सपनों के सहारे जीता-हारता किसान

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तुम्हारी फाइलों में गांव का मौसम गुलाबी है,
मगर यह आंकड़े झूठे हैं यह दावा किताबी है!

अदम गोंडवी की इन लाइनों में प्रासंगिकता के साथ किसान की दशा का प्रतिबिंब दिखाई देता है। किसान की परिभाषा के अंतर्गत खेत में कार्य करने वाले के साथ उन सभी को जोड़ा जाना चाहिए जो प्राकृतिक संसाधनों से खाने और अन्य उपयोग में आने वाली वस्तुओं का उत्पादन करते हैं। इस अर्थ में खेती, बाग, फूल, दूध  मछली, अंडे, मिट्टी के बर्तन और रेशम आदि को उत्पादित करने वाला किसान है, जबकि दूध से रसमलाई बनाने वाला हलवाई है।

स्वतंत्रता संग्राम के संघर्ष में किसान आंदोलन के केंद्र में था। एक ओर शहीद भगत सिंह तो दूसरी ओर महात्मा गांधी अंग्रेजों के भारत छोड़ने के उद्देश्य में किसान की भलाई सर्वप्रथम देखते थे। कृषि प्रधान देश होने के नाते भारत की आर्थिक समृद्धि का आधार गांवों में देखा जाता है, जहां  प्राकृतिक संसाधन प्रचुर मात्रा में हैं।

स्वतंत्रता प्राप्ति के बाद की राजनीति निर्धारित उद्देश्यों को आगे बढ़ाने की जगह नवोदित शासकों के हितार्थ किसानों को हाशिए पर धकेल रही है। 1950 में कृषि कामगारों की भागीदारी 70% थी, वहां 2020 में यह 55% रह गई, राष्ट्रीय आय में भागीदारी विगत 17 वर्षों में 54% से 17% पर सिमट चुकी है। छोटी खेती मुनाफे में नहीं रह गई है। इसी वर्ग का सीमांत किसान संख्या में 70 से 86% तक है तथा उन पर औसत 31000 का कर्ज उनकी दयनीय आर्थिक स्थिति को बता रहा है।

जेएनयू के प्रोफेसर हिमांशु बताते हैं कि लागत और बिक्री के संतुलन को देखें तो साल 2011-12 को छोड़ कर यह लगातार घाटे की तरफ है। न्यूनतम समर्थन मूल्य पूर्णतया राज्याधीन है। किसान को एमएसपी मिले तो वह लकी कहलाएगा परंतु यह ख्वाब है। गन्ने के भुगतान की दुर्दशा के लिए मेरठ का उदाहरण ले सकते हैं, जहां सितंबर 2020 तक 700 करोड़ रुपये मिलों पर बाकी था। मेरठ रीजन अर्थात गाजियाबाद, बागपत, बुलंदशहर और मेरठ को मिलाकर 1800 करोड़ बकाया है।

पूर्णतया मौसम पर निर्भर खेती के विषय में बहुत सुना गया कि फसल बीमा हो जाने से किसान को सुरक्षा कवच मिल जाएगा, परंतु मेरठ जनपद में वर्ष 2019-20 के लिए एकाधिकार के साथ आवंटित बीमा कंपनी नेशनल इंश्योरेंस के आंकड़े दूसरी ही तस्वीर प्रस्तुत करते हैं। विगत वर्ष मेरठ जनपद में किसानों से 22,67,321.00 रुपये प्रीमियम के रूप में नेशनल इंश्योरेंस कंपनी ने लिया, जिसके बदले किसानों को दावे में महज 2,93,092.00 रुपये मिले, जो कुल प्रीमियम का 12.92% हैं, शेष 82.08% राशि कंपनी खाते में गई।

किसानों की आय दोगुनी करने की 2016 में प्रधानमंत्री द्वारा की गई घोषणा सच हो यह हमारी भी कामना है, परंतु 2022 में किसानों की आय को दोगुना करने का वादा कैसे पूरा होगा जबकि आय घट रही है। कोविड-19 की अर्थव्यवस्था पर पड़ती काली छाया में किसान भारतीय कृषि आयोग की सिफारिशों के अनुसार लागत पर डेढ़ गुने दाम कैसे ले पाएगा, जबकि सरकार की नीयत भी उसे डेढ़ गुना दान दिलाने की नहीं है।

युक्ति है कि यदि बाजार सुस्त है तो किसान मूर्छित है। किसान वाजिब रेट के इंतजार में माल रोक कर बैठ नहीं सकता। उसे खेत खाली करना है। आगामी फसल की बुवाई में पैसा चाहिए, फिर बच्चों की पढ़ाई और बिटिया का विवाह इस उम्मीद में आगे सरक जाता है कि अगले साल देखेंगे। इसमें भी वह अपने परिवार को दिल रखने के लिए दिलासा दे रहा है।

हकीकत उसे भी मालूम है कि आगे भी ऐसा ही होगा। यदि कम पढ़े-लिखे अर्थशास्त्र को भी समझें तो किसान के मुनाफे से बाजार के पहिए की गति तेज हो जाती है। किसान को पैसा मिलने की देरी है, उसकी जरूरतों की सूची तो पहले से ही लंबी चली आ रही है। पैसा लेते ही तुरंत बाजार में जाता है।

सन् 1935 में विश्व में आई मंदी में जॉन मेनार्ड कींस की थ्योरी खूब चली थी, जिसके अंतर्गत जमीनी स्तर पर नकद पैसा डालने से अभावग्रस्त व्यक्ति तुरंत बाजार का रुख करता है। वाणिज्य गतिविधियां तेज होने के साथ ही मिल भी धुंआ उगलने लगती हैं।  मजदूर को भी रोजगार मिल जाता है। कोविड-19 के दौर में भारत के दोनों नोबल पुरस्कार प्राप्त अर्थशास्त्री अमर्त्य सेन और  अभिजीत बनर्जी ने भारत सरकार को यही सुझाव दिया है।

अभिजीत बनर्जी ने इसे अनुमानित आठ लाख करोड़ की राशि बताया। जाहिर है कि इस राशि का कुछ अंश सीमांत किसान के पास भी पहुंचता। क्या देश के नौजवानों में से कुछ बेरोजगारी का रोना छोड़ ग्रामीणोन्मुख राजनीति के लिए अपने आप को खपाने के लिए तैयार होंगे तभी किसान की दशा सुधारने की संभावना है। वर्तमान नेतृत्व की सांस तो टि्वटर पोस्ट से आगे चलने में फूल जाती है।

(गोपाल अग्रवाल समाजवादी नेता हैं और मेरठ में रहते हैं।)

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