Saturday, April 20, 2024

बीजेपी के आला नेताओं से गहरे थे अतीक के रिश्ते

नई दिल्ली। पिछले पंद्रह दिन से अधिक समय से टेलीविजन परदे पर छाए हुए अपराधी से माफिया सरगना बने माफिया-बंधु अतीक-अशरफ की हत्या की कहानी की कई परते हैं। जितने मुंह उतनी बातें हैं। जितने चैनल हैं, उससे ज्यादा उनके पास उतनी अफवाहें हैं। लेकिन, हम आपको ले चलते हैं इलाहाबाद के आठवें दशक में। हर कोई यह जानने को बेताब है कि आखिरकार अतीक अहमद मामूली तांगेवाले का बेटा होते हुए और महज आठवीं पास करके इस ‘मुकाम’ तक पहुंचा कैसे? 

इस रहस्य को शुरू में ही खोल दिया जाए तो अच्छा रहेगा। दरअसल, अतीक को यहां तक पहुंचाने में जितनी भूमिका कांग्रेस, सपा-बसपा के नेताओं की रही है उतनी ही आज केंद्र और उत्तर प्रदेश में सत्तासीन भाजपा के नेताओं की भी है।

यह कोई 1985 के आस-पास की बात है, जब बीस साल के नाटे-मोटे कद के नौजवान ने तबके बड़े खूंख्वार माने जाने वाले एक ब्राह्मण भू-माफिया की एंबेसडर गाड़ी बीच चौक पर रोक ली और उनसे निपटने की चेतावनी दी। वह इलाहाबादी ब्राह्मण महराज कपिलमुनि करवरिया थे और कहने की जरूरत नहीं कि वे भी अपराध के रास्ते राजनीति में स्थापित हुए। बसपा और भाजपा के भी चहेते बने। इस बात के कोई सुबूत तो नहीं हैं कि अतीक अहमद ने कपिलमुनि करवरिया को देख कर ही जरायम की दुनिया से सियासत के रंगमंच पर चढ़ने का हुनर सीखा हो।

यह सब तब इतना आसान भी नहीं था। कहा जाता है कि अतीक अहमद ने पहली हत्या किसी मामूली आदमी की थी। इस बारे में एक पुलिस अधिकारी रहे एक राय साहब के इंटरव्यू की क्लिप टहल रही है, जिसमें वह बताते हैं कि किसी मामूली आदमी की अतीक के छोटे भाई अशरफ से सड़क पर झड़प हो गई थी। बाद में दो दिन में उस आदमी की हत्या हो गई। उसका मुकदमा दर्ज तो हुआ, लेकिन वह किसी तार्किक अंत तक नहीं पहुंच पाया।

इस हत्या से अतीक अहमद को अपराध की दुनिया में दाखिला तो मिल गया लेकिन कोई खास दबदबा नहीं बना।

अतीक को एक बड़े कांड की तलाश और जरूरत थी। ऐसे में वह घड़ी आ गई। हुआ यह कि 1989 में चौक क्षेत्र का एक सभासद और मनबढ़ बदमाश चांदबाबा ने इलाहाबाद शहर पश्चिमी विधान सभा क्षेत्र से निर्दलीय उम्मीदवार के तौर पर चुनाव लड़ने की तैयारी शुरू की। अतीक अहमद एक तरह से चांदबाबा का चेला जैसा था। अतीक ने भी पर्चा भरा। अचानक चांद बाबा की हत्या हो गई। सारे शहर में चर्चा थी कि अतीक अहमद ने यह काम किया है। उस समय पूर्व पुलिस महानिदेशक रहे ओपी सिंह पुलिस अधीक्षक नगर थे और चर्चित पुलिस अधिकारी और साहित्यकार वीएन राय वरिष्ठ पुलिस अधीक्षक थे। लेकिन, चांद बाबा की हत्या में अतीक अहमद का नाम एफआईआर में नहीं था। चांदबाबा की हत्या में अतीक का नाम न आने के पीछे एक और कहानी है। कहा यह जाता है कि चांद बाबा ने एक दिन टेलीफोन पर तबके जिलाधिकारी को गाली दे दी।

