सांसद असदुद्दीन आवैसी ने संसद में सवाल पूछा था कि क्या यह तथ्य सही है कि पिछले पांच सालों में हाई कोर्ट में नियुक्त जजों में से 79 प्रतिशत जज अपरकास्ट से आते हैं?’ इसके जवाब में केंद्रीय कानून मंत्री अर्जुन मेघवाल ने 17 जुलाई, 2023 को संसद में रिपोर्ट प्रस्तुत किया। यह रिपोर्ट 2018 से जुलाई, 2023 तक की है। उन्होंने जो आंकड़ा पेश किया वह चौंकाने वाला है। हाईकोर्ट में नियुक्त जजों में से करीब 76 प्रतिशत जज अपरकास्ट के थे। दलित और आदिवासी बमुश्किल 5 प्रतिशत थे। कुल नियुक्त जजों की संख्या 604 है। जिसमें से 458 सवर्ण जातियों से हैं। यह 75.58 प्रतिशत बैठता है।
केवल 18 जज अनुसूचित जाति और 9 जज अनुसूचित जन-जाति से हैं। जो क्रमशः 2.98 और 1.49 प्रतिशत बैठता है। अन्य पिछड़ा समूह से 72 यानी 11.92 और अल्पसंख्यक समुदाय से 34 यानी 5.56 प्रतिशत नियुक्तियां हुई हैं। इनमें 13 के बारे में जानकारी नहीं थी। 2011 की जनसंख्या में अनुसूचित जाति समूह का प्रतिशत 16.6 प्रतिशत था, अनुसूचित जाति 8.6 प्रतिशत और अल्पसंख्यक 19.3 प्रतिशत हिस्सा रहा है। जबकि अन्य पिछड़ा समूह कुल जनसंख्या का 52 प्रतिशत माना जाता रहा है।
इस बयान के साथ केंद्रीय मंत्री अर्जुन मेघवाल ने संसद को यह भी बताया कि संविधान के अनुच्छेद 124, 217 और 224 के प्रावधान में सर्वोच्च न्यायालय और उच्च न्यायालय में जजों की नियुक्ति में व्यक्ति की जाति या वर्ग को आधार नहीं बनाया जाता है। उन्होंने यह भी कहा कि इन नियुक्ति में सरकार कोर्ट के मुख्य न्यायधीशों से आग्रह करती रही है कि नियुक्ति करते समय अनुसूचित जाति, जनजाति, ओबीसी, अल्पसंख्यक और महिला जैसे प्रवर्गों का ध्यान रखें। उन्होंने यह भी बताया कि सरकार उन्हीं जजों को नियुक्त करती है जिनके नाम को सर्वोच्च न्यायालय प्रस्तावित करता है।
यहां आनंद तेलतुम्बडे ने अपनी पुस्तक ‘एंटी-इंपीरियलिज्म एंड एनहिलेशन ऑफ कास्ट’ में उच्च न्यायालय के न्यायधीशों और एडीशनल जजों की 1982 और 1993 में कुल संख्या का आंकड़ा पेश किया है। इसके अनुसार मई, 1982 में कुल अनुसूचित जाति के जजों की संख्या 325 में सिर्फ 4 थी जो 1.23 प्रतिशत बैठता है। 1993 में 547 में 13 थी। जो प्रतिशत के हिसाब से 2.38 बैठता है। 1993 में अनुसूचित जाति के जजों का प्रतिशत 0.73 प्रतिशत था।
संसद में केंद्रीय कानून मंत्री अर्जुन मेघवाल ने यह बयान भाजपा सांसद सुशील मोदी के नेतृत्व वाले एक संसदीय पैनेल की उस रिपोर्ट के हवाले से दिया था जिसमें बताया गया था कि 2018 से 2022 के बीच नियुक्त उच्च न्यायालय जजों का 79 प्रतिशत हिस्सा ऊपरी जातियों का है। इसे संसदीय समिति के सामने जनवरी, 2023 के दूसरे हफ्ते में पेश किया गया था।
