Friday, March 29, 2024

जब तक सरकारें अडानी-अंबानी की जेब में हैं,  तब तक असमानता कोई खत्म नहीं कर सकता 

भारत में सबसे तेज़ गति से बढ़ता हुआ सेक्टर ‘आईटी सेक्टर’ नहीं है, यह असमानता का सेक्टर है।

                                                                                                                         -पी. साईनाथ

2021 में एनसीआरबी ( NCRB) की एक दिल दहलाने वाली रिपोर्ट आयी थी, जिस पर ज्यादा चर्चा नहीं हुई। इस रिपोर्ट के अनुसार भारत में 115  दिहाड़ी मजदूर प्रति दिन आत्महत्या करने को मजबूर हो रहे हैं। साल भर में 41 हजार 975 दिहाड़ी मजदूर अपने उन हाथों से अपना ही गला घोटने पर मजबूर कर दिए गए जिन्हें इन हाथों  से इस  दुनिया को खूबसूरत बनाना था। हम सब जानते हैं कि इससे पहले और आज भी भारत किसानों की आत्महत्या के मामले में अच्छा खासा नाम कमा चुका है।

अभी कुछ दिनों पहले ही सीएमआईई (CMIE) की रिपोर्ट हमें यह बताती है कि भारत में कुल बेरोजगारों की संख्या 5 करोड़ पार कर चुकी है।

इसके अलावा 2018 में एक और बेहद महत्वपूर्ण स्टडी [UN study] आयी थी। इसमें बताया गया था कि दलित महिलाओं की औसत आयु सवर्ण महिलाओं की औसत आयु से 14.6 साल कम होती है। दलित और सवर्ण महिलाओं के बीच लगभग एक पीढ़ी का अंतर। यह अत्यंत भयावह है।

जाहिर है, इन रिपोर्टों से गुजरने वाले लोगों के लिए ऑक्सफैम की मौजूदा रिपोर्ट सर्वाइवल ऑफ रिचेस्ट (‘Survival of the Richest’) चकित नहीं करती। हालांकि ऑक्सफैम की इस रिपोर्ट में भी इन तथ्यों का जिक्र है, लेकिन उन पर चर्चा नहीं हो रही है। रिपोर्ट में इस बात का भी जिक्र है कि महिला श्रम को पुरुष श्रम से 37 प्रतिशत कम वेतन मिलता है, उसी तरह दलित श्रमिक को सवर्ण श्रमिक से 45 प्रतिशत कम वेतन मिलता है। भारत में बढती आर्थिक असमानता को जाति, धर्म और जेंडर की असमानताओं की परतों के भीतर भी देखने की जरूरत है, तभी हम असली तस्वीर प्राप्त कर सकते हैं और यह जान सकते हैं कि इस अश्लील असमानता का सबसे बड़ा बोझ आखिर कौन ढो रहा है।

आइये अब इसके समाधान वाले हिस्से पर बात करते हैं। 2013 में जब पिकेटी की किताब  ‘कैपिटेलिज्म इन ट्वेन्टीफस्ट सेंचुरी’ (Capital in the Twenty-First Century) आयी तो यह मान लिया गया कि बढ़ती गरीबी और असमानता का एक ही इलाज है- प्रगतिशील टैक्स> यानी अरबपतियों पर ज्यादा टैक्स लगाकर हम काफी पैसा इकठ्ठा कर सकते हैं और उसे जनता की भलाई पर खर्च कर सकते हैं। ऑक्सफैम की यह रिपोर्ट भी इस गणित से भरी हुई है कि अरबपतियों पर कितना टैक्स लगाकर हम जनता के लिए कितना कुछ कर सकते हैं। जैसे, अगर भारत के अरबपतियों की पूरी संपत्ति पर दो फीसदी की दर से एकमुश्त कर लगाया जाए, तो इससे देश में अगले तीन साल तक कुपोषित लोगों के पोषण के लिए 40,423 करोड़ रुपये की जरूरत को पूरा किया जा सकेगा।