यह बात उन्होंने ओपी सिंह से बताई। ओपी सिंह की समस्या यह थी कि चांद बाबा उनका दरबारी था और उनके दफ्तर में अकसर आता-जाता था। चांद बाबा को छूने का मतलब था नई मुसीबत मोल लेना। चांद बाबा के पीछे उन दिनों सैकड़ों नौजवान मुस्लिम बौराए घूमते थे। उसके एक इशारे पर एक बार उन्हीं बिगड़ैल नौजवानों ने पीएसी से मोर्चा ले लिया। चांद बाबा चौक क्षेत्र से रेड-लाइट एरिया हटाना चाहता था। इस कारण वह इलाहाबाद चौक के क्षेत्र में लोकप्रिय हो गया था। लेकिन दो घटनाएं एक साथ घटीं। चांद बाबा की हत्या हो गई और अतीक अहमद पहली बार विधायक भी हो गया। इसमें एक अवांतर कथा यह है कि इलाहाबाद शहर पश्चिमी विधान सभा क्षेत्र से सटा हुआ शहर दक्षिणी विधान सभा क्षेत्र भी है। इसी क्षेत्र से भाजपा के दिग्गज नेता रहे काशीनाथ त्रिपाठी विधायक चुने जाते थे। अतीक के पहले चुनाव में उन्होंने उसे जिताने में मदद की थी।

अतीक अहमद इस मामले में शातिर था कि वह मुस्लिम जनता को और हिंदू नेताओं को पटा कर रखता था। कपिलमुनि करवरिया उसके आदर्श थे तो केशरीनाथ त्रिपाठी राजनीतिक गुरु। बाद में उसने बहुत गुरु बनाए, लेकिन वह चेला किसी का न बना। अपने बदमाश गुरु चांदबाबा को निपटाने के बाद उसने पीछे मुड़कर नहीं देखा। पंडित केशरीनाथ त्रिपाठी तब भाजपा के महानगर अध्यक्ष हुआ करते थे और टिकट बंटवारे में उन्हीं की चलती थी। वे अकसर शहर पश्चिमी यानी अतीक के इलाके से एक कमजोर उम्मीदवार रामचंद्र जायसवाल को उतारते और जायसवाल हर बार हार जाते। जानबूझकर हिंदू-मुस्लिम का ध्रुवीकरण होता और अतीक जीत जाता।

लखनऊ के वरिष्ठ पुलिस अधीक्षक रहे राजेश राय ने अपने एक वीडियो इंटरव्यू में अतीक अहमद के बदमाशी को लेकर टिप्पणी करते हुए कहा है, ” अतीक हत्याओं के जरिए अपने दबदबे को लांच करता था। चांदबाबा की हत्या कर उसने खुद को लांच किया, विधायक राजूपाल की हत्या करके उसने अपने भाई अशरफ को लांच किया और अब उमेश पाल की हत्या करके वह अपने बेटे असद को लांच करना चाहता था।”

लेकिन, इस बार अतीक की बाजी खुद ही उलट गई। दरअसल यह समय का फेरा भी है। अतीक की अपराध यात्रा चालीस साल से ज्यादा पुरानी हो चुकी थी। लेकिन, अतीक को यहां तक पहुंचाने में जितने दोषी लालची पुलिस अधिकारी हैं, बिकाऊ पत्रकार और अफसर हैं, उतने ही नेता भी हैं। इसमें भाजपा के नेताओं का भी उतना ही हाथ है, जितना अन्य दलों का। किसी से छिपा हुआ यह तथ्य नहीं है कि उत्तर प्रदेश के मौजूदा काबीना मंत्री नंद गोपाल नंदी के ऊपर अतीक अहमद का पांच करोड़ रुपए का बकाया है, जिसकी बात अतीक की फरार पत्नी शाइस्ता कई बार कर चुकी हैं। इसी आरोप के कारण नंदी की पत्नी अभिलाषा गुप्ता को इस बार प्रयागराज ( इलाहाबाद) के महापौर का टिकट काट दिया गया।

उत्तर प्रदेश के उपमुख्यमंत्री केशव प्रसाद मौर्य की अतीक अहमद से दोस्ती के तमाम किस्से हैं। मौर्य भी दो-तीन बार शहर पश्चिमी से भाजपा उम्मीदवार रहे हैं। उनका धार्मिक ध्रुवीकरण अतीक को जीतने में मदद करता था। कहते हैं कि अतीक इसके लिए केशव प्रसाद मौर्य का बहुत शुक्रगुजार रहता था। इसके बदले उसने केशव प्रसाद मौर्य की मदद 2017 में फूलपुर लोकसभा उपचुनाव में की थी। मौर्य के उत्तर प्रदेश में उपमुख्यमंत्री पद ग्रहण करने के बाद इस सीट पर उपचुनाव होना था। अतीक अहमद भी 2004 में फूलपुर से लोकसभा सदस्य रह चुका था। कहा जाता है कि मौर्य के कहने पर अतीक ने नामांकन के आखिरी दिन निर्दलीय प्रत्याशी के रूप में परचा भरा। इसका मकसद था कि सपा के प्रत्याशी का वोट काटना, जिसका फायदा स्वाभाविक ही भाजपा को मिलता। लेकिन, इस उपचुनाव में भाजपा हार गई और सपा का प्रत्याशी जीता था। अतीक अहमद को चालीस हजार वोट मिले थे। भाजपा हार गई थी, लेकिन मौर्य ने अतीक का एहसान माना था।

