अजय सिंह की कविताएं करती हैं सीधे दुश्मन की शिनाख्त 

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नई दिल्ली। गुलमोहर किताब ने वरिष्ठ कवि अजय सिंह की नई किताब ‘यह स्मृति को बचाने का वक़्त है पर चर्चा और कविता पाठ का आयोजन दिल्ली के गांधी शांति प्रतिष्ठान में किया, जिसमें बड़ी संख्या में कवियों, आलोचकों, कथाकारों व संस्कृतियों ने शिरकत की। कार्यक्रम में बोलने वालों का मानना था कि नये संग्रह में मौजूद कवि अजय सिंह की सभी कविताएं फ़ासीवादी निज़ाम से लड़ने, प्रेम को जीवित रखने, उसकी संभावनाओं को तलाशने और स्त्री मुक्ति में गहरे विश्वास को जताते हुए, देश को नये सिरे से ढूंढने की पेशकश करती हैं और विस्मृति के ख़िलाफ स्मृति को बचाने का आह्वान करती हैं।

वरिष्ठ कवि इब्बार रब्बी ने कहा कि अजय सिंह की तमाम कविताओं  में विचार बोलता है, हर कविता बहस के द्वार खोलती है। वामपंथ के पक्ष में खड़े होते हुए, तमाम आपसी अंतरविरोधों से मुंह नहीं मोड़ती, उनसे लड़ते-भिड़ते रास्ता निकालती है और देश को ढ़ूंढ़ने की बात कहती है। उन्होंने जिक्र किया, अजय सिंह की कविता, ‘हिंदीकेपक्षमें…. काबयान’ का। उन्होंने इसे एक सशक्त कविता मानते हुए कहा कि यह साहसिक कविता है, जिसे हिंदी के तमाम मठाधीश नहीं पचा पाएंगे। यह कविता आचार्य रामचंद्र शुक्ल के कब्जे से सिर्फ हिंदी को मुक्त करने की ही नहीं बल्कि समाज के हिंदूकरण की बुनियाद पर प्रहार करती है।

इसके साथ ही इब्बार रब्बी ने रामचंद शुक्ल द्वारा कबीर, रैदास, मीरा आदि की पूरी उपेक्षा करने के पीछे उनकी सवर्ण मानसिकता को जिम्मेदार ठहराया। उन्होंने ख़ासतौर से अजय सिंह की शोक कविताओं का जिक्र किया और उन्हें अद्भुत बताया। अपनी मृत्यु के बाद वाली कविता को उन्होंने हिंदी की अनूठी कविता की संज्ञा दी। साथ ही उन्होंने राखी के मौके पर बहन की पुकार, तड़ीपार भाई, प्रधानमंत्री की सवारी कविताओं का खास उल्लेख किया और साथ ही कवि के साथ अपने सानिध्य भरे रिश्तों का वितान खींचा।

कार्यक्रम में कुछ वक्ता खराब सेहत की वजह से शिरकत नहीं कर पाए, लेकिन उन्होंने अपनी लिखित टिप्पणी साझा करके कार्यक्रम से अपनी शिरकत दर्ज कराई। वरिष्ठ कवि, आलोचक व थ्री एसेस प्रकाशन समूह के प्रमुख असद जैदी ने विचारोत्तेजक लेख भेजा था, जिसे कवि-शायर-पत्रकार और गुलमोहर प्रकाशन से जुड़े मुकुल सरल ने कार्यक्रम में पढ़ा। इसमें असद जैदी ने लिखा,

