सांप्रदायिक तनाव का माहौल और ‘हिंदू एकता’ का मतलब

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संभल का मामला हो या अजमेर शरीफ दरगाह का मामला हो उसे ध्यान से थोड़ा ठहरकर समझना जरूरी है। ‘जबरदस्त राजनीतिक जीत’ के बाद अब फिर से स्पष्ट हो गया है कि हिंदुत्व की राजनीति की बुनियाद में तार्किक रूप से ‘हिंदू एकता’ की स्वाभाविक जरूरत होती है। किसी भी एकता के लिए दुश्मन की जरूरत होती है। स्थाई एकता के लिए स्थाई दुश्मन की जरूरत होती है।

हिंदू धर्म की बनावट में वर्ण-व्यवस्था है। वर्ण-व्यवस्था में जनमना वर्ण-जाति के आधार पर व्यक्तियों को समाज व्यवस्था में ऊंच-नीच का दर्जा दिया जाता है। इस ऊंच-नीच दर्जा के आधार पर सामाजिक, आर्थिक, राजनीतिक गतिविधियों में शामिल होने का अवसर प्राप्त होता है। भारत का संविधान इस की इजाजत नहीं देता है। इतना ही नहीं भारत का संविधान इस तरह के किसी भी भेद-भाव के विरुद्ध आवश्यक राजकीय और शासकीय कार्रवाइयों की भी प्रेरणा देता है।

संविधान के विभिन्न प्रावधानों को लागू करनेवाली संस्थाओं की संवैधानिक जिम्मेवारी है कि इस कार्य को शुद्ध अंतःकरण से लगातार करती रहे। कहने में कोई संकोच नहीं है कि संविधान प्रदत्त तमाम तरह की स्वायत्तताओं के बावजूद संवैधानिक संस्थाओं में काम करनेवाले व्यक्तियों ने अपने इस दायित्व को शुद्ध अंतःकरण से बिना भेद-भाव के संपन्न नहीं किया या करने में कोताही बरती। इनकार नहीं किया जा सकता है कि ऐसा इसलिए भी हुआ होगा कि संवैधानिक संस्थाओं में उत्तरदायित्व का पद संभालनेवाले अपनी आर्थिक प्रगति और जाति वर्चस्व को संवैधानिक भावनाओं के विरुद्ध जारी रखने पर अधिक ध्यान दिया होगा। राजनीतिक प्रेरणा के अभाव में उनका मंसूबा कामयाब होता गया होगा। इस के अलावा उन की अपनी ‎‘सांस्कृतिक जिद’ ने भी कमाल किया होगा!

स्वाभाविक रूप से राजनीतिक वर्चस्व के वातावरण में ‘सब कुछ’ राजनीतिक प्रेरणाओं पर निर्भर करता है; इस अर्थ में ‘प्रेरणाओं’ को ‘ठेलम-ठेला’ कहा जा सकता है। लोकतंत्र में राजनीतिक वर्चस्व का होना ही स्वाभाविक होता है। सत्ता में यथा-स्थिति बनाये रखने की प्रवृत्ति होती है। आजादी के बाद कांग्रेस सत्ता में आई। उस समय की परिस्थितियां बहुत ही विकट थी। देश विभाजन की त्रासदी से लहुलुहान और परेशान देश महात्मा गांधी की हत्या से हतप्रभ रह गया था। देश में बहुत सारे बदलाव जरूरी थे। न हो सके। सत्ता की राजनीति के अलावा अन्य सभी किस्म की राजनीति धीरे-धीरे स्थगित होती चली गई।

