Saturday, April 20, 2024

उस रात हम वीरा साथीदार के साथ थे

वीरा साथीदार को हम में से बहुतों की तरह मैंने पहली बार चैतन्य तम्हाणे निर्देशित मराठी फ़िल्म `कोर्ट` में ही देखा। इस फ़िल्म को ऑस्कर के लिए बेस्ट फॉरेन फिल्म कैटेगरी के लिए नामांकित किया गया था। इसके पीछे फ़िल्म की कथावस्तु, निर्देशन के साथ-साथ वीरा साथीदार का सहज अभिनय और जीवन का संघर्ष एक प्रमुख कारक था। फ़िल्म में वे एक सांस्कृतिक कार्यकर्ता नारायण काम्बले, जो एक अम्बेडकरवादी सामाजिक-सांस्कृतिक कार्यकर्ता हैं, की भूमिका में थे। फ़िल्म में उनकी उपस्थिति ने सहज ही मुझे अपनी ओर खींच लिया। एक कुशल अभिनेता की तरह बहुत ही सजहता से वे उस पात्र के आयाम खोलते चले गये। नुक्कड़ नाटक करते हुए सामाजिक-सांस्कृतिक सरोकारों से जुड़े होने की वजह से उनके इस पात्र का मुझ पर गहरा असर पड़ना लाज़िमी ही था। फ़र्क़ बस ये कि मैं हरियाणा से हूँ और वो महाराष्ट्र की ज़मीन से उपजा किरदार है। उस किरदार में जबरदस्त प्रोजेक्शन, जुझारूपन और संघर्ष की ताक़त है। वीरा साथीदार ने उस किरदार को इतने शानदार ढंग से निभाया था कि मन पर आज भी उसकी छाप ताज़ा है। यह वीरा साथीदार ही कर सकते थे क्योंकि वे असल ज़िंदगी में भी वही थे।

साथी सुबोध मोरे से पता चला कि वे वीरा साथीदार के मित्र हैं। सुबोध मोरे खुद भी एक जुझारू सामाजिक-सांस्कृतिक कार्यकर्ता हैं। तो, एक उम्मीद पैदा हुई कि कभी वीरा साथीदार से मुलाक़ात होगी और वह मौक़ा आया भी। पिछले साल 2020 के फरवरी महीने में रायपुर अंतर्राष्ट्रीय फ़िल्म फेस्टिवल में। फ़िल्म फेस्टिवल में अपनी एक डॉक्यूमेंट्री फ़िल्म की स्क्रीनिंग के सिलसिले में मेरा वहां जाना हुआ। फेस्टिवल में वीरा साथीदार भी आये हुए थे। सुबोध मोरे ने मुझे उनसे मिलवाया। एक अभिनेता को स्क्रीन पर देखने के बाद हमारे दिमाग में उसकी एक ग्लैमरस सी, चकाचौंध वाली छवि ही बनती है। लेकिन, मेरे सामने खड़ा था चकाचौंध से दूर, बिल्कुल सादा, सहज, एक प्यारी सी मुस्कान के साथ, प्यार करने वाला व्यक्ति। एक लम्बा सा कुर्ता पहने, एक झोला लिए। 

जब हम वहाँ मिले, उस दौरान पूरे देश में सीएए और एनआरसी के खिलाफ शाहीन बाग आंदोलन चल रहा था। रायपुर में भी भारी संख्या में लोग वहाँ बनाए गए शाहीन बाग में प्रतिरोध कर रहे थे। तो, फेस्टिवल की दिन-भर की व्यस्तता से निपटकर तय हुआ कि शाहीन बाग चलते हैं। फेस्टिवल के डायरेक्टर शेखर नाग, सुबोध मोरे, वीरा साथीदार, फ़िल्म निर्देशक अविनाश दास मैं और कुछ अन्य साथी रात को शाहीन बाग पहुंचे। अपनी बात भी रखी और प्रतिरोध के गीत भी गाये।