इस संदर्भ में, मुंबई के वकीलों के एक संगठन ने अपने अध्ययन के आधार पर 2015 में बताया था कि उच्च न्यायालय में 50 प्रतिशत ऐसे जज हैं जिनका पारिवारिक संबंधी इन पदों पर विराजमान रह चुका है। सर्वोच्च न्यायालय में ऐसे लोगों की संख्या 33 प्रतिशत थी।(हिंदुस्तान टाइम्स, 19 जून, 2015, एस.आर. सिंह की रिपोर्ट।)
भारत में न्याय की अवधारणा बेहद जटिल और मूलतः सवर्ण समुदाय के पक्ष में है। इस संदर्भ में खुद संसदीय समिति की रिपोर्ट से लेकर स्वैच्छिक संगठनों द्वारा जारी रिपोर्टों में देखा जा सकता है। सरकारी नौकरियां और इसी तरह की कुछ शैक्षिक संस्थान हैं जहां आरक्षण का प्रावधान लागू है। संसद में प्रतिनीधित्व में कुछ सीटें आरक्षित की गई हैं। लेकिन, यदि राज्य-व्यवस्था के कोर सिस्टम की तरफ बढ़ें, जिससे प्रतिनीधित्व प्रभावित होता है, वहां इसका निहायत ही अभाव दिखता है।
संविधान के मूल अधिकारों का संदर्भ जब संपत्ति के संदर्भ में आता है तब राज्य का अधिकार अधिग्रहण के रूप में और संपत्ति का अधिकार एक व्यक्ति के रूप में स्पष्ट तौर पर संवैधानिक व्याख्या और न्यायालय के निर्णयों परम्परा में स्थापित हो जाता है। इन दोनों का नतीजा यदि हम सरकारी आंकड़ों में ही देखें तब हमें वहां आदिवासी समूहों की जमीनों पर अंग्रेजी राज से भी बड़ा हमला और कब्जा होते हुए देखते हैं; यह शब्दावली भी मेरी नहीं, सरकारी रिपोर्ट की है।
वहीं खुद सरकार द्वारा जमीन वितरण पर बैठाये गये रिपोर्ट बताते हैं कि भूमि सुधार महज 3 से 4 प्रतिशत के बीच ही हो सका है। अर्थात अंग्रेजी राज में बनी भू-संपत्ति का मालिकाना हक उन किसानों को मिला ही नहीं जिन्हें जमींदारी व्यवस्था के तहत किसानों से जब्त कर लिया था। इन दोनों ही स्थितियों को बनाये रखने में न्यायालय अपने निर्णयों में बेहद महत्वपूर्ण भूमिका निभाता रहा है। ऐसी ही एक और व्यवस्था अर्थव्यवस्था के निजी क्षेत्रों की है जिन्हें आरक्षण की व्यवस्था न लागू करने की छूट मिली हुई है।
न्यायपालिका इस क्षेत्र में हस्तक्षेप करने के लिए सामाजिक न्याय के उन नियमों को यहां लागू करने के लिए बाध्यकारी आदेश जारी ही नहीं करती। न्याय एक निरपेक्ष शब्द नहीं है। न्यायधीश तो कत्तई नहीं। हम दोनों ही शब्दों के बदलते अर्थ को देख रहे हैं। सरकार भी अपने बयान में इस बात को रेखांकित कर रही है कि नियुक्तियों में वह संविधान के नियमों का ही पालन कर रही है लेकिन उसका निहितार्थ यही है कि उसे ऐसा करने का मौका दिया जाय। यह मसला दोहरे स्तर के संकट का है, और यह एक दुधारी तलवार की तरह है, जिसका प्रयोग करने के लिए सत्तासीन सरकार तैयार बैठी है।
(अंजनी कुमार स्वतंत्र पत्रकार हैं।)