वैसे भी हिंदू बहुल देश में किसी भी सत्ता के लिए हजारों साल की ‘सांस्कृतिक सक्रियता’ के साथ हिंदू धर्म की आंतरिक विभाजक रेखाओं को सत्ता की ‘राजनीतिक सक्रियता’ से निष्क्रिय करना बहुत आसान नहीं था। सांस्कृतिक मामलों का मुकाबला सांस्कृतिक उपादानों से किया जाना ही न्याय-संगत होता है। इस में हिंदी के सांस्कृतिक उपादानों की जबरदस्त भूमिका स्व-परिभाषित थी और है। मुश्किल यह हुआ कि उपादन में ही उपद्रव के तत्व प्रभावी रूप से सक्रिय रहे हैं। ‘थोड़ा कहना अधिक समझना’ को अपनाते हुए यह कहना जरूरी है कि संस्कृति की सम्यक समझ के अभाव और विभिन्न तरह के लोभ-लालच के दबाव के प्रभाव में संस्कृति के प्रगतिशील उपादन संस्कृति के पारंपरिक उपादानों के उपद्रवी तत्वों से मुकाबला करने में पिछड़ती चली गई।

हिंदुत्व की राजनीति को जिस हिंदू एकता की राजनीतिक जरूरत है उस में हिंदू धर्म में अंतर्निहित वर्ण-व्यवस्था की ऊंच-नीच की भावनाओं या वास्तविक भेद-भावमूलक स्थितियों को दूर करने की कोई चिंता नहीं है। यहां तक हो तब भी कोई बात नहीं है। चिंता की बात यह है कि उस की दिलचस्पी भेद-भावमूलक ऊंच-नीच की भावनाओं को न सिर्फ बनाये रखने में है, बल्कि उसे बढ़ावा देने में है। हिंदुत्व की राजनीति की अंतर्वस्तु में यही अंतर्विरोध है कि स्थाई बहुमत के लिए प्रत्यक्ष रूप से वह हिंदू एकता की बात करती है और अप्रत्यक्ष रूप से सामाजिक संरचना में हिंदू धर्म की भेद-भावमूलक ऊंच-नीच की परिस्थितियों को भी साथ-साथ बनाये रखना चाहती है।

भेद-भावमूलक ऊंच-नीच की परिस्थितियों को बनाये रखते हुए ‘हिंदू एकता’ के सूत्र हिंदू-मुसलमान में तनाव से निकलते हैं। स्थाई एकता के लिए जिस स्थाई दुश्मन की जरूरत होती है उस जरूरत को पूरा करने के लिए मुसलमानों की आबादी का इस्तेमाल किया जाता है। मुसलमानों को घुसपैठिये के रूप में चिह्नित किये जाने की राजनीतिक परियोजना पर रात-दिन काम किया जाता है। हिंदुत्व की राजनीति का स्पष्ट इरादा होता है जिस जगह वे अंगुली रख दें उस के नीचे इतिहास के किसी-न-किसी काल-खंड में हिंदू पूजा-स्थल के होने को लोग सहज स्वीकार कर लें। इस स्वीकृति पर वे आगे की राजनीति करते हैं।

हिंदुत्व की राजनीति का दूसरा इरादा यह होता है कि जो लोग उन की विचारधारा से सहमत नहीं हैं उन्हें चिह्नित कर लिया जाये और उन के किसी भी स्तर पर सक्रिय होते ही उन्हें देश-द्रोही घोषित कर दिया जाये। जाहिर है कि मुसलमानों के साथ-साथ कम्युनिस्ट और प्रगतिशील विचारधारा को माननेवाले लोग ऐतिहासिक रूप से हिंदुत्व की राजनीति के लिए स्थाई दुश्मन की स्थाई श्रेणी में हैं। इन्हें हिंदुत्व की राजनीति ‘टुकड़े-टुकड़े गैंग’ और ‘अर्बन नक्सल’ के रूप में चिह्नित करती है। हालांकि, ‘टुकड़े-टुकड़े गैंग’ और ‘अर्बन नक्सल’ जैसा कोई कानूनी रूप से परिभाषित पदबंध नहीं है। फिर भी, प्रधानमंत्री खुद ऐसे पदबंधों का जमकर राजनीतिक इस्तेमाल करते हैं।

