ग्राउंड रिपोर्ट: भालू के खौफ के बीच तेंदूपत्ता चुनने की मजबूरी, शोषण और भ्रष्टाचार के चंगुल में आदिवासी

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चंदौली, उत्तर प्रदेश। गत सालों में जमसोती गांव के दो अधेड़ बाशिंदों को भालू मारकर खा गया। इसमें से एक घाघर नाम के व्यक्ति को तो भालू ने खौफनाक मौत दी। अगले दिन गांव के किनारे जंगल में सिर्फ कंकाल मिलने से लोगों की हालत ऐसी हो गई कि काटो तो खून नहीं। ग्रामीण बताते हैं खेत पर काम के दौरान और राह चलते अचानक तेंदुआ, भालू, जंगली सुअर, भेड़िया, लोमड़ी व सियार व अन्य जंगली जानवरों के हमले की कम से कम आधा दर्जन घटनाएं प्रतिवर्ष होती हैं।

अभी तक गनीमत है कि ज्यादातर हमलों में हल्की-फुल्की चोट के साथ जान सलामत रहती है, लेकिन भालू व तेंदुए के हमले से दिलों में खौफ पल रहा है। गाहे-बगाहे हमले की खबर से ग्रामीण भयभीत हैं। ग्रामीण यह भी मानते हैं कि भले ही वन्य जीवों के हमले में उनकी जान पर बन आये लेकिन परिवार के भरण-पोषण और आजीविका के लिए उन्हें हर रोज जोखिम उठाना पड़ता है।

जब आग उगलते हैं पहाड़ तब होता है आमना-सामना

मुश्किलें तब और बढ़ जाती हैं, जब मई-जून में 42 से 45 डिग्री सेल्सियस में आग की लपट उगलती पहाड़ियां और जंतुओं की हड्डी से नमी सुखाने वाली लहकती लू वज्र बनकर सुबह के ग्यारह बजे से शाम के पांच बजे तक आदिवासी, नागरिक और वन्य जीवों पर टूट पड़ती है। बंसत ऋतु के बाद साखू, सागौन, जामुन, खैर, शीशम, आम, महुआ, इमली, खैर, बेल, बबूल, महोगनी, लिप्टस, देवदार, चीड़, जायफल, बेर, बांस, झुरमुट, कंटीली झाड़ियां समेत अन्य 1200 से अधिक प्रजाति की वनस्पतियां अपनी पत्तियां गिरा देती हैं।

तेंदूपत्ते (डायस्पायरोस मेलानॉक्सिलोन) के पेड़ के साथ श्रमिक कमला आदिवासी

कैमूर व विंध्याचल पर्वत श्रृंखला और इसके चोटी, पठार, मैदान में उगे वन बगैर पत्ती के भूरे, चित्तेदार झाड़ीनुमा प्रतीत होते हैं। इस वजह से सूरज की तीखी किरणें पहाड़ों के खोह, दरिया, झरने, प्राकृतिक जलस्रोत और तालाबों को सूखा देती हैं। इसके बाद शिकार की कमी से भूखे और प्यास से बिलबिलाये तेंदुआ, भालू, चिंकारा, सांभर, जंगली सुअर, शाही, भेड़िया, अजगर, लोमड़ी व सियार जंगलों से सटे पहाड़ों पर बसे आबादी वाले क्षेत्रों का रुख करते हैं, और दूसरी तरफ इन्हीं क्षेत्रों में बसे कोल, खरवार, पनिका, गोंड, भुइय़ा, धांगर, धरकार, घसिया, बैगा, वनवासी, दलित व अन्य आदि जातियों के लोग जंगल में तेंदू पत्ते (डायस्पायरोस मेलानॉक्सिलोन) की तुड़ाई करने के लिए जंगलों में उतरते हैं।

