Thursday, March 28, 2024

बरनवालः गांधीवादी चिंतक की गुमनाम विदाई

वीरेंद्र कुमार बरनवाल के निधन की सूचना वरिष्ठ पत्रकार और बड़े भाई जयशंकर गुप्त जी की पोस्ट से मिली। अचानक मुलाकात की बारह साल पुरानी स्नेहिल स्मृतियां कौंध गईं। 10 नवंबर 1945 को आजमगढ़ में जन्मे बरनवाल जी हीरक जयंती वर्ष में प्रवेश कर चुके थे। अगर होते तो जरूर उनसे मिलकर कुछ कहना सुनना और चिंतन मनन का कार्यक्रम होता। पर एक अदृश्य लेकिन खतरनाक कोरोना वायरस से फैली महामारी ने उन्हें हम लोगों से खामोश तरीके से छीन लिया और उन्हें श्रद्धांजलि देने का अवसर ही नहीं दिया। हालांकि वे लंबे समय से डायबटीज और परकिंसन जैसी बीमारी से पीड़ित थे और डायबिटीज अपने में और भी कई बीमारियां जिस प्रकार लेकर आती है वह सब उन पर हमलावर थीं।

वीरेंद्र जी से 12 साल पहले मुलाकात हुई थी और उसके बाद कई बार उन्हें सुनने और उनसे बात करने का मौका मिला। वे स्वयं मुझे ढूंढते हुए हिंदुस्तान टाइम्स बिल्डिंग में आए और आते ही बोले यार सुगर डाउन हो रही है इसलिए पहले कुछ खिलाओ। मैं भी डायबटीज परिवार का नया-नया सदस्य बना था इसलिए इस दिक्कत से परिचित था। सुगर सामान्य करने के लिए कुछ लेने के बाद बातचीत शुरू हुई और उस वार्ता में डॉ. राजेंद्र धोड़पकर और हरजिंदर भी शामिल थे। उनसे बात करके तुलसीदास की वह पंक्तियां याद आ गईं जिसमें उन्होंने सज्जन और दुर्जन को शुक्ल पक्ष और कृष्ण पक्ष की चंद्रमा की तरह परिभाषित किया है। सज्जन व्यक्ति की आभा शुक्ल पक्ष की चंद्रमा की तरह धीरे-धीरे प्रकट होती है और लगातार बढ़ती जाती है जबकि दुर्जन व्यक्ति के साथ ठीक उलट होता है। उनकी विद्वता भी मेरे सामने धीरे धीरे खुलती गई और मैं उनका कायल होता गया।

भारतीय और पश्चिमी साहित्य और दर्शन पर अद्भुत पकड़ होने के साथ ही वे स्वाधीनता संग्राम के गंभीर अध्येता थे। दरअसल स्वाधीनता संग्राम उन्हें विरासत में मिला था और उन्होंने भारत मां के लायक सपूत की तरह कभी उससे पीछा नहीं छुड़ाया। उनकी मां गायत्री देवी, पिता दयाराम बरनवाल स्वाधीनता सेनानी थे और 1942 के आंदोलन में उन दोनों ने जेल यात्राएं की थीं। बरनवाल जी राजनीति की बजाय पहले अध्यापन और फिर प्रशासनिक सेवा में गए और 2005 में मुख्य आयकर आयुक्त के पद से रिटायर हुए। पर इस कमाऊ पद की ठसक उनके व्यक्तित्व में कहीं थी ही नहीं। उनकी राजनीतिक समझ तमाम राजनीतिक विश्लेषकों, पत्रकारों और राजनेताओं से कहीं ज्यादा गहरी थी। इस सिलसिले में उनकी तीन पुस्तकें उल्लेखनीय हैं—मुस्लिम नवजागरण और अकबर इलाहाबादी का गांधीनामा, जिन्नाः एक पुनर्दृष्टि, रत्तनबाई जिन्ना और तीसरी लेकिन सबसे महत्त्वपूर्ण पुस्तक हिंद स्वराजःनवसभ्यता विमर्श। 

