आज सुबह खबर आई कि स्टॉक मार्किट खुलते ही अडानी ग्रुप के शेयरों में भारी गिरावट देखने को मिल रही है। एबीपी न्यूज़ ने पीटीआई के हवाले से खबर डाली थी कि अडानी के शेयर 17% तक टूट चुके हैं, लेकिन दोपहर तक आते-आते अडानी समूह की अधिकांश कंपनियों के शेयर्स में मात्र -1.5% की गिरावट देखने को मिली। सिर्फ अडानी एनर्जी में -3.8% और अडानी टोटल गैस में ही -4.40% की गिरावट देखने को मिल रही थी।
सोशल मीडिया पर कुछ लोगों ने इस बात की पुष्टि की है कि उनके व्हाट्सअप ग्रुपों में अपनी देशभक्ति को साबित करने के लिए अडानी के कम से कम एक शेयर खरीदने की अपील की जा रही है। अधिकांश भारतीय मेनस्ट्रीम मीडिया में हिंडनबर्ग के खुलासे पर चर्चा बंद है, सिर्फ अडानी और सेबी चीफ माधवी बुच के जोरदार खंडन की चर्चा है। और अब तो शेयर बाजार शुक्रवार की तुलना में 232 अंक ऊपर है, जिसे दिखाकर भक्त मंडली सोशल मीडिया पर दावा कर रही है कि इस बार उसने हिंडनबर्ग की शोर्टसेलिंग को धता बता दिया है, और भारतीय स्टॉक मार्किट को ध्वस्त करने का पश्चिमी देशों का मंसूबा उन्होंने विफल कर दिया है।
विपक्ष ने एक बार फिर से इस मुद्दे को प्रमुखता से उठाना शुरू कर दिया है। इंडिया गठबंधन की ओर से बार-बार इस बात को दोहराया जा रहा है कि विपक्ष इस मुद्दे पर प्रधान मंत्री नरेंद्र मोदी या भाजपा को कटघरे में खड़ा नहीं कर रहा है, बल्कि करोड़ों भारतवासियों के निवेश की सुरक्षा के लिए जिम्मेदार नियामक संस्था सेबी की चेयरपर्सन माधबी बुच के ऑफशोर एफपीआई में अडानी समूह के विनोद अडानी के साथ संलिप्तता की जांच की मांग कर रहा है। लेकिन कल से ही भाजपा के राष्ट्रीय प्रवक्ता सेबी चीफ और अडानी समूह की रक्षा में खड़े हो चुके हैं। ऐसा जान पड़ता है कि अडानी समूह पर कोई भी आंच सीधे भाजपा के भविष्य को प्रभावित कर सकती है।
और सबसे बढ़कर, अब खबर आ रही है कि संसद में नेता प्रतिपक्ष राहुल गांधी के खिलाफ एक बार फिर से ईडी की पूछताछ शुरू हो सकती है। खबर है कि ईडी को नेशनल हेराल्ड मामले में अभी और पूछताछ करने का इरादा है। जैसा कि हम सभी जानते हैं कि इससे पहले भी सोनिया और राहुल गांधी को ईडी, सीबीआई के समक्ष तकरीबन 55 घंटे की पूछताछ के लिए समन किया जा चुका है, लेकिन ईडी के हाथ कुछ नहीं लगा था। अब एक बार फिर से इस पहलकदमी को हिंडनबर्ग खुलासे के बाद राहुल की तीखी प्रतिक्रिया से जोड़ा जा रहा है।