तेंदूपत्ता देता है 75 लाख लोगों को रोजगार

तेंदू की पत्तियों का उपयोग बीड़ी बनाने के लिए किया जाता है। इसे आदिवासी क्षेत्रों में हरा सोना भी कहा जाता है क्योंकि तेंदू पत्ते वन उपज संग्रह पर निर्भर एक बड़ी आबादी के लिए आय का सबसे बड़ा स्रोत हैं। द ट्राइबल कोऑपरेटिव मार्केटिंग डेवलपमेंट फेडरेशन ऑफ इंडिया के आंकड़ों के मुताबिक, देशभर में 75 लाख नागरिकों को तेंदूपत्ता संग्रहण\तुड़ाई से लगभग तीन महीने का रोजगार मिलता है। इसके अलावा करीब 30 लाख लोग इन पत्तों से बीड़ी बनाकर अपनी आजीविका चलाते हैं।

तेंदूपत्ते की तुड़ाई से इतने श्रमिकों को जुड़े होने के बाद भी इनका कोई संगठन नहीं है। असंगठित क्षेत्र के करोड़ों की तादात में मजदूर तेंदूपत्ते की तुड़ाई के समय शोषण, भ्रष्टाचार, हक़, अधिकार, मानव मूल्य, जीवन की सुरक्षा, भुगतान की प्राप्ति, नियमित रोजगार, स्वास्थ्य और वन्य जीवों के हमले में घायल होने जैसे मूलभूत मुद्दों पर उपेक्षित हैं। मसलन, तेंदूपत्ता संग्रह में आदिवासी और वनवासियों की तादात अधिक होने के चलते अब इनके कल्याण के लिए सामाजिक सुरक्षा बोर्ड के गठन की आवश्यकता महसूस होने लगी है।

तेंदूपत्ता श्रमिक ममता, सोनम और सविता आदिवासी

जमसोती गांव के लोग करते हैं तेंदूपत्ते की तुड़ाई

जमसोती, नौगढ़ तहसील का पहला कोल आदिवासियों का गांव, जो घने जंगलों के बीच ऊंचे पहाड़ पर सैकड़ों समस्याओं से घिरा हुआ, विकास के मानक पर अंतिम पायदान पर पड़ा हुआ अंतिम गांव है। नौगढ़ उत्तर प्रदेश के चंदौली जिला मुख्यालय से तकरीबन 80 किलोमीटर की दूरी पर विंध्य रेंज की पहाड़ी में दक्षिण-पूर्व में स्थित है। यही नौगढ़ तहसील उत्तर भारत में कभी हथियारबंद नक्सली गतिविधियों का केंद्र थी। अब भी यदा-कदा नक्सलियों के झंडे, चेतावनी पोस्टर आदि लगने से प्रशासन के हाथ-पांव फूल जाते हैं।

बहरहाल, नौगढ़ के जमसोती गांव की आबादी लगभग 1200 है। जिसमें सबसे अधिक कोल आदिवासियों की आबादी 900 से अधिक, जबकि शेष में दलित, मुस्लिम, अहीर, वनवासी आदि जातियों के लोगों का निवास है। मिर्जापुर, सोनभद्र, अहरौरा, कैमूर, छत्तीसगढ़, राजस्थान, मध्यप्रदेश, महाराष्ट्र, झारखंड के जंगलों में मई महीने के दूसरे हफ्ते में चिलचिलाती धूप व लू के लपटों के बीच तेंदूपत्ता की तुड़ाई का काम शुरू होता है। जमसोती गांव की पूरी आबादी जंगलों में जाकर तेंदूपत्ते की तुड़ाई का काम करती है। इनके पास आमदनी का कोई अन्य स्रोत नहीं है।

15 हजार श्रमिक करेंगे तेंदू पत्ता की तुड़ाई

चंदौली जनपद में चकिया, नौगढ़ और मझगाई रेंज के जमसोती, वन भीषणपुर, दिरेहु-बैरा, ढोढ़नपुर, छीतमपुर, पोखरियाडीह, मूसाखांड़, विजयपुरवा, भादरखड़ा, मुजफ्फरपुर, नेवाजगंज, शिकारगंज, पुरानाडीह, बोदलपुर चिल्लाह, लेहरा, गोडटुटवा, मुबारकपुर, परना, भभौरा और शिंकारे में वन निगम 25 से 30 की संख्या में तेंदूपत्ता तुड़ाई के फड़ प्रतिवर्ष स्थापित करता है।

जंगल में भालू के बसेरों के बीच तेंदूपत्ता तोड़ने के लिए जान हथेली पर रखकर जाते हैं श्रमिक