कहा जाता है कि अपने इस शासन-काल में इधर-उधर करके जैसे-तैसे विभिन्न सरकारी प्रतिष्ठानों और पदों पर अपने स्वीकार्य संस्कारित अभिजनों को सच सफलतापूर्वक स्थापित कर दिया है। इस ओर किसी का पर्याप्त ध्यान ही नहीं गया। उच्च पदों पर ‘लेटरल एंट्री’ का मामला आरक्षण के प्रावधान का खयाल न रखने के कारण राजनीतिक रूप से संवेदनशील हो गया तो सत्ता में सहयोगी दलों के दबाव में पांव पीछे किया गया। इधर पेपरलीक के मामलों पर विचार करने से यह समझने में देर नहीं लगेगी कि इस तरह की भर्ती प्रक्रिया में उन के द्वारा चिह्नित लोगों की बहाली की संभावना न्यूनतम रहती है।

अपने चिह्नित लोगों की बहाली का रास्ता साफ करने के लिए पेपरलीक किया जाता है या किन कारणों से पेपरलीक होता है, कुछ भी कहना मुश्किल है । पेपरलीक का मामला लीक हो जाने पर कोहराम मचता है। अब तो सरकार के कर्मचारी और अधिकारी के राष्ट्रीय स्वयं-सेवक संघ जैसी संस्था से जुड़ने की बाधा समाप्त हो गई है और प्रेरणा सक्रिय हो गई है। इस तरह की बाधाओं का प्रेरणा में बदल जाना देश में अवसरों की सामाजिक और संवैधानिक समानता के सिद्धांत के लिए दुर्भाग्यजनक ही है।

कहने का तात्पर्य यह है कि संभल का मामला हो, अजमेर शरीफ दरगाह आदि का मामला हो, असल में भारतीय जनता पार्टी को राम मंदिर की तरह के बहुत दिनों तक टिकनेवाले सांप्रदायिक विभाजन की उग्रता को बनाये रखने का आधार चाहिए। 2024 के लोकसभा के लिए हुए चुनाव में यह देखा गया कि राम मंदिर का मामला वोट की राजनीति के ‘हिसाब’ से बहुत कारगर या प्रभावी नहीं रहा। ‘जय जगन्नाथ’ से वह लक्ष्य नहीं सध सकता है जो ‘हिंदी-प्रदेश’ में तनाव के केंद्र बनाने से सध सकता है। इस केंद्र की तलाश में ‘हिंदुओं’ की पार्टी के लोग लगे हुए हैं।

राम मंदिर का फैसला ‘प्रार्थना’ से लिख लिया गया। प्रार्थना के पहले हुए ‘प्रहार’ को वास्तविक अर्थ में भुला ही दिया गया। निचली अदालतों में मामला पहुंचते ही सर्वेक्षण का ‘न्यायिक आदेश’ मिल जाता है। इस में किसी तरह से क्या कोई अन्य अर्थ अंतर्निहित रहता है या नहीं रहता है, कुछ भी कहना मुश्किल है। मुश्किल है, लेकिन सर्वोच्च न्यायालय इस में जब-तब दखल देना उचित समझता है तो उस की नजर पर्याप्त रूप से कुछ-न-कुछ साफ-साफ दिखता होगा। क्या दिखता होगा! क्या पता!

अब हिंदू-मुसलमान के बीच तनाव का मामला सिर्फ सांप्रदायिक ही नहीं है जितनी बड़ी तनाव की यह चादर होती है देश के ज्वलंत मुद्दों पर उतना ही बड़ा पर्दा पड़ जाता है; पर्दा लोगों की आंख पर भी पड़ जाता है। बेरोजगारी, महंगाई और आर्थिक बदहाली, क्रोनी कैपिटलिज्म, भाई-भतीजावाद हो, सामाजिक समानता को भंग करने की कोई भी कोशिश हो इस पर्दे से ढक जाता है। इसलिए यह मानना कि संभल या अजमेर शरीफ दरगाह का मामला वैसा ही नहीं है जैसा ऊपर से देखा-दिखाया जाता है। क्या दिल पर हाथ रखकर, ईमान की साक्षी में कोई कह सकता है कि इस के पीछे कोई जन-भावना काम कर रही है। हां, इतना जरूर है कि भारत की गंगा-जमुनी संस्कृति और जन-हित के खिलाफ जन-भावनाओं को भड़काने की कोशिश की जा रही है। भारतीय जनता पार्टी को इस तरह से जन-भावनाओं को भड़काने और इस रास्ता से भारत की सत्ता तक पहुंचने का आजमाया हुआ नुस्खा है।