दरअसल अतीत में ऐसा हुआ भी है। ‘महा मंदी’ के दौरान अमेरिका के राष्ट्रपति ‘रूजवेल्ट’ ने पूंजीपतियों पर कुल 94 प्रतिशत का कर लगाया। यानी 25000 डालर के ऊपर पूंजीपति जो भी कमायेगा [हालांकि यह राशि भी उस समय के लिहाज से पूंजीपतियों के ऐशो-आराम के लिए काफ़ी था], उसका 94 प्रतिशत सरकार को देना होगा। [कुछ विश्लेषकों का कहना है कि रूजवेल्ट 100 प्रतिशत कर लगाना चाहते थे, लेकिन पूंजीपतियों के भारी विरोध के कारण इसे 94 प्रतिशत कर दिया गया] इस पैसे को सरकार ने बेरोजगारों को दुबारा से रोजगार देने में खर्च किया। इस प्रक्रिया में अमेरिका ने मंदी के दौरान कुल 1 करोड़ 50 लाख के आसपास रोजगार का सृजन किया। उस वक़्त की अमेरिका की जनसंख्या [13 से 14 करोड़ ] को देखते हुए यह संख्या बहुत ज्यादा है। इस नीति के कारण जल्दी ही सामाजिक सम्पदा में तो बढ़ोत्तरी हुई ही, लोगों के पास रोजगार होने से उनकी क्रय शक्ति भी बढ़ने लगी, इससे बाजार में सामानों की मांग बढ़ने लगी, जिससे उद्योगों में उत्पादन बढ़ने लगा और लोगों को दुबारा से रोजगार मिलने लगा। इससे पूंजीपतियों का मुनाफा भी बढ़ने लगा।

लेकिन समझने की बात यह है कि रूजवेल्ट ऐसा क्यों कर पाए?

रूजवेल्ट यह काम कर पाए, इसके तीन कारण थे। पहला, अमेरिका में मजदूर आन्दोलन और कम्युनिस्ट पार्टी मजबूत अवस्था में थी। रूजवेल्ट ने पूंजीपतियों से अपनी गुप्त मीटिंगों में यही कहा होगा कि या तो सौ प्रतिशत टैक्स दो या फिर समाजवाद के लिए तैयार हो जाओ। दरवाजे पर कम्युनिस्ट बैठे हुए हैं। दूसरा कारण समाजवादी रूस की आर्थिक सफलता थी। पूरी पृथ्वी पर यही एकमात्र ऐसा देश था, जहा मंदी की बात तो जाने दीजिये, यहां जीडीपी (GDP) 10 प्रतिशत के आसपास चल रही थी और बेरोजगारी शब्द शब्दकोश से गायब हो चुका था। 100 प्रतिशत रोजगार था। पूरी दुनिया आश्चर्यचकित थी इस चमत्कार पर। इसका भी दुनिया की पूंजीवादी सरकारों पर दबाव था। इसलिए वे कुछ ‘लोक कल्याणकारी’ कदम उठाने को बाध्य थे। तीसरा कारण यह था कि पूंजीपतियों की जेब आज की तरह अभी इतनी गहरी नहीं हुई थी कि वे गोर्की की कहानी ‘करोड़पति कैसे होते हैं’ के करोड़पति की तरह संसद व सरकार को पूरी तरह अपनी जेब में रख ले। याद कीजिये ‘राडिया टेप’ जिसमें मुकेश अंबानी तत्कालीन कांग्रेस सरकार को अपनी दुकान बता रहे थे। और भाजपा तो अब मुकेश अंबानी की दुकान भी नहीं रही, बल्कि मुकेश अंबानी के शेयरों का मैनेजमेंट करने वाली एक’ दलाल फर्म’ बन कर रह गयी है। भाजपा का ‘सेल्फ रिलायंस’ का नारा वास्तव में ‘सिर्फ रिलायंस’ का नारा है।

इसके अतिरिक्त रूजवेल्ट सिर्फ एक या दो  पूंजीपतियों के प्रति समर्पित नहीं थे [जैसा की अपने देश में मोदी सरकार सिर्फ चंद साम्राज्यवादी आकाओं के साथ साथ अंबानी-अडानी के प्रति समर्पित हैं]। बल्कि वह अमेरिका के समूचे पूंजीपति वर्ग या पूंजीवाद के प्रति वफादार था।

