पिंजरे से आजाद एकमात्र अफ्रीकी चीता पवन को 27 अगस्त, 2024 की सुबह मृत पाया गया। वह कूनो नेशनल पार्क के एक नाले की बहाव में एक झाड़ी में फंसा हुआ मिला। मीडिया में जो खबर आई, उसमें उसके शरीर के बाहरी हिस्सों पर कोई चोट नहीं थी।
आरम्भिक तौर पर बताया जा रहा है कि उसकी मौत नाले में फंसकर डूबने से हुई। यह चीता स्वस्थ था और लंबी दूरी तय करता हुआ दिख रहा था। यह माना जा रहा है कि कम से कम अब तक 8 युवा चीता की मौत हो चुकी है और बहुत सारे बच्चे भी मौत के शिकार हुए। इस समय अब कुल चीतों की संख्या 24 रह गई है।
अभी इन चीतों को लेकर बनाई गई परियोजना को लागू हुए दो साल हुए हैं। इन दो सालों के गुजरने के बाद भी इन चीतों को पिंजरे में रखकर देखभाल करने और इन्हें जंगल में आजाद न छोड़ने को लेकर सिर्फ सामान्य तौर पर आलोचना नहीं हुई। इस संदर्भ में जीव विज्ञानियों और पर्यावरणविदों ने भी इस पर गंभीर सवाल खड़े किये।
संभवतः इन दबावों की एक वजह थी जब इस परियोजना से जुड़े अधिकारियों ने इन अफ्रीकी चीतों को जंगल में छोड़ने का निर्णय लिया था और इसे इस बारिश के मौसम के उतरने और फिर जाड़े के दिसम्बर महीने में जंगल में छोड़ देना था। इसमें पहले व्यस्क और फिर बच्चों को क्रमशः छोड़ना तय हुआ था। निश्चित ही यह घटना आगामी योजना को प्रभावित करेगी।
यहां यह जान लेना भी उपयुक्त होगा कि अभी इस साल के अंत तक पिंजरे में बंद चीतों को छोड़ने की योजना लागू भी नहीं हुई थी, आने वाले समय में कथित फेज-2 के तहत सरकार 12 से 15 और चीतों के लाने की खबर भी सामने आने लगी थी। इस बार यह दावा किया जा रहा था कि ये चीते अफ्रीकी महाद्वीप के उत्तरी हिस्सों वाले देशों से लाये जाएंगे।
इसमें प्रमुख देश कीनिया था, जहां से चीतों को लाने का मशविरा चल रहा था। इसके पीछे जो कारण बताया गया उसमें उत्तरी गोलार्ध का तर्क दिया गया था। यह बताने की कोशिश हो रही थी कि भारत और उत्तरी अफ्रीका उत्तरी गोलार्ध का हिस्सा हैं, इसलिए चीतों को भारत के मौसम के साथ अनुकूलन में दिक्कत नहीं होगी।
हिंदी मीडिया में पवन की मौत पर सवाल उठने की बजाय मारे गये पवन चीता की तारीफ में कसीदे ज्यादा मिल रहे हैं। एक अखबार का डिजिटल प्लेटफार्म का शीर्षक हैः ‘‘चीता पवन-बकरियों का शिकार, गांव से प्यार …पल भर में कूनो जंगल से ‘उड़’ जाता था चीता पवन, तीन राज्यों में है साम्राज्य’’।
चीता पवन की एक और ऐसी खूबी है जो उसके वन्य जीवन से अलग है। यह प्रधानमंत्री के जन्मदिन पर लाया गया था। उस समय कैमरों का फिल्मांकन इस तरह से पेश किया गया जिसमें मोदी एक चीते की चाल से चलते हुए लग रहे थे। उस समय कई सांसदों ने मध्ययुगीन दरबारियों की तरह कहा था, देखो, देखो, चीता आया।
अब जब इस चीते की मौत हो गई है, लेकिन इस अभी तक मुझे न तो प्रधानमंत्री की ओर से और न ही उन दरबारी शक्ल वाले सांसदों की ओर कोई दुख प्रकट करता हुआ कोई बयान आया।
प्रधानमंत्री मोदी के दूसरे कार्यकाल के दूसरे चरण में जब इस चीता परियोजना को जमीन पर उतारने का काम शुरू हुआ, तब कांग्रेस के कई नेताओं ने दावा किया कि इसकी शुरूआत कांग्रेस की मनमोहन सरकार के समय हो चुका था।
आज जब यह पिछले दो सालों से लगातार असफलता की ओर मुंह किये हुए है, तब यह नहीं बताया जा रहा है कि पिछली और मोदी के काल की परियोजना में क्या फर्क है और असफलता के पीछे के कारण क्या हैं? चुप्पी सिर्फ वन अधिकारियों की ओर से ही नहीं है, इस परियोजना के लिए बनी समिति और खुद प्रधानमंत्री की ओर से भी देखी जा रही है।
हम मोदी के काल में जिस बड़ी परिघटना को देख रहे हैं, उसमें हासिल असफलताओं को लेकर चुप्पी है। जब उस पर सवाल उठते हैं तब उन सवालों को और सवाल उठाने वालों की प्रासंगिकता और नीयत को शक की निगाह से देखा जाता है। और, बहुत से मामलों में तो सवाल उठाने वालों पर ही गंभीर कानूनी कार्यवाही कर दी जाती है।
ऐसे में सवाल भी न्यूनतम और सुझाव के रूप में सामने आते हैं। कोविड लॉकडाउन, नोटबंदी, जीएसटी से लेकर मणिपुर जैसी घटनाओं के पीछे समाज, अर्थव्यवस्था, राजनीति आदि के प्रति अपनाई गई नीतिगत मामला है।
चीता परियोजना भी पर्यावरण और वन्य जीवन को लेकर अपनाई गई नीति से जुड़ा हुआ मसला है। इस मसले पर ऊपर से नीचे तक जिस तरह की चुप्पियां पसरी हुई हैं, उससे समस्याओं का हल नहीं होना है। दरअसल, ऐसी चुप्पियां कुछ और नहीं, नीति निर्माताओं के अतिरिक्त समाज की भागीदारी को ही रोक देती हैं।
इस बंद गली में प्रवेश निषिद्ध होने से इसका सार्वजनिक पक्ष ही गायब दिखता है। जबकि सरकार का अर्थ इससे भिन्न है। यह सरकार की मूल प्रकृति का ही निषेध है।
यहां मसला सिर्फ एक चीते की मौत का नहीं है। कोई घटना हमें आगे का रास्ता तय करने की एक रोशनी की तरह होती है। मौत एक बड़ी घटना है, इसे टालने के लिए सीखना संवेदना और चेतना की मांग करती है।
लेकिन, सरकार में मुख्यमंत्री पद पर बने रहकर ‘जीप पलटा देने’ और ‘बुलेट ट्रेन’ चला देने जैसा बयान दिया जा सकता है, तब वहां मौत से सीखने की उम्मीद नहीं की जा सकती। यहां तो मौत से सीखकर मौत तक पहुंचा देने वाली चेतना ज्यादा दिख रही है।
ऐसे में एक चीते की मौत वन्य जीवन में मौत को रोक देने की सीख बन जाने में कितना कारगर होगी, संदेह करना स्वाभाविक है। फिलहाल, दो सालों में एक के बाद एक चीतों की मौत चीता परियोजना पर खुद में एक बड़ी टिप्पणी है। उम्मीद है इस टिप्पणी को गंभीरता से पढ़ा जाएगा।
(अंजनी कुमार लेखक एवं स्वतंत्र पत्रकार हैं)