“हमें अपने देश को नये सिरे से ढूँढ़ना चाहिए, हमारे महबूब साथी और प्रिय कवि अजय सिंह की एक कविता का यह मूल वाक्य है। यह एक कार्रवाई का आह्वान है, एक वैकल्पिक विचारशीलता के साथ बुनियादी पुनर्विचार का आमंत्रण है। आज के दौर में दरअसल यह अकेलेपन को बुलावा देना भी है। और यह साहस का मामला है। ख़ुद को बचाए रखना, जो और जहाँ आप रहे वहाँ बने रहना, आपनी प्रतिज्ञा को न भूलना आज अपने आप में एक क्रांतिकारी काम है। बल्कि एक क्रांतिकारी फ़र्ज़ है। इसे निभाते हुए जो बात कही जाए उसी बात में सदाक़त होती है। जैसा कि मिर्ज़ा कह गए है : ‘वफ़ादारी ब-शर्ते उस्तुवारी अस्ले ईमाँ है।’ 

अजय सिंह जो बातें कविता में कह सकते हैं वह उनकी या आने वाली पीढ़ियों में किसी ने नहीं कहीं। ये बातें हमारे कुछ सोचने समझने वाले साथियों- कवि लेखकों और चंद पढ़े लिखे शिक्षकों- के बीच निजी या अनौपचारिक विमर्श का हिस्सा तो रही हैं, पर सार्वजनिक मंच से या अपने लेखन में कहने से और निष्कर्ष तक ले जाने से लोग हिचकते हैं।” 

नारीवादी लेखिका व आलोचक सुधा अरोड़ा ने अजय सिंह की कविताओं में सीधे-सीधे सत्ता पर प्रहार करने, उसे हक-हकूक के सवाल पूछने के हौसले की तारीफ की। उन्होंने अजय सिंह की कविता- मर्दखेतहैऔरतहलचलरहीहै की तारीफ की और इसे शिल्प और संदेश की दृष्टि से बेहतरीन बताया। उन्होंने कहा कि अजय सिंह की कविताओं का अच्छे से पाठ होना चाहिए, ताकि ख़ौफ़ के माहौल को काटा जा सके। 

लेखिका व कवि शोभा सिंह ने इन कविताओं को अपने समय की जरूरी कविताएं बताया और कहा कि  संकट के समय में पूरे दमखम के साथ ये कविताएं कलावादियों का जवाब भी देती चलतीं हैं – हिंदी के पक्ष में ललिता जयंती एस रामनाथन का मसौदा प्रस्ताव कविता (हिंदी हिंदू हुई जा रही, हिंदी न हुई, हिंदू महासभा हो गई…. इस कविता में रामचंद्र शुक्ल के लिखे हिंदी साहित्य के इतिहास पर की गई विवेचना सख्त और मौंजू आलोचना है। ऐसे ही, भाषा का सही इस्तेमाल कविता में हत्यारे को हत्यारा कहना /भाषा का सही इस्तेमाल है, बेखौफ अंदाज में सच को बिना लाग-लपेट के सामने रखता है। कविता की पंक्तियां नारे की तरह गूंजती हैं। राजनीतिक प्रतिबद्धता की कविताएं, जो देश में घटने या घटाई जाने वाली तमाम बर्बर घटनाओं, नेताओं के कृत्यों पर निशाना साधती हैं- वे पाठक को बेचैनी से भर देती हैं। लेकिन आहत या पस्त होने के बजाए मूल कारण की खोज व आशा के बिंदु खोज लेती हैं। संग्रह की कविताओं में फ़ासीवादी निज़ाम से तीखी नफ़रत दिखाई देती है।

वरिष्ठ साहित्यकार-उपन्यासकार व समयांतर पत्रिका के संपादक पंकज बिष्ट ने अजय सिंह की कविताओं को वाम-प्रगतिशील विचारधारा की कमान पर कसी हुई, फ़ासिस्ट निजाम से लड़ने-भिड़ने वाली रचनाएं बताया, साथ ही अजय सिंह की प्रेम कविताओं को नई स्फूर्ति भरने वाला बताया।

कार्यक्रम की शुरुआत में कवि अजय सिंह ने अपने कविता संग्रह “यहस्मृतिकोबचानेकावक्तहै” से कुछ कविताओं जैसे–“कदीमी कब्रिस्तान”, “प्रधानमंत्री की सवारी”, “पुराने ढंग की प्रेम कविता”, “भाषा का सही इस्तेमाल” “यह स्मृति को बचाने का वक्त है”, “दुनिया बीमारी या महामारी से ख़त्म नहीं होगी”, “राखी के मौके पर एक बहन की पुकार”, शोभा की सुन्दरता” आदि का पाठ किया। उन्होंने प्रतिरोध के स्वर को तेज करने और इसके प्रतीकों को याद किया। इस क्रम में उन्होंने सबसे पहले रूसी क्रांति के नायक लेनिन को याद किया और दिल्ली में जहांगीर पुरी में बुल्डोजर को रोकने के लिए सामने खड़ी हुईं माकपा नेता वृंदा करात को सलाम पेश किया। 

सभा में हिंदी के आलोचक-साहित्यकार रामनिहाल गुंजन और प्रख्यात मार्क्सवादी चिंतक एज़ाज अहमद की मृत्यु पर श्रद्धांजलि दी गई, दो मिनट का मौन रखा गया।

कार्यक्रम में अलग ढंग की स्फूर्ति का संचार किया मशहूर संस्कृतिकर्मी, नाटकार लोकेश जैन की प्रस्तुति ने। लोकेश ने अजय सिंह की कविता मर्द खेत है औरत हल चला रही है का नाट्य पाठ किया। इसके बाद तफ़्तीश और अंबेडकरऔऱगांधी जैसे मशहूर नाटकों के रचयिता व संस्कृतिकर्मी राजेश कुमार ने भी अजय सिंह की कविता का पाठ किया और कहा कि जिस तरह से बर्तोल्त ब्रेख्त की कविताएं सीधे-सीधे अत्याचारी निजाम से टकराती हैं, वैसे ही अजय सिंह की कविताएं फ़ासीवादी-ब्राह्मणवादी निजाम से भिड़ती हैं।

युवा आलोचक वैभव सिंह के लेख का पाठ कवि-लेखक व सफाई कर्मचारी आंदोलन के कार्यकर्ता राज वाल्मीकि ने किया। अपनी टिप्पणी में वैभव ने कहा, “ऐसे अंधकारपूर्ण समय में जब धर्म, सत्ता और पूंजी ने संगठित होकर मनुष्य की संवेदना को जकड़ना आरम्भ कर दिया है, अत्याचार सहना और उसे होते देखना उसकी विवशता बन चुकी है, तब संघर्ष, विचार, प्रेम, सामूहिकता से जुड़ी स्मृतियां उसे फिर से अपने पर भरोसा करना सिखा सकती हैं। वर्तमान राजनीति जिस प्रकार से प्रचार, दुष्प्रचार, प्रोपेगेंडा, विकृत सूचना, अफवाह के बल पर जनता के साथ बिना नागा, बिना रुके, धोखेबाजी कर रही है, अजय सिंह की कविताएं पूरी ताकत से उसके विरोध में खड़ी है। वे अपने पाठकों को कुंठा व उदासी से बाहर निकाल कर बड़े स्वप्न देखना सिखाती हैं। उन्हें भरोसा दिलाती हैं कि अभी सब कुछ खत्म नहीं हुआ है। इस देश को हम फिर से वापस हासिल कर सकते हैं।”

वरिष्ठ कथाकार महेश दर्पण ने कहा कि अजय सिंह की कविताएं मौजूदा समय के सबसे परेशानकुन सवालों से पूरी दिलेरी के साथ भिड़ती हैं। उनकी कविताओं में प्रेम, अनेक रंगों में बिखरा हुआ है। रिश्तों से उनका गहरा जुड़ाव कभी इन पंक्तियों के माध्यम से सामने आता है- बच्चों के साथ हम भी बड़े होते चले जाते हैं, हालांकि यह बात आमतौर पर पता नहीं चलती। वैचारिक स्पष्टता इतनी मुखर कि कवि अजय सिंह कहते हैं कि- जोमीर, नज़ीर, ग़ालिब को हिंदी नकहे, समझो वो हिंद से बाहर हुआ। यही नहीं, वह साफ कहते हैं कि हत्यारे को हत्यारा कहना भाषा के सही इस्तेमाल की पहली सीढ़ी है।

आलोचक धीरेश सैनी ने अजय सिंह की कविताओं को वर्तमान परिप्रेक्ष्य में रखते हुए इस समय को बुलडोजर समय बताया। उन्होंने कहा कि आज दिल्ली की जहाँगीर पुरी में जो हो रहा है, पूरे देश में जो हो रहा है, ऐसे में ये मायने रखता है कि बुलडोजर के पीछे कौन है। इसकी शिनाख्त अजय सिंह जी की कविताओं में है।

आलोचक आशुतोष कुमार की लिखित टिप्पणी का पाठ, बेहद सधे हुए स्वर में युवा कवि-पत्रकार दामिनी यादव ने किया। आशुतोष ने लिखा, “पंकज जी वाली कविता यादगार है। इस कविता में एक दोस्ती और उसकी यादों के बहाने 70 के दशक के क्रांतिकारी उछाह और बाद में क्रांति के सपनों का धीरे-धीरे टूटना और बिखरना और इस समूची प्रक्रिया में अनेक साथियों के तरह-तरह के बिखराव और भटकाव- इन सभी को समेटा गया है। साथ ही उन्होंने लिखा, कदीमी कब्रिस्तान एक और यादगार कविता है।

मरघट बन चुकी मानवीय सभ्यताओं के भीतर संभावनाओं के फूलों के खिलने की संभावना नहीं अनिवार्यता की तरफ काव्यात्मक संकेत किया गया है। कब्रिस्तान कितना ही बीहड़ हो आखिर वह जीवन के समर का ही प्रांगण है। मृत्यु की उपस्थिति जीवन की संभावना का अनिवार्य संकेत है।” इसके साथ ही उन्होंने हिंदीकेपक्षमें कविता से असहमति जताते हुए कहा कि इसमें जिस तरह रामचंद्र शुक्ल को एक बड़े खलनायक के रूप में चित्रित किया गया है वह उनकी समूची सांस्कृतिक भूमिका के साथ पूरा न्याय नहीं करता।

कार्यक्रम में बड़ी संख्या में युवा लेखकों, पत्रकारों, सामाजिक कार्यकर्ताओं ने शिरकत की। आयोजन में लेखिका व कला मर्मज्ञ सहबा हुसैन, पत्रकार व लेखक देबाशीष मुखर्जी, वरिष्ठ पत्रकार-लेखक रामशरण जोशी, वरिष्ठ पत्रकार अरविंद कुमार सिंह, कवि शुभाशीष भादुड़ी, अनुवादक अमृता बेरा, नवजीवन के संपादक दिवाकर, लेखक अवतार सिंह जसवाल, कार्टूनिस्ट इरफान, लेखिका रचना त्यागी, सफाई कर्मचारी आंदोलन के नेता बेजवाडा विल्सन, दलित चिंतक संतराम आर्या, वनिता पत्रिका की संपादक इंदिरा राठौर, जनचौक वेबसाइट के संपादक महेंद्र मिश्रा, जनज्वार वेबसाइट के संपादक अजय प्रकाश, लेखक व पत्रकार चंद्रभूषण, पत्रकार राम शिरोमणि शुक्ला, सामाजिक कार्य़कर्ता सुलेखा सिंह, पत्रकार कृष्ण सिंह सहित बड़ी संख्या में लोग मौजूद थे।

इस मौके पर गुलमोहर किताब की तरफ से 10 कविता पोस्टर भी जारी किये गये।

(प्रेस विज्ञप्ति पर आधारित।)   

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