इसके बरक्स यदि आज के भारत या आज की दुनिया पर हम नज़र डालें तो सोवियत रूस की तरह ना तो कोई समाजवादी राज्य है, ना ही अपने देश में वाम मजबूत स्थिति में है। दूसरी ओर सरकार और चंद साम्राज्यवादी-पूंजीवादी समूहों, बड़े बैंकरों के बीच की विभाजन रेखा लगभग ख़त्म हो चुकी है। आज जेफ़ बेजोस, एलन मस्क  और अडानी-अंबानी की जेब गोर्की की कहानी के पूंजीपति की जेब से भी ज्यादा गहरी हो चुकी है और वे एक नही कई सरकारों को अपनी जेब में रखने की क्षमता रखते हैं। ऐसे में सरकार अपने चुनाव और अपने चहेते चंद पूंजीपतियों के हितों से ज्यादा कुछ नहीं देखती। रूजवेल्ट की संभावना अब असंभव है।

‘लोक कल्याणकारी राज्य’ या ‘कीन्स का सिद्धांत’ उस समय की परिस्थितियों के कारण श्रम और पूंजी के बीच एक समझौता था। 1990 के बाद बदली परिस्थितियों में यह समझौता पूंजी के पक्ष में  टूट चुका है। एक अनुमान के अनुसार लगभग पूरी दुनिया में 1971 के बाद से ही राष्ट्रीय आय में मजदूरों का योगदान लगातार घटता गया है जबकि इसी दौरान मजदूरों की उत्पादकता तेजी से लगातार बढ़ती रही। अमीर-गरीब असमानता का यह प्रमुख कारण है।

दरअसल ना ही शुद्ध अर्थशाशास्त्र होता है और ना ही शुद्ध राजनीति। जो होता है, वह  ‘राजनीतिक अर्थशास्त्र’ होता है। इसलिए आज की तारीख में अमीरों पर टैक्स लगाने की[राज] नीति एकदम असंभव है।

ऑक्सफैम जैसी रिपोर्टों की दूसरी कमजोरी यह होती है कि यह आमतौर पर पहली दुनिया और तीसरी दुनिया के असमान शोषणकारी रिश्तों को बारीकी से छुपा जाती है। इससे यह नहीं पता चलता कि एशिया, लैटिन अमेरिका या अफ्रीका की गरीबी और असमानता का एक बड़ा कारण पहली दुनिया के देश यानी साम्राज्यवादी देश हैं।

भारत जैसे तीसरी दुनिया के देशों की ग़रीबी और भयानक असमानता का कारण महज इनका पिछड़ापन नहीं है। इसके पीछे एक साम्राज्यवादी डिजाइन है। साम्राज्यवादी देश तीसरी दुनिया के प्राकृतिक व मानवीय संसाधनों को तभी लूट सकते हैं जब वहां बड़े पैमाने पर ग़रीबी और बेरोजगारी हो। ऐसे में श्रम मूल्य हमेशा कम से कम होगा और संम्पदा का बहाव ग़रीब देशों से अमीर देशों की ओर यानी तीसरी दुनिया के देशों से साम्राज्यवादी देशों की ओर होता रहेगा। अमेरिका के मशहूर अर्थशास्त्री ‘जान स्मिथ’ ने अपनी थीसिस में बहुत विस्तार से यह बताया है कि अमेरिका और यूरोपियन देशों की जीडीपी का बड़ा हिस्सा तीसरी दुनिया के देशों का है, जहां ग़रीबी और बेरोजगारी के कारण श्रम मूल्य बहुत कम होता है। यानी वे हमारा 10 रुपये श्रम मूल्य का सामान 2 रुपये श्रम मूल्य में खरीद लेते हैं और इस तरह 8 रुपये का श्रम मूल्य हमारी जीडीपी का हिस्सा बनने की बजाय साम्राज्यवादी देशों की जीडीपी का हिस्सा बन जाता है। भारत को 5 ट्रिलियन अर्थव्यवस्था वाला देश बनना बहुत आसान है। इस 8 रुपये की साम्राज्यवादी लूट को बंद कर दीजिए। देश की अर्थव्यवस्था 5 ट्रिलियन नहीं 10 ट्रिलियन हो जाएगी। लेकिन इसके लिए ग़रीबी, सभी तरह की असमानता और बेरोजगारी को ख़त्म करना होगा।

( मनीष आजाद, स्वतंत्र टिप्पणीकार हैं, इलाहाबाद में रहते हैं।)

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