सेक्शन ऑफिसर के मुताबिक साल 2023 में 30 फड़ की स्थापना होनी है। 15 हजार से अधिक श्रमिक 2500 बैग के निर्धारित लक्ष्य का पीछा करने जंगलों में जल्द ही उतरेंगे। तेंदूपत्ते की तुड़ाई 13 से 15 मई के बीच शुरू होनी है।

तेंदूपत्ता तुड़ाई: मज़बूरी और हिम्मत का काम

जनचौक की टीम बुधवार को जमसोती पहुंचती है। स्थानीय 37 वर्षीय आदिवासी ममता कोल शादी के बाद से ही तेंदूपत्ता के तुड़ाई का काम करती आ रही हैं। मजदूरी का भुगतान नहीं होने से वह दो साल से तुड़ाई का काम नहीं कर रही हैं। वह बताती हैं कि “हम लोग सात-आठ महिलाओं के समूह में सुबह 6 बजे जंगल में तेंदूपत्ते की तुड़ाई के लिए निकलते हैं। इतनी सुबह तो कुछ खाया नहीं जाता। गुड़-पानी पीकर निकलते हैं। सुबह-सुबह जंगल में अंधेरा और सन्नाटा होता है। ऐसे में अक्सर भालू और तेंदुए घात लगाए होते होते हैं। हाथ तुड़ाई पर और दोनों कान किसी जंगली जानवर के आहट पर लगे होते हैं।”

वो बताती हैं कि “उजाला हो जाने के बाद हमले की आशंका कम होती है। लेकिन दोपहर में जंगलों से घर लौटने के दौरान हिम्मत जुटानी पड़ती है। दोपहर में तेज गर्मी और पहाड़ी गर्म तवे के समान आग उगलने लगती है। पानी और शिकार की तलाश में भालू, तेंदुए, जंगली सुअर, लोमड़ी, भेड़िये और सियार मारे-मारे फिरते हैं। कई बार तो आमना-सामना भी हो जाता है। भालू-तेंदुए के हमले से दो लोगों की मौत भी हो चुकी है और कई घायल हो चुके हैं। राजदरी-देवदरी जलप्रपात के खोह और कंदराओं में जंगली जानवरों का जखीरा है। मौका मिलते ही ये जंगली जानवर हमला बोल देते हैं।”

वन निगम के तेंदूपत्ता संग्रह कार्ड के साथ ममता

बकाये का कब होगा हिसाब?

ममता कहती हैं कि “इतना रिस्क उठाकर हम लोग तेंदूपत्ता संग्रह करते हैं। बदले में हमसे फड़ मुंशी बेइमानी करता है। मजदूरी देने में भी झोल करता है। पत्तियों की गड्डी को कम करके हिसाब लगाता है। साल 2020 के तुड़ाई का 1000 से अधिक रुपये अबतक नहीं मिल सके हैं। कई बार तगादा करने के बाद भी सुनवाई नहीं हो रही है। कभी कहता है बैंक खाते में भेज दिया जाएगा, तो कभी एक हफ्ते में देने की बात कहता है। अब तीन साल गुजरने को हैं। मैं ही नहीं जमसोती के सैकड़ों लोगों का बकाया है।पिछला भुगतान होगा तभी इस सीजन में तुड़ाई करूंगी, वर्ना मैं बेगारी करने जंगल में नहीं जाऊंगी।”

तेंदूपत्ता श्रमिक प्रमिला, कलावती और अंजलि भी भ्रष्टाचार से परेशान हैं। कमला कोल का कहना था कि नेता केवल वोट लेने आते हैं, इसके बाद गांव को भूल जाते हैं।

नमक रोटी खाकर होता है गुजरा

देवकी की उम्र तेंदूपत्ता तोड़ने में निकल गई। वह सरकार के उपेक्षित रवैये पर सवाल खड़ा करते हुए कहती हैं कि “सरकार हम लोगों को क्या देगी? देखते-देखते 65 से अधिक की उम्र हो चली है। गांव में तमाम दिक्कतों ने दशकों से डेरा डाला हुआ है। तेंदूपत्ता की तुड़ाई के लिए वन निगम पानी की बोतल देता है, जिसके एवज में फड़ मुंशी 30-40 रुपये तक वसूलता है। अधिकारी से शिकायत करने के बाद भी कहीं कोई सुनवाई नहीं होती है।”