जाहिर सी बात है कि भारत के तमाम बौद्धिकों की तरह उन्हें भी भारत का स्वाधीनता संग्राम प्रेरित करता था और विभाजन की त्रासदी बेचैन करती थी। वे मनुष्य की स्वाधीनता के उपासक थे और उसके भीतर बढ़ रही कटुता और शोषण के रिश्ते के विरोधी थे। इसी दृष्टि से वे काले लेखकों की कविताओं के माध्यम से रंगभेद से टकराते थे तो कभी टैगोर, इकबाल, अकबर इलाहाबादी, तुलसीदास, कबीर दास, गालिब और यूरोपीय नवजागरण के रचनाकारों के माध्यम से नई सभ्यता की परिकल्पना खड़ी करते थे। लेकिन उनकी संवेदना में सारे आधुनिक और उत्तर आधुनिक विमर्श मौजूद थे। उसके प्रमाण हैं—नाइजीरियाई कविताओं के अनुवाद—पानी के छींटे सूरज के चेहरे पर, नोबेल पुरस्कार विजेता बोल सोयंका की कविताओं के अनुवाद और युवा जापानी कवयित्री की कविताओं के `माची तवरा की कविताएं’ शीर्षक से अनुवाद।

वैसे तो उनकी सभी रचनाएं और अनुवाद ज्ञान और संवेदना के एक बड़े क्षितिज को उपस्थित करती हैं लेकिन उनमें अगर किसी एक रचना का जिक्र करना हो तो वह हैः हिंद स्वराजः नवसभ्यता विमर्श। दिल्ली के मित्रों के साथ हम लोग हिंद स्वराज के शताब्दी वर्ष पर सक्रिय थे इसलिए बरनवाल जी ने भी कहीं से सूंघ लिया था कि यह नाचीज भी गांधी का विनम्र विद्यार्थी है। उनसे जब मुलाकात हुई तो वे `हिंद स्वराज’ पर अपनी पुस्तक तैयार कर रहे थे। उस समय एंटोनी जे परेल की किताब आ चुकी थी और हिंद स्वराज पर कई दूसरी टीकाएं मौजूद थीं। 

लेकिन बरनवाल जी ने जिस तरह से हिंद स्वराज को एक उत्तर आधुनिक विचार बनाकर प्रस्तुत किया वह अपने में बेजोड़ है। इस पुस्तक में 120 पेज की भूमिका और 42 पेज का परिशिष्ट गांधी विचार के क्षेत्र में बरनवाल जी के मौलिक योगदान के रूप में देखा जा सकता है। उसमें उन्होंने गांधी पर हुए तमाम अध्ययनों और उससे आगे बढ़कर गांधी की प्रासंगिकता को ज्ञान की मिठास से भरे एक स्वास्थ्य वर्धक गाढ़े पेय के रूप में प्रस्तुत किया है। आप उसे जितना ही मथेंगे उतनी ही प्यास बुझाई जा सकेगी। पुस्तक के बीच में हिंद स्वराज के गुजराती पाठ के साथ उसका हिंदी अनुवाद भी दिया गया है। 

हिंद स्वराज के इस पुनर्पाठ को प्रस्तुत करते हुए उन्होंने लिखा था, “अपनी अंतरात्मा में गढ़े-जड़े हिंद स्वराज का अक्षर-अक्षर गांधी ने अपने हृदय के खून से लिखा है। इसके बावजूद उसे पवित्र पाठ मानना उचित नहीं होगा। पर उसे छिद्रान्वेषण और ध्वस्त करने के पूर्वाग्रह के साथ पढ़ना भी एक अत्यंत स्वस्थ दृष्टि का परिचायक होगा। पिछले सौ वर्षों में हम उल्टी दिशा में इतना आगे निकल गए हैं कि उनका रास्ता प्रतिगामी और नितांत अव्यावहारिक लगता है। उसे हम उनकी निगाह से न पढ़े पर सजग सम्यक विवेक के साथ उसे आलोचनात्मक दृष्टि से पढ़ना आवश्यक है।’’