उसके बाद देर रात हम अपने ठहरने की जगह वापस पहुंचे। रात को साथ खाना खाते हुए विभिन्न मुद्दों पर बातचीत हुई। वीरा साथीदार को अगले दिन वापस नागपुर निकलना था। लेकिन उनकी बस की ऑनलाइन बुकिंग ग़लत हो गई थी जिसे लेकर वे काफी परेशान थे। वीरा साथीदार को समझ नहीं आ रहा था कि अब क्या किया जाये। वे काफी बेचैन थे और समझ नहीं पा रहे थे कि क्या करें। उन्होंने मेरी तरफ देखा और हम दोनों इस ऑनलाइन दुविधा को निपटाने में जुट गये। काफी समय लगा पर समस्या हल हुई।

अब वीरा साथीदार के साथ उनकी फ़िल्म को लेकर बातचीत शुरु हुई। मैंने उन्हें बताया कि मैं उनकी कितनी बड़ी प्रशंसक हूँ। वे इसे बहुत सहजता से लिए जा रहे थे। लेश मात्र भी गर्व या दम्भ की रेखाएं उनके चेहरे पर नहीं आ रही थीं। उनसे बात करते हुए पता चला कि वे वास्तविक जीवन में भी बिल्कुल वही व्यक्ति हैं, जिसकी भूमिका उन्होंने फ़िल्म में निभाई थी। वैसे ही जुझारू, लड़ने वाले, जेल जाने वाले, सिस्टम को चुनौती देने वाले सांस्कृतिक कार्यकर्ता, लेखक। 

`कोर्ट` फ़िल्म के निर्माण के दौरान की एक घटना को याद करते हुए उन्होंने बताया कि फ़िल्म की शूटिंग के दौरान उन्हें बुखार हो गया था। उन्होंने निर्देशक चैतन्य तम्हाणे को बताया कि उन्हें बुखार है। संयोग से फ़िल्म का जो हिस्सा शूट होना था, उसमें किरदार भी उस समय पर बीमार ही होता है। तो, चैतन्य ने कहा कोई नहीं, आ जाओ। आपका पात्र भी फ़िल्म में अभी बीमार है, इससे तो और अच्छा प्रभाव आएगा और वे फ़िल्म के सेट पर पहुंच गए। मुझे बहुत हैरानी हुई कि बीमार होने के बावज़ूद उन्होंने क्या शानदार काम किया। उन्होंने बताया कि `कोर्ट` के बाद उन्हें और भी प्रपोज़ल आते हैं लेकिन कामर्शियल काम में उनका मन नहीं रुचता।

लोग भले ही वीरा साथीदार को एक फ़िल्म अभिनेता के तौर पर जानते हों, बेशक उनकी फ़िल्म `कोर्ट` भारतीय सिनेमा में मील का एक पत्थर है, खासतौर पर दलित विमर्श और सामाजिक-सांस्कृतिक हस्तक्षेप के मायने में, बेशक कोर्ट ने उनको एक अलग पहचान दिलवाई और एक अभिनेता के तौर पर उन्हें स्थापित किया, लेकिन वो वास्तव में एक सामाजिक-सांस्कृतिक बदलाव के लिए लड़ते, संघर्ष करते एक खांटी एक्टिविस्ट, लेखक और एक संवेदनशील इंसान थे। वे खुद भी अपनी इसी पहचान को अपनी असली पहचान मानते थे और इसी के साथ मिलते थे। मुझे यह बात उनसे मिलकर समझ आई। अभी उनसे बहुत मुलाक़ातें करनी थीं, लेकिन कोरोना ने उन्हें हमसे छीन लिया। क्या पता था कि पहली मुलाक़ात आखिरी हो जाएगी? अलविदा वीरा साथीदार।

(मूल रूप से हरियाणा के हिसार की रहने वाली दीप्ति क़रीब दो दशक से रंगमंच और सामाजिक आंदोलनों में सक्रिय हैं। वे कविताएँ लिखती हैं और इन दिनों बच्चों के लिए नाटक लिख रही हैं। पिछले काफ़ी समय से वे डॉक्यूमेंट्री फ़िल्में भी बना रही हैं।)

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