सरकार से नाखुश दिखीं देवकी कोल

देवकी कहती हैं कि “जंगल में पेड़ से तेंदूपत्ता तोड़ना आसान काम नहीं है। पेड़ पर चढ़कर तोड़ने में गिरने के बाद हाथ-पैर टूटने का डर बना रहता है। भालू के आतंक का कहना ही क्या? अपने परिवार के आधा दर्जन सदस्यों के साथ पत्ता तोड़ने से लेकर गड्डी तैयार करने में एक सुबह की दूसरी शाम हो जाती है। जो भी मिलता है, वह परिवार के खर्चे के लिए पूरे नहीं पड़ते हैं, लाचारी है आखिर करें भी तो क्या, जायें भी तो कहां? नमक-रोटी और सब्जी-चावल से परिवार का गुजारा होता है। पकवान मिलना तो सपने जैसा है।”

पूरी नहीं हो पाती जरूरतें

लालबाबू (48) का वन निगम के ऊपर 700 से 800 रुपये वर्ष 2021 का बकाया है। लालबाबू कहते हैं कि “फड़ मुंशी आज देंगे-कल देंगे कहता है। दो साल बीत गया, उसका आजकल नहीं आया। तेंदूपत्ता की सौ की गड्डी का सरकारी रेट 125 रुपये है। एक गड्डी में 50 से 55 पत्तियां होती हैं। हम लोगों का फड़ मुंशी 100 रुपये ही देता है, जो श्रमिक अधिक समझदार होता है और हक़ की बात करता है, उसे फड़मुंशी अपनी ओर मिलाये रहता है।

तेंदूपत्ता श्रमिक लालबाबू

गड्डी में फटे-गंदे पत्तों का हवाला देकर फड़ मुंशी कई बार तेंदू के पत्तों के बंडलों को कम करके गिनती करता है। तेंदू पत्ता थोड़ा भी खराब दिख जाता है तो मजदूरी घटा देता है। आजीविका की विवशता में ज्यादातर महिला श्रमिकों की जुबान बंद रहती है। यह सब दशकों से होता चला आ रहा है, जिसे हम लोग सहते भी जा रहे हैं, बगैर उफ्फ किये। किसी हाकिम-हुक्कमरान को हम लोगों की फ़िक्र नहीं है। तेंदू के पत्ते की तुड़ाई की मजदूरी से घर की जरूरतें कभी पूरी नहीं हो पाती हैं।”

साल के नौ महीने पसरी रहती है बेरोजगारी

गांव के बीच में पुराने पीपल के नीचे चबूतरे पर अधेड़, नौजवान, किशोर और महिलाएं सुस्ताते रहते हैं। 15 से अधिक लोग यहां बैठे हुए मिले। सभी तेंदूपत्ता श्रमिक थे। 53 वर्षीय रामबचन कोल ने बताया कि “ढाई-तीन महीने को छोड़ दें तो बाकी महीने बेरोजगारी में ही गुजरते हैं। स्कूल-कॉलेज बहुत दूर होने के चलते किशोर-किशोरियां जल्दी ही स्कूल छोड़ देते हैं। गांव में गर्मी शुरू होते ही पेयजल संकट गहरा जाता है।

मनरेगा के बकाये पैसे से परेशान श्रमिक रामबचन कोल

मेरा मनरेगा में 15 दिनों का भुगतान अभी तक नहीं हो सका है। मेरे अलावा गांव के सौ से अधिक लोगों की मजदूरी फंसी हुई है। कई घरों में शौचालयों का निर्माण आधा-अधूरा पड़ा हुआ है। ग्राम प्रधान से कई बार भुगतान के लिए कहने पर गोलमोल जवाब देकर चलते बनता है। जंगल के बीचो-बीच होने की वजह से अधिकारी और कर्मचारी गांव में सुविधा-असुविधा का पुरसा हाल लेने के लिए झांकने तक नहीं आते हैं। ग्रामीण जैसे-तैसे गाड़ी आगे बढ़ा रहे हैं।”

स्वास्थ्य सुविधाएं भी खस्ताहाल

गांव के उत्तर-पूर्वी हिस्से में पर बंधी किनारे की तेंदूपत्ता श्रमिक बत्तीस वर्षीय सलमा को 31 दिसंबर वर्ष 2022 की रात प्रसव पीड़ा हुई। संपर्क करने पर न तो एम्बुलेंस आई और न ही आशा कार्यकर्ता। सलमा बताती हैं “स्वास्थ्य व्यवस्था को लेकर गांव या आसपास के जंगलों में बसे गांवों की स्थिति बहुत ख़राब है। जब मुझे प्रसव पीड़ा हुई तो आसपास 20 किमी के दायरे में न कोई अस्पताल खुला मिला और न ही डॉक्टर। स्वास्थ्य महकमे के कर्मियों ने 25 किमी दूर जंगल के अंदर स्थित नौगढ़ ले जाने की सलाह दी। एम्बुलेंस नहीं मिलने की वजह से मुझे घर वालों ने बाइक पर बैठकर 30 किमी दूर शहाबगंज ले आये।”

तेंदूपत्ता श्रमिक सलमा

सलमा बताती हैं कि “रास्ते में मैं दर्द के मारे कराह रही थी, लेकिन यहां पहुंचने के बाद कुछ आराम महसूस हुआ और सामान्य प्रसव से बच्चा पैदा हुआ। आप जरा सोचिये, बाइक से मैं अस्पताल पहुंची, रास्ते में कुछ हो जाता तो? पड़ोसी होने चलते इसके बाद से मैं अब तक तीन से चार महिलाओं को प्रसव के लिए अस्पताल लेकर गई हूं। दिन में तो एम्बुलेंस कभी-कभार आ जाती है, लेकिन रात में स्थिति बहुत भयावह होती है। जिला अधिकारी और मुख्य स्वास्थ्य अधिकारी से मेरी मांग है कि हम लोगों के गांवों में स्वास्थ्य सेवाओं को कागजों से जमीन पर उतरा जाए, अन्यथा कैसा विकास? और किस उन्नति का अमृतकाल?”

योजनाओं से वंचित और बेहाल इलाका

चंदौली जनपद से एक राष्ट्रीय अखबार के लिए दो दशक से पत्रकारिता करते आ रहे वरिष्ठ पत्रकार मनोज सिंह “जनचौक” से कहते हैं कि “चंदौली के चकिया, नौगढ़ और मझगाई वन निगम के क्षेत्र में चिरौंजी, महुआ, तेन, आंवला बिनकर व तेंदूपत्ता चुनकर और दोना पत्तल बनाकर आदिवासी-वनवासियों का पूरा जीवन चल रहा है। स्थानीय वनों में इनकी उपस्थिति और आवास की पुष्टि लगभग दो सौ सालों से चली आ रही है। हाल के एक दशक से वनों में रहने वाले आदिवासी-वनवासियों की स्थित बद से बदतर हो गई गई।

तेंदूपत्ता तोड़ने वाले श्रमिकों का शोषण आम बात है। एक ओर सरकार की मंशा है कि इनके गांव-द्वार तक सुविधाएं और योजनाएं पहुंचे, लेकिन नौकरशाही की उदासीनता से योजनाएं कागजों में ही चल रही हैं। मिसाल के तौर पर वनवासियों-आदिवासियों को मुख्यमंत्री आवास देने का प्रयास प्राथमिकता के आधार पर किया गया। लेकिन वन क्षेत्रों में रहने वाले नागरिकों को आवास बनाने के लिए वन विभाग अनापत्ति प्रमाण-पत्र (एनओसी) ही नहीं दे रहा है।

पत्रकार मनोज सिंह

इनके पास अन्य कोई भूमि नहीं है कि अपना आवास बना लें। लिहाजा लाखों ग्रामीण सरकार की अहम योजनाओं से वंचित और बेहाल हैं, इनकी सुध लेने वाला कोई नहीं है। चूंकि जंगल और पहाड़ी हिस्से में आबादी होने के चलते वन्य जीवों में भालू, तेंदुए और जंगली सूअर का हमला भी झेलते हैं। कई बार यह भी देखा गया है कि अपनी सुरक्षा के लिए कुछ लोग वन्य जीवों को भी नुकसान पहुंचाते हैं।”

