Friday, April 19, 2024

अन्य पिछड़े वर्ग के लिए बड़ी लड़ाइयां लड़ने वाले पासवान को कभी नहीं मिला पिछड़ों का साथ

1989 के लोकसभा चुनाव के घोषणापत्र में जनता दल ने पिछड़े वर्ग को आरक्षण देने का वादा किया था। सत्ता में आने के बाद विश्वनाथ प्रताप सिंह (वीपी सिंह) ने किसान नेता देवीलाल को मंडल कमीशन की सिफारिशें लागू करने वाली समिति का अध्यक्ष बनाया। देवीलाल आरक्षण के पक्ष में थे, लेकिन जाटों को भी इस सूची में शामिल कराना चाहते थे। ऐसा करने में उन्हें सफलता नहीं मिली तब उन्होंने समिति के काम में रुचि लेनी बंद कर दी और इसकी महज 2 बैठकें हो पाईं।

ऐसे में वीपी सिंह ने सिफारिशें लागू करने की तैयारी करने के लिए तत्कालीन सामाजिक न्याय एवं श्रम मंत्री राम विलास पासवान को चुना। पासवान के नेतृत्व में सामाजिक न्याय मंत्रालय में सचिव रहे तेज तर्रार आईएएस अधिकारी पीएस कृष्णन ने सिफारिशें लागू करने के लिए जमीन तैयार की। वीपी सिंह ने सिफारिशें लागू करने की घोषणा करते हुए 7 अगस्त, 1990 को संसद में डेढ़ पेज के बयान में कहा, “मेरा मानना है कि किसी भी वर्ग का उत्थान सिर्फ आर्थिक सहयोग से नहीं हो सकता। उनका विकास तभी हो सकता है, जब उनके साथ शक्तियां साझा की जाएं। हम शक्तियों में उनका हिस्सा देने को तैयार हैं। नौकरशाही शक्ति के ढांचे में अहम है। यह निर्णय लेने में अहम भूमिका निभाती है। हम चाहते हैं कि देश को चलाने में वंचित और पिछड़े तबकों को जगह मिले।”

ऐसा नहीं है कि सिंह ने आनन फानन में पासवान को यह अहम काम सौंपा था। पासवान की राजनीति समाजवाद से शुरू हुई थी। 20 साल तक वह सड़क पर समाजवाद की लड़ाई लड़कर मंत्री बने थे और अनुभवी सांसद बन चुके थे। वह वंचित तबके के हितों को लेकर कभी समझौता न करने वाले नेता के रूप में स्थापित हो चुके थे। बिहार के खगड़िया जिले के शहरबन्नी गांव में जन्मे पासवान 1969 में संयुक्त सोशलिस्ट पार्टी (संसोपा) के टिकट पर विधायक बने। उसके बाद पासवान ने भारतीय राजनीति में कभी पीछे मुड़कर नहीं देखा। आपातकाल के दौरान जयप्रकाश नारायण आंदोलन (जेपी मूवमेंट) में वह जेल गए। 1977 के लोकसभा चुनाव में सबसे ज्यादा मतों से जीतकर वह संसद पहुंचे। उन्होंने लगातार समाजवाद की अलख जगाए रखा और कर्पूरी ठाकुर ने जब मुंगेरीलाल कमीशन की सिफारिशें लागू कर ओबीसी तबके को आरक्षण दिया, तब वह ठाकुर के साथ जी-जान से खड़े रहे।  

मंडल कमीशन के गठन के बाद आयोग ने सामाजिक व शैक्षणिक रूप से पिछड़े वर्ग के बारे में साक्ष्य जुटाने और लोगों की राय जानने के क्रम में जब पासवान से बात की तो उन्होंने सुझाव दिया कि ओबीसी के लिए निर्धारित मौजूदा प्रतिशत को बढ़ाया जाना चाहिए, जो उस समय 27 प्रतिशत था। साथ ही उन्होंने ज्यादा शैक्षणिक सुविधाएं दिए जाने का पक्ष लिया। उन्होंने कहा कि राज्यों की सूची में तमाम पिछड़ी जातियां छूट गई हैं, उनके दावे की फिर से जांच की जानी चाहिए। वह चाहते थे कि ओबीसी के सामाजिक, आर्थिक व शैक्षणिक आंकड़े समग्र रूप से एकत्र किए जाएं। साथ ही उन्होंने कहा कि अगर किसी अभ्यर्थी के परिवार की सालाना आमदनी 10,00,000 रुपये सालाना से ऊपर है तो उसे आरक्षण का लाभ नहीं दिया जाना चाहिए।

1980 के चुनाव में जब इंदिरा गांधी की आंधी में तमाम दिग्गज धराशायी हो गए तब पासवान दोबारा चुनाव जीतकर संसद में पहुंच गए। वह इंदिरा गांधी सरकार के खिलाफ वंचितों की आवाज बनकर उभरे। संसद में एक बार प्रधानमंत्री इंदिरा गांधी की मौजूदगी में उन्होंने दलित उत्पीड़न का मामला उठाया तो कांग्रेसी सांसद उन पर टूट पड़े। रामविलास ने कहा, “मैं बेलछी में नहीं, भारत की संसद में खड़ा हूं। आप मेरी आवाज नहीं बंद कर सकते।” बिहार के हरनौत विधानसभा क्षेत्र के बेलछी गांव में 11 दलित खेत मजदूरों को बांधकर जिंदा जला दिया गया था, उस घटना का जिक्र सुनते ही संसद में सन्नाटा छा गया। इंदिरा गांधी ने खुद खड़े होकर कहा कि इस मसले पर गृह मंत्री जवाब देंगे।