 बरनवाल जी ने इस पुस्तक में मेरे जैसे अल्पज्ञानी और साधनविहीन व्यक्ति का न सिर्फ आभार व्यक्त किया है बल्कि उन्होंने स्वयं यह पुस्तक भेंट भी की थी। आज जब दुनिया कोरोना के रूप में प्रकृति और मनुष्य के बीच नए द्वंद्व का सामना कर रही है तो इस विमर्श से कई प्रेरणाएं प्राप्त हो सकती हैं। अपने मित्र और दिल्ली विश्वविद्यालय के प्राध्यापक डॉ. प्रेम सिंह बताते हैं कि एक बार दिल्ली विश्वविद्यालय में `गांधी और साहित्य’ विषय पर व्याख्यान देने गए बरनवाल जी से जेवर अंतरराष्ट्रीय हवाई अड्डे को गांधी के नाम पर रखने की चर्चा होने लगी। बरनवाल जी चाहते थे कि महात्मा गांधी की 150 वीं जयंती के मौके पर जेवर हवाई अड्डे का नाम उनके नाम पर होना चाहिए और इसके लिए दिल्ली के तमाम गांधीवादी प्रयास करें। 

हालांकि गांधी कभी हवाई जहाज पर नहीं बैठे थे। इस बारे में लुई फिशर भी जिक्र करते हुए कहते हैं कि बीसवीं सदी का सबसे महान व्यक्ति कभी हवाई जहाज पर नहीं बैठा। लेकिन इस मामले में दूसरा पेंच यह भी है कि हवाई अड्डे और अंतरराष्ट्रीय हवाई सेवाएं जिस प्रकार से उपभोक्तावाद जिसमें शराब और विलासिता की वस्तुएं शामिल हैं की वाहक बन गई हैं उसमें गांधी का नाम रखना कहां तक उचित होता। यह तो गांधी को सरकारी स्तर पर बेचने जैसा ही होता। लेकिन अगर भारत सरकार गांधी को आदर देने का सिर्फ ढकोसला नहीं करती है तो वह इस पूरे हवाई अड्डे को गांधी विचारों के अनुरूप सादगी और नैतिकता पर केंद्रित एक हवाई सेवा केंद्र का रूप दे सकती है। यह बरनवाल जी की एक इच्छा थी और ऐसा करना एक गांधीवादी समाजवादी विचारक का सम्मान होगा। लेकिन उनका असली सम्मान तो तब होगा जब भारत के स्वाधीनता संग्राम का सम्यक और विवेकपूर्ण तरीके से पाठ किया जाए और आज के तमाम भ्रम और शत्रुता का निवारण हो सके।

बरनवाल जी एक समतावादी ही नहीं समन्वयवादी विचारक थे। वे विभेद की बजाय सद्भाव में यकीन करते थे। वे स्वधीनता संग्राम को लेकर बहुत आग्रही भी थे। उसकी निर्मम आलोचना को पसंद नहीं करते थे। वे उस कांग्रेस के प्रशंसक थे जो आजादी के पहले वाली थी। हालांकि जिन्ना जैसी पुस्तक में वे उनकी कमियों की ओर भी ध्यान खींचते हैं इसके बावजूद वे मानते थे कि सभ्यता मूलक नई दृष्टि से ऐसी बहुत सारी चीजों को जोड़ा जा सकता है जो अतीत में टूट गई हैं। ऐसे विचारक का जाना उस समय बड़ी क्षति है जब दुनिया पर मनुष्य और प्रकृति और सभ्यताओं के संघर्ष का विमर्श हावी हो रहा है। फिर भी बरनवाल जी शरीर से गए हैं अपने ओजस्वी विचारों के साथ वे हमारे बीच हमेशा रहेंगे। 

(अरुण कुमार त्रिपाठी वरिष्ठ पत्रकार हैं और आजकल दिल्ली में रहते हैं।)  

जनचौक से जुड़े

0 0 votes
Article Rating
Subscribe
Notify of
guest
0 Comments
Inline Feedbacks
View all comments

Latest Updates

Latest

Related Articles