चंदौली के आदिवासियों से किया गया सबसे बड़ा छल

1996 में वाराणसी से टूटकर चंदौली जनपद बना। इस दौरान प्रशासनिक चूक से कोल, खरवार, पनिका, गोंड, भुइय़ा, धांगर, धरकार, घसिया, बैगा आदि अनुसूचित जनजातियों को अनुसूचित जाति में सूचीबद्ध कर दिया गया। तबसे इनका विकास और जीवन और पिछड़ गया, जबकि पास के सोनभद्र जनपद (यूपी) में उक्त जातियां आदिवासी जनजातियों के रूप में सूचीबद्ध हैं।

इस वजह से चंदौली जनपद के आदिवासी, आदिवासी होकर भी प्रामाणिक रूप से आदिवासी नहीं हैं। अनुसूचित जाति में गिने जाने की वजह से इनको वन अधिकार कानून का लाभ नहीं मिल पाता। पत्रकार मनोज सिंह, इस लापरवाही को आदिवासी समाज से घोर छल मानते हैं।

सामाजिक सुरक्षा बोर्ड का हो गठन

मनोज सिंह आगे कहते हैं कि “स्वास्थ्य सुविधाओं को पहुंचाने का प्रयास तो हो रहा है, लेकिन नौगढ़, मझगाई, चकिया और अन्य वन क्षत्रों के सीएचसी, पीएचसी व जच्चा-बच्चा केन्दों में तैनात चिकित्सक व स्वास्थ्यकर्मी ब्लॉक मुख्यालय\जिला मुख्यालय से दूरी का फायदा उठाते हैं, इनकी लापरवाही से गरीबों को स्वास्थ्य सुविधाओं\टीकाकरण\जांच\प्रसव आदि का उचित लाभ नहीं मिल पता है।

अक्सर देखा जाता है कि यदि किसी डॉक्टर की तैनाती नौगढ़ के जंगल में स्थित चिकित्सा केंद्र पर होती है तो वे वहां जाते ही नहीं हैं, अन्य स्थान पर अपने नर्सिंग होम चलाते हैं। स्वास्थ्य विभाग की घोर लापरवाही से ऐसा होता है। राज्य असंगठित मजदूरों के लिए एक सामाजिक सुरक्षा बोर्ड का गठन करें साथ ही उनके पंजीकरण की एक सहज व्यवस्था बनाए। मोबाइल-एसएमएस का सहारा लिया जाए। इसके अलावा श्रम एवं रोजगार मंत्रालय की तरफ से प्रवासी और असंगठित मजदूरों को आईडी कार्ड भी दिया जाना चाहिए ताकि वे सभी तरह की सरकारी सामाजिक सुरक्षा योजनाओं का लाभ ले पाएं।”

क्या कहते हैं आंकड़ें

टोबैको कंट्रोल में प्रकाशित रिसर्च के मुताबिक तेंदूपत्ते से तैयार बीड़ी को भारत में बड़े चाव से कश लेकर पिया जाता है। मध्य प्रदेश, बिहार, महाराष्ट्र, दिल्ली, उत्तराखंड, झारखंड, गुजरात, हिमाचल प्रदेश, जम्मू-कश्मीर, पंजाब, राजस्थान, पश्चिम बंगाल आदि राज्यों में बीड़ी शौकीनों की तादात करोड़ों में है। 15 साल की उम्र तक पहुंचते अधिकांश बच्चे बीड़ी पीना सीख जाते हैं और फिर आगे चलकर वे ही सिगरेट के आदी हो जाते हैं या बनाए जाते हैं।