पासवान अनुसूचित जाति की दुसाध जाति से थे, जिन्होंने किसी भी ओबीसी की तुलना में पिछड़े वर्ग के हितों में सबसे अधिक आवाज बुलंद की। 1982 में संसद में मंडल आयोग पर चल रही बहस के दौरान उन्होंने डॉ बीआर अंबेडकर की तरह भूमिका निभाई और कहा कि हिंदुओं में जातीय पदानुक्रम भयानक बुराई है और यह मनु के कानून के मुताबिक चलता है, इसका खात्मा होना चाहिए।

राम विलास लगातार पिछड़े वर्ग के लिए संघर्ष करते रहे। मंडल कमीशन की सिफारिशें लागू होने के बाद जब मामला उच्चतम न्यायालय में चला गया, तब भी वह सक्रिय रहे। पासवान ने आयोग की सिफारिशें पूर्ण रूप से लागू करने में सरकार को विफल करार दिया। उन्होंने आयोग की कई अन्य सिफारिशों को लागू करने की मांग करते हुए जंतर मंतर पर विरोध प्रदर्शन किया और 8 अगस्त, 1991 को वह गिरफ्तार हो गए।

कांग्रेस के खिलाफ दो अहम गठजोड़ जनता पार्टी और जनता दल के रूप में सामने आए थे। जनता पार्टी में समाजवादियों के साथ धुर दक्षिणपंथी और मनु स्मृति को श्रेष्ठ संविधान मानने वाले आरएसएस से जुड़े लोग शामिल थे। वैचारिक रूप से भी उसका बिखरना तय था और उस गठजोड़ में राम विलास पासवान की कोई अहम भूमिका भी नहीं थी। वहीं जनता दल के गठन के समय पासवान बड़े नेता बन चुके थे, जो संसद में सबसे ताकतवर प्रधानमंत्री इंदिरा गांधी से आंख मिला सकते थे। जनता दल में समाजवादियों के साथ किसान राजनीति करने वाले चरण सिंह और देवीलाल के दलों का एकीकरण हुआ।

जनता दल भी बिखरा। इंडियन नेशनल लोकदल, समाजवादी पार्टी, बीजू जनता दल, समता पार्टी, राष्ट्रीय जनता दल सहित कई टुकड़ों में समाजवाद विभिन्न राज्यों में गिरा। यह मूल रूप से कोई वैचारिक दल नहीं थे, बल्कि जातीय संगठन बने और एक एक जाति के ठेकेदार इन दलों के मुखिया बन गए। इनमें से समाजवादी पार्टी, लोकदल, हरियाणा का इंडियन नेशनल लोकदल, राष्ट्रीय जनता दल, बीजू जनता दल वगैरह क्षेत्रीय ताकत बन गए और समाजवाद का सपना बिखर गया।

सामाजिक न्याय के कथित योद्धा अपनी अपनी जातियों को लेकर सत्ता के योद्धा बन चुके थे। पासवान को पिछड़े वर्ग के जातीय नेताओं ने अलग थलग कर दिया। बिहार के समाजवादी चिंतक प्रेम कुमार मणि ने पुराने दिनों को याद करते हुए लिखा है, “तथाकथित पिछड़े नेताओं ने बार बार उन्हें अपमानित करने की कोशिश की। दलगत मामलों में शरद यादव ने छोटी-छोटी बातों पर उनकी नाक में दम कर रखा था। बिहार की राजनीति के प्रवासी पुरोहित शरद यादव रामविलास जी से नफरत करते थे। वह उनकी हर बात की खिल्ली उड़ाते थे। मैंने खुद शरद जी से यह सब सुना था। मुझे लगता था कि यह बात सीमित दायरे में होगी। लेकिन एक रोज पीड़ा भरे लहजे में रामविलास जी ने मुझे यह बात बताई।”

राम विलास पासवान ने भी अपनी अलग राह निकालने की ठानी। 31 साल तक समाजवादी नेता बने रहे रामविलास पासवान ने ज्योतिबा फुले के जन्मदिन के रोज 28 नवंबर को अपनी अलग लोक जनशक्ति पार्टी (लोजपा) का गठन किया। उसके बाद उन्होंने समाजवादी से अपनी जाति का वोट बैंक बनाकर सत्तावादी बने सभी नेताओं को पछाड़ दिया। कांग्रेस से लेकर भारतीय जनता पार्टी तक हर दल में उनके अच्छे संबंध बने। वह जनता का रुख भांपने वाले सबसे शानदार नेता साबित हुए, जिसके चलते बिहार के समाजवादी नेता लालू प्रसाद मजाक में उन्हें मौसम वैज्ञानिक कहा करते थे। पासवान को यह अहसास हो गया कि कुछ इलाकों तक सिमटी अपनी दुसाध जाति के दम पर राजनीति नहीं कर सकते। उन्होंने अंबेडकर का मार्ग अपनाया और सबके लिए अपने घर के दरवाजे खोल दिए। 

उसके बाद सत्ता किसी की हो, पासवान हमेशा शासन में रहे। उन्होंने निडर होकर लगातार वंचित तबकों की आवाज उठाई। चाहे वह जातीय जनगणना का सवाल हो, चाहे निजी क्षेत्र में आरक्षण देने का मसला हो, पासवान मुखरता से अपनी बात कहते रहे। उन्होंने कभी अपनी कुर्सी की चिंता नहीं की कि सत्तासीन प्रमुख सहयोगी दल यानी भाजपा या कांग्रेस उनसे अपने संबंध खत्म कर लेंगे।

पासवान ने अपनी शर्तों पर भाजपा या कांग्रेस से समझौता किया। सत्ता के पीछे भागने का आरोप उन पर कभी नहीं चिपका। गुजरात नरसंहार के बाद उन्होंने नरेंद्र मोदी के खिलाफ मोर्चा खोल दिया और वह अटल बिहारