवन कुछ मूल्यों के साथ डिजाइन करके जी रहे हैं। मजीठिया वेज बोर्ड की सिफारिशों पर अमल से बचने के लिए विभिन्न मीडिया संस्थानों में कत्ल-ए-आम मच चुका है, जिसकी वजह से हजारों पत्रकार-गैर पत्रकार बेरोजगार होकर संघर्ष कर रहे हैं। कुछ ने तो आत्महत्या तक कर ली है। गांव-कस्बों और छोटे शहरों में हजारों पत्रकार हैं जो हर तरह की जोखिम उठाकर अपने पेशागत दायित्वों का निर्वाह कर रहे हैं।
मुक्तिबोध तो बहुत पहले ही कह गए हैं कि अभिव्यक्ति के सारे खतरे उठाने ही होंगे, तोड़ने होंगे मठ और गढ़ सब।
प्रशांत टंडन, वरिष्ठ पत्रकार
पुण्य प्रसून भी गये – अगला निशाना कौन होगा:
एबीपी न्यूज़ के संपादक मिलिंद खांडेकर के इस्तीफे के अगले ही दिन “मास्टरस्ट्रोक” कार्यक्रम के ऐंकर पुण्य प्रसून वाजपेयी की भी विदाई की खबर आ रही है। पिछले कुछ दिनों से ऐसी खबरें भी आ रही थीं कि ठीक उनके शो के वक़्त चैनल का डिस्ट्रीब्यूशन ब्लैकआउट किया जा रहा था।
ये भी खबर मिल रही है कि ABP News के ही अभिसार शर्मा को ऑफ एयर कर दिया गया है – यानि अब वो टीवी के पर्दे पर नहीं दिखाई देंगे।
इने गिने लोगों को छोड़ कर टीवी के अधिकांश पत्रकार सरकार की जय जयकार में लगे हुये हैं। इन दो इस्तीफ़ों के जरिये बाकियों को संदेश दे दिया गया है कि उनके साथ क्या किया जायेगा। ज़मीन खिसक रही है तो माफिया राज अब अपने असली रंग में दिखाई दे रहा है। देश और लोकतंत्र के लिये अगले कुछ महीने बेहद मुश्किल भरे होने के साफ आसार दिखाई दे रहे हैं।
विपक्ष के नेताओं से तो कोई खास उम्मीद नहीं है कि वो मीडिया पर हो रहे हमले के खिलाफ आवाज़ उठाएंगे – ये ज़िम्मेदारी समाज को खुद अपने हाथ में लेनी होगी।
एबीपी का मसला कल संसद में गूंजा और टीएमसी के नेता डेरेक ओ ब्रेयन ने इस मसले को उठाया तो कांग्रेस नेता रणदीप सिंह सुरजेवाला ने ट्वीट के जरिये इसकी जमकर मजम्मत की।
#RajyaSabha #ZeroHour @derekobrienmp speaks on press freedom | WATCH pic.twitter.com/j60ieHtiC9
#RajyaSabha #ZeroHour @derekobrienmp speaks on press freedom | WATCH pic.twitter.com/j60ieHtiC9
— All India Trinamool Congress (@AITCofficial) August 2, 2018
Operation – ABP News Channel
‘Kamal’Executor – Shri Narender Modi,
Shri Amit Shah.Objective -Suppress ‘truth being
spoken to power’.Outcome -Remove Punay Prasoon Vajpayee, Milind Khandekar, Abhisar & others
1/2Operation – ABP News Channel
‘Kamal’Executor – Shri Narender Modi,
Shri Amit Shah.Objective -Suppress ‘truth being
spoken to power’.Outcome -Remove Punay Prasoon Vajpayee, Milind Khandekar, Abhisar & others
1/2— Randeep Singh Surjewala (@rssurjewala) August 2, 2018
So last night a fine editor was forced to step down; today, a popular, respected anchor. The channel and GOI has much to answer: muzzling the media will backfire. In solidarity with @ppbajpai and @milindkhandekar . Phir subah hogi!
So last night a fine editor was forced to step down; today, a popular, respected anchor. The channel and GOI has much to answer: muzzling the media will backfire. In solidarity with @ppbajpai and @milindkhandekar . Phir subah hogi!
— Rajdeep Sardesai (@sardesairajdeep) August 2, 2018
Between 9 and 10 pm for last 10 days, signal of @ppbajpai show on @abpnewstv would go to black, start blinking. This is the most outrageous use of state power to interfere with media indep. And yet,no one, including the channel, dares speak out! इतना सन्नाटा क्यों? किसका डर है?
— Rajdeep Sardesai (@sardesairajdeep) August 2, 2018
#ABPNews के पत्रकारों !! देश और दुनिया तुम्हारी तरफ देख रही है। सामने आओ। मिसाल बनो और दुनिया को बता दो कि तुम लोग डरने वाले नहीं हो।तुम्हें ये एक ऐतिहासिक मौक़ा मिला है।कायर कहलाना चाहोगे या वीर ? तय तुम्हें ही करना है।
— Vinod Kapri (@vinodkapri) August 2, 2018
Whatever has happened to our friends – Milind Khandekar and Punya Prasoon – is murder of democracy and free press. In protest i am keeping my profile black. #FreeMediaDiedInIndia
— ashutosh (@ashutosh83B) August 2, 2018
विश्वगुरु का लोकतंत्र!
विश्वगुरु का मीडिया!
सब कुछ नंगा!
बजता डंका!
अपना बंदा!
अपना फंडा!
अपना डंडा!
कोई आवरण नहीं!
इसे कहते हैं:
खुला खेल फर्रुखाबादी!
क्यों भाई चैनल वाले!— urmilesh (@UrmileshJ) August 2, 2018
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