तेंदूपत्ता की तैयार गड्डी

रिपोर्ट बताती है कि धूम्रपान करने वालों में 81 फीसदी लोग बीड़ी पीते हैं। साल 2018 में देश में इन लोगों की संख्या 7.2 करोड़ थी, जो अब 10 करोड़ से भी अधिक हो चुकी होगी। जाहिर सी बात है कि यह संख्या हर साल बढ़ रही है। केरल के सेंटर फॉर पब्लिक पॉलिसी रिसर्च के शोधकर्ता कहते हैं कि बीड़ी में पारंपरिक सिगरेट की तुलना में कम तंबाकू होती है लेकिन इसमें निकोटिन की मात्रा कहीं अधिक होती है, जो जानलेवा है। बीड़ी के मुंह का सिरा कम जलता है और इस कारण धूम्रपान करने वाला व्यक्ति अपने शरीर में अधिक केमिकल्स सांस के जरिये ले जाता है, कुल मिलाकर यह जानलेवा है।

आदिवासियों को मिले हक

सुप्रीम कोर्ट ने कहा कि वन अधिकार धारक या उसकी सहकारी समिति/संघ को ऐसी लघु वनोपज किसी को भी बेचने की पूरी आजादी दी जानी चाहिए। आजीविका के लिए स्थानीय परिवहन के उचित साधनों का उपयोग करते हुए जंगल के अंदर और बाहर व्यक्तिगत या समूह प्रसंस्करण, मूल्यवर्धन और विपणन की अनुमति दी जानी चाहिए। राज्य सरकारें सभी गौण वनोपजों के संचलन को राज्य सरकार के परिवहन नियमों के दायरे से बाहर कर दें और इस प्रयोजन के लिए परिवहन नियमों में उचित संशोधन किए जाएं।

यहां तक कि ग्राम सभा से परिवहन अनुमति की भी आवश्यकता नहीं होनी चाहिए। सहकारी समितियों/अधिकार धारकों के संघों द्वारा व्यक्तिगत रूप से या सामूहिक रूप से एकत्र किए गए लघु वन उपज के प्रसंस्करण, मूल्यवर्धन पर कोई शुल्क/रॉयल्टी इस अधिनियम की शक्तियों से परे होगी। सुप्रीम कोर्ट ने अपने फैसले में कहा कि राज्य सरकारें वनों में रहने वाली अनुसूचित जनजातियों और अन्य पारंपरिक निवासियों द्वारा एकत्र की गई लघु वन उपज का लाभकारी मूल्य भी देना चाहिए।

सुप्रीम कोर्ट

वन निगम के अधिकारी का पक्ष

वन निगम के सेक्शन ऑफिसर (नौगढ़, चकिया और मझगाई) चंदी प्रसाद ने ‘जनचौक’ को बताया कि “चकिया, नौगढ़ और मझगाई वन रेंज में साल 2022 में कुल 25 फड़ों पर 1800 बैग तेंदूपत्ता संग्रह किया गया। इसके लिए 10,000 से अधिक महिला-पुरुष श्रमिकों ने काम किया था। साल 2023 में 30 फड़ों की स्थापना और 2500 बैग का लक्ष्य है। तेंदूपत्ता श्रमिकों का अधिकतम 11,00 रुपये ही नगद भुगतान का प्रावधान वन निगम में है, शेष रुपयों का भुगतान श्रमिकों के बैंक खाते में किया जाता है।”

उन्होंने बताया कि “1,000 गड्डी पर श्रमिकों को 15,00 रुपये का भुगतान किया जाता है। एक गड्डी में 50-55 तेंदू पत्ते बीड़ी बनाने योग्य होने चाहिए। श्रमिकों का शोषण करने वाले फड़ मुंशियों की शिकायत मिलने पर उचित कार्रवाई की जाती है। अक्सर पाया जाता है कि श्रमिक जो अपने बैंक खाते की पासबुक जमा करते हैं, उसमें खाता नंबर साफ नहीं होने की वजह से रुपये ट्रांसफर नहीं हो पाते हैं।

ऐसे श्रमिकों से अपील है कि वे एप्लिकेशन के साथ बैंक छायाप्रति के खाली हिस्से में अपने खाता नंबर नीले कलम से सुस्पष्ट अंकों में लिख दें, ताकि मिसमैच की आशंका कम रहे। तेंदूपत्ता श्रमिकों को वन निगम की तरफ से पानी पीने के लिए पानी की बोतल (छागल) दी जाती है। प्रति बोतल दस रुपये चार्ज लिया जाता है।”

(चंदौली जनपद के नौगढ़ से पवन कुमार मौर्य की ग्राउंड रिपोर्ट)

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