एक और घटना का उल्लेख जरूरी है। यह उसी समय का मामला है, जब पूर्व पुलिस महानिदेशक ओपी सिंह इलाहाबाद में पुलिस अधीक्षक (नगर ) थे और वीएन राय वरिष्ठ पुलिस अधीक्षक। अतीक अहमद ने धूमनगंज थाने में जाकर एक राय सरनेम वाले दरोगा को थप्पड़ मार दिया। दरोगा जाकर ओपी सिंह के सामने रो पड़ा। ओपी सिंह ने वीएनराय को बताया। रिपोर्ट दर्ज हुई। यहां तक ओपी सिंह ने अतीक के चकिया आवास पर छापा मार दिया। अतीक ने तब ओपी सिंह से कहा, ” आप जाओ, लाशें बिछ जाएंगी। हमारे साथ सब मरेंगे..”।

अतीक का इलाका और उसके आदमियों ने छतों पर बंदूकें संभाल रखी थीं। लेकिन थोड़ी देर बाद तत्कालीन जनता दल के महापौर श्यामाचरण गुप्ता और विधायक राकेशधर त्रिपाठी ने मौके पर पहुंचकर अतीक को बचाया और पुलिस को वापस जाने पर मजबूर होना पड़ा। वीएन राय की तमाम कोशिशों के बाद अतीक ने तो आत्मसमर्पण किया और न उसे गिरफ्तार किया जा सका। तत्कालीन अपर नगर मजिस्ट्रेट मोहन स्वरूप और जिलाधिकारी अरुण कुमार मिश्र भी कुछ कर सके, बल्कि ऐसी चर्चा उड़ी की तत्कालीन वीपी सिंह सरकार में गृहमंत्री रहे मुफ्ती सईद ने भी जिलाधिकारी को फोन कर अतीक को गिरफ्तार न करने की हिदायत दी थी। आखिरकार सारा मामला एक मजिस्ट्रेटी जांच कर महदूद होकर रह गया।

अतीक के माफिया सरगना बनने की नींव उसी दिन पड़ गई थी, जब सैकड़ों पुलिस अफसर, लाव-लश्कर और हाथ बांधे जिलाधिकारी और वरिष्ठ पुलिस अधीक्षक और उनका अमला और उनके कारकुन मुंह लटकाए अपने घरों और दफ्तरों को लौट गए थे।

इससे भी ज्यादा काला दिन वह था, जब अतीक अहमद, भारत के प्रथम प्रधानमंत्री पंडित जवाहर लाल नेहरू के लोकसभा क्षेत्र से समाजवादी पार्टी के टिकट पर जीत कर संसद पहुंचा था। यह सपा मुखिया मुलायम सिंह यादव की राजनीति का कौन-सा चेहरा था, जो सब कुछ जानते-समझते हुए अतीक को टिकट दिया गया था। अतीक अहमद बहुचर्चित लखनऊ के अतिथि-गृह कांड में भी अभियुक्त था। और संयोग देखिए, वहां भी ओपी सिंह ही पुलिस कप्तान थे। कमाल यह भी कि जिस अतीक ने अतिथिगृह कांड में मायावती को मुंह भर-भर गालियां दी थीं, उन्हीं ने उसकी फरार पत्नी शाइस्ता को बसपा से महापौर का चुनाव लड़ाने की तैयारी कर ली थी।

अपराध और राजनीति की यह दुरभिसंधि किसे नहीं भाती? एक-दो माफिया को मिट्टी में मिलाने से क्या होगा, मिट्टी में ही मिलाना है तो इस तरह की राजनीति को मिट्टी में मिलाया जाए। शायद, तब कोई बात बने।

अतीक मिट्टी से उठा था, मिट्टी में मिल गया, लेकिन इस घड़े को संवारने वाले ‘कुम्हारों’ की मिट्टी पलीद कब होगी ? होगी भी या नहीं ? अतीक सियासत का मोहरा था, इसी बीच उसने अपनी जगह जगह बनाई थी, उसका साम्राज्य छिन्न-भिन्न हो गया। मगर, उन ‘साम्राज्यों’ का उत्खन्न कौन करेगा, अपने किले में महफूज हैं और फुफकार रहे हैं ! इन ‘रक्तबीजों” को मिटाने के लिए किसी और किस्म की राजनीति की दरकार है। 

 (रा. ज. पाठक की रिपोर्ट।)

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