हमें मालूम होना चाहिए कि पिछले वर्ष राहुल गांधी की संसद सदस्यता और आवंटित मकान को कैसे सरकार ने हस्तगत कर लिया था। तब बहाना तो मोदी सरनेम को लेकर बनाया गया था। लेकिन इसके पीछे असली वजह अडानी समूह पर लगे आरोपों की राहुल गांधी के द्वारा जेपीसी जांच पर अड़े रहना था। केवल राहुल गांधी ही नहीं, तृणमूल कांग्रेस की सांसद महुआ मोइत्रा और आम आदमी पार्टी के राज्य सभा सदस्य, संजय सिंह भी इसी प्रकरण के चलते अलग-अलग विवादों में घिरे थे। जिसमें महुआ मोइत्रा की संसद सदस्यता छिन गई थी, जबकि संजय सिंह को करीब 6 माह तक शराब आबकारी घोटाले मामले में ईडी ने जेल की हवा खिलाई थी। आज फिर से ये तीनों सांसद पूरे जोशोखरोश के साथ इस मुद्दे पर अडानी समूह को घेरने के लिए ताल ठोंक रहे हैं, जो कि निश्चित तौर पर मोदी के नेतृत्ववाली भाजपा के लिए भारी परेशानी की वजह बना हुआ है।
विपक्ष जो सवाल उठा रहा है, वो किसी भी सामान्य विवेक वाला इंसान आसानी से समझ सकता है। राहुल ने अपने वीडियो संदेश में इसे भारत-ऑस्ट्रेलिया क्रिकेट मैच के उदाहरण से समझाने की कोशिश की है। राहुल गांधी का कहना है कि यदि मैच में अंपायर किसी एक टीम के पक्ष में फैसला देने लगे तो दूसरी टीम के लिए खेल में बने रहना असंभव हो जाता है। हिंडनबर्ग के नए खुलासे में यह शीशे की तरह साफ़ हो जाता है कि सेबी चीफ और अडानी समूह के बीच में आर्थिक हित जुड़े हुए थे।
हिंडनबर्ग रिसर्च ने X पर सेबी चीफ की सफाई पर कहा है कि, “बुच के जवाब से अब सार्वजनिक रूप से बरमूडा/मॉरीशस के एक अस्पष्ट फंड ढांचे में उनके निवेश की पुष्टि होती है, इसके साथ ही विनोद अडानी द्वारा कथित रूप से गबन किए गए पैसे की भी पुष्टि होती है। उन्होंने इस बात की भी पुष्टि की कि यह फंड उनके पति के बचपन के दोस्त द्वारा चलाया जाता था, जो उस समय अडानी के निदेशक थे।
सेबी को अडानी मामले से संबंधित निवेश फंडों की जांच करने का काम सौंपा गया था, जिसमें सुश्री बुच द्वारा व्यक्तिगत रूप से निवेश किए गए फंड और उसी प्रायोजक द्वारा फंड शामिल होंगे, जिन्हें हमारी मूल रिपोर्ट में विशेष रूप से हाइलाइट किया गया था।
यह स्पष्ट रूप से हितों का एक बड़ा टकराव है।”
भारत की गोदी मीडिया और भाजपा के आईटी सेल के लिए माधवी बुच की प्रोफेशनल इंटीग्रिटी या करोड़ों भारतीय निवेशकों और विदेशी निवेशकों के हितों की रक्षा से कोई लेनादेना नहीं है। उनके लिए तो सबसे बड़ा प्रश्न यही बना हुआ है कि हिंडनबर्ग एक अमेरिकी कंपनी है, जिसका काम शोर्टसेलिंग करना है और इसे अमेरिकी दिग्गज व्यवसायी जॉर्ज सोरोस के द्वारा वित्तपोषित किया जा रहा है। यह एक ऐसा नैरेटिव है, जो झूठी देशभक्ति और अंधे कुएं की ओर धकेल देता है, जिसके बाद आपकी तर्कशक्ति पूरी तरह से चुक जाती है, इसलिए जानते हैं कि शोर्टसेलिंग क्या होती है और इसके क्या फायदे और नुकसान हो सकते हैं।
क्या होती है शोर्टसेलिंग?