भारतीय जनता पार्टी का राजनीतिक रसूख मंडल आयोग की सिफारिशों की विरोधिता में चमकी थी तो उस का राजनीतिक रसूख मंडल आयोग के अगले चरण, जातिवार जनगणना की राजनीति से समाप्त होगा। भारतीय जनता पार्टी का शीर्ष नेतृत्व तो समझता ही है, उस के लगुए-भगुए भी अच्छी तरह से समझते हैं। इसे किसी तरह से विधि-व्यवस्था का मामला नहीं माना जा सकता है।

चुनावी धांधलियों की जैसी-जैसी खबरें आ रही हैं और विपक्ष की शिकायतों पर चुनाव आयोग की प्रतिक्रिया और सत्ता के सहयोगी दलों की राजनीतिक अर्थों में संदिग्ध निस्तब्धता से देश का लोकतांत्रिक माहौल नफरती बयानों से घिर गया है। इस नफरती माहौल के असर में देश एक तरह के सामाजिक युद्ध, अब इसे सिर्फ सांप्रदायिक उन्माद के कारनामे के रूप में चिह्नित करना भूल होगी, का गहरा वातावरण बनता जा रहा है।

यह कभी नहीं भूलना चाहिए कि गैर-कांग्रेसवाद के नारे की चाहत में फासीवाद के किसी भी संस्करण के अपनाव की चाह शामिल नहीं थी। चाह थी समाजवाद के किसी संस्करण की राजनीतिक व्यवस्था की। हालांकि समाजवादियों ने कांग्रेस के विरोध की अपनी राजनीति के तहत राष्ट्रीय स्वयं-सेवक संघ और भारतीय जनता पार्टी को समय-समय पर राजनीतिक वैधता दी, सहयोगी के रूप में स्वीकृति प्रदान की, लेकिन तब उन्हें आज की राजनीतिक स्थिति के उत्पन्न होने का गुमान न रहा होगा। लेकिन आज तो है! समाजवादी राजनीति की एक धारा के सहयोग से ही सरकार चल रही है।

हरियाणा और महाराष्ट्र के चुनाव परिणाम ने भारतीय जनता पार्टी को भीतर से काफी उत्साहित कर दिया होगा। सदैव चुनावी मुद्रा में रहनेवाली भारतीय जनता पार्टी की वर्तमान टीम कभी भी मध्यावधि चुनाव की तरफ की ओर कभी भी हाथ-पैर बढ़ा सकती है। भारतीय जनता पार्टी जिस तरह की उन्मादी राजनीति प्रक्रिया में संलिप्त है, वह राजनीति की सामान्य प्रक्रिया में शामिल मार-बचाव से बिल्कुल भिन्न प्रकार की राजनीति है।

गैर-कांग्रेसवाद की राजनीति के चलते उत्पन्न राजनीतिक माहौल का मुकाबला अब भारत की लोकतांत्रिक राजनीति अब कांग्रेस के साथ मिलकर क्या करती है, देखा जाना चाहिए। लाख टके का सवाल यह भी है कि भारत की गंगा-जमुनी संस्कृति की रक्षा में भारत के प्रगतिशील एवं गंगा-जमुनी संस्कृति के सांस्कृतिक उपादानों का इस्तेमाल किस तरह से किया जाना संभव होता है। यही हिंदू एकता का मतलब भी है और हिंदू एकता के समक्ष राजनीतिक चुनौती भी है। हिंदू एकता का मतलब वह नहीं है जो भारतीय जनता पार्टी बताती है या राष्ट्रीय स्वयं-सेवक संघ जिसे हिंदू-मुसलमान तनाव के माध्यम से निर्धारित करने की कोशिश करता रहता है। हिंदू एकता का मतलब भारत की सहमिलानी एकता और गंगा-जमुनी स्वभाव के पक्ष में खड़े होने से है।

(प्रफुल्ल कोलख्यान स्वतंत्र लेखक और टिप्पणीकार हैं)

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