शेयर बाजार में शोर्टसेलिंग एक आम प्रकिया है। इसमें निवेशक शेयरों के किसी बड़े निवेशक या फंड मैनेजर से उधार पर लेता है, और इस उम्मीद से उन शेयर्स को बेच देता है कि इससे उन स्टॉक की कीमत तेजी से गिरेगी, और बाद में उन्हें कम कीमत पर फिर से खरीदा जा सकता है। इसके बाद उन उधार लिए गये शेयर्स को शोर्टसेलर बाकी बचे मुनाफे को अपने पास रख, वापस लौटा देता है। हिंडनबर्ग ने अडानी समूह के शेयर्स के साथ भी शोर्टसेलिंग की थी, और मुनाफा कमाया था। लेकिन यह सॉर्टसेलिंग एक व्यापक एवं गहन शोध पर आधारित होती है। जिसमें ऐसा करने वाले को पक्का भरोसा होता है कि अमुक शेयर्स के दाम अपनी असल कीमत से कई गुना ऊपर चल रहे हैं, और आज नहीं तो कल ये बाजार में धड़ाम हो सकते हैं।
शॉर्ट सेलिंग अमेरिकी स्टॉक मार्किट में वैध है। अमेरिका में डॉट.कॉम बबल के दौरान भी जमकर शोर्टसेलिंग देखने को मिली थी, क्योंकि 1990 के दशक के अंत में डॉट-कॉम कंपनियों ने नई अर्थव्यवस्था के बारे में इतना जमकर प्रचार फैलाया कि इंटरनेट स्टॉक बेतहाशा ओवरवैल्यूड हो गए थे, अर्थात अपनी सही कीमत से कई गुना दामों पर आम निवेशकों के लिए उपलब्ध थे। शॉर्ट सेलर्स ने इस बढ़ते बबल को पहचान लिया था। उन्होंने डॉट-कॉम कंपनियों के खिलाफ दांव लगाया, जिनका राजस्व तो बेहद कम था, लेकिन बाजार पूंजीकरण अरबों डॉलर तक पहुंच गया था।
इस प्रकार शॉर्ट सेलर्स ने भले ही ओवरवैल्यूड स्टॉक की पहचान करके लाभ कमाया, लेकिन साथ ही इसने मौलिक रूप से बेकार व्यवसायों को और भी अधिक पूंजी के गलत आवंटन को रोकने में मदद पहुंचाने का काम किया। इस प्रकार कह सकते हैं कि शार्ट सेलिंग ने शेयर बाजार में कीमतों को वास्तविकता के अनुरूप वापस लाकर बाजार को स्थिर बनाने, इसे सटोरियों के लिए जुए में दांव लगाने और अधिकांश छोटे निवेशकों के लिए लेवल प्लेईंग फील्ड प्रदान करने का मौका दिया।
भारतीय शेयर बाजार की लूट से हो रहा है आम आदमी तबाह
इसी वर्ष फरवरी 2024 को चर्चा थी कि भारतीय शेयर बाजार ने 4 ट्रिलियन डॉलर के पूंजी बाजार को पार कर लिया है। अब सोचिये, भारत की कुल जीडीपी अभी भी 4 ट्रिलियन डॉलर पार नहीं कर पाई है, लेकिन हमारे देश के मात्र 6% श्रम बल को खपा पाने वाले उद्योगों एवं व्यवसायों की मार्किट वैल्यू छप्पर फाड़ गति से बाजार में मूल्यांकित की जा रही हैं। हाल ही में खबर आई है कि रिलायंस ग्रुप ने अपने ग्रुप से लगभग 10% कामगारों की छंटनी कर दी है, जिनकी संख्या 42,000 है। वहीं दूसरी खबर यह है कि रिलायंस कंपनी का मूल्यांकन भारत की जीडीपी के 10% तक हो चुका है। अडानी और अंबानी समूह भारत के दो ऐसे समूह हैं, जिनके पास भारत के महत्वपूर्ण सेक्टर में एकाधिकार लगभग हो चुका है, और इनके इशारे पर भारत की सरकार नाच रही है।
कोविड-19 महामारी के बाद से दुनिया में अगर K-shape इकॉनमी अगर किसी देश में सर्वाधिक स्तर पर दिखी है, तो उसमें भारत अव्वल स्थान पर बना हुआ है। भारत में सुपर रिच और सुपर प्रॉफिट पर काम हो रहा है। लेकिन सबसे विरोधाभासी चीज यह है कि ये उद्योग न कोई नया निवेश लगा रहे हैं, और न ही बड़े पैमाने पर देश में रोजगार ही उत्पन्न कर रहे हैं। लेकिन KEY-सेक्टर्स में अपनी मोनोपली स्थापित कर ये भारत में भयानक महंगाई को जन्म दे रहे हैं, और अपने लिए भारी मुनाफा कमा रहे हैं। इनके बैलेंस शीट में भारी मुनाफे का मतलब होता है, इनके शेयर प्राइस में और भी बड़ा उछाल, जिसका फिर से मतलब होता है कि इनके व्यक्तिगत मुनाफे और वैल्यूएशन में भारी वृद्धि।
यही कारण है कि आज की प्रमुख खबर में भारती-एयरटेल की खबर बनी हुई है। जिसमें कहा गया है कि सुनील मित्तल की कंपनी ब्रिटेन के सबसे बड़े ब्रॉडबैंड और मोबाइल कम्पनी बीटी ग्रुप में 24.5% की हिस्सेदारी खरीदने जा रही है। भारतीय उपभोक्ताओं के पास आज के दिन एयरटेल और जिओ के सिवाय कोई विकल्प नहीं है, इसलिए मनमाने ढंग से रेट बढ़ाकर हर तिमाही में हजारों करोड़ रूपये का मुनाफा कमाने वाली कंपनी में से एक, अब इस लूट को ब्रिटेन में लगाने जा रही है। अंधभक्तों के लिए यह खबर गर्व करने वाली हो सकती है, और यह भी संभव है कि वे कहें कि हमें और जमकर लूटो ताकि पूरी दुनिया को खरीद सको, और अडानी-अंबानी-सुनील मित्तल के दुनिया के सबसे धनाढ्य परिवार होने को ही वे विश्वगुरु होना मान सकते हैं। लेकिन यही सब तो बांग्लादेश में हो रहा था, जिसका हश्र देखकर उनका कलेजा मुंह में आ रहा है।
सवाल यह नहीं है कि भारत में आज भी डी-मेट अकाउंट की संख्या कुछ करोड़ ही है। कोई अगर यह समझता है कि भारतीय शेयर बाजार में हेराफेरी से उसे क्या फर्क पड़ता है, छोटे निवेशक यदि लाखों की संख्या में अपने लाखों करोड़ रूपये से हाथ धो बैठते हैं तो उसे क्या फर्क पड़ेगा। नहीं, ऐसा बिल्कुल नहीं है।
आज करोड़ों आम भारतीयों के जीवन बीमा निगम में जमा धनराशि, प्रोविडेंड फंड और पेंशन फंड का लाखों करोड़ रुपया भारत सरकार ने शेयर बाजार में झोंक रखा है। आप जिस म्यूच्यूअल फंड या सिप में अपनी बचत राशि हर माह या सालाना जमा कर रहे हैं, वो सब वहीं झोंका जा रहा है। जिसकी चीफ माधवी बुच हैं, या चित्रा रामकृष्ण जैसे लोग हैं। जो पूर्व में नेशनल स्टॉक एक्सचेंज की चेयरपर्सन रही हैं। जिन्हें उनके सपनों में हिमालय में रहने वाले कोई योगी ज्ञान देकर बताते थे कि मार्किट को कैसे चलाना है, जिन्हें वे ईमेल के माध्यम से एनएसई की कई अहम सूचनाएं साझा किया करती थीं।
इसे विडंबना नहीं कहेंगे तो क्या कहेंगे, कि रिकॉर्ड सातवीं बार देश का बजट पेश करने वाली वित्त मंत्री निर्मला सीतारमण के मंत्रालय के अधीन ही प्रवर्तन निदेशालय (ईडी) और सेबी की चेयरपर्सन आती हैं, लेकिन माधवी बुच को इस्तीफ़ा देने के लिए मजबूर करने और उनके खिलाफ जांच बिठाने के बजाय ईडी के द्वारा नेता प्रतिपक्ष के कसबल ढीले किये जाने की तैयारी हो रही है।
फिर कैसा बजट, कैसी जीडीपी और विकास या रोजगार का सवाल? आज देश में पारदर्शिता और लोकतंत्र एक सपना सरीखा हो चुका है, लेकिन तानाशाही जैसे-जैसे चरम पर पहुंचती है, भूखे और असंतुष्ट जनता के लिए इसे सहन कर पाना दिनों-दिन असंभव हो जाता है। अब बारी न्यायपालिका की है, जिसे असल में इस समय खुद को ठगा महसूस होना चाहिए, क्योंकि उसने जिसे अडानी मामले की जांच का जिम्मा सौंपा था, उसकी मुखिया खुद उस आर्थिक भ्रष्टाचार में दिन के उजाले में लिप्त पाई गई हैं।
(रविंद्र पटवाल जनचौक की संपादकीय टीम के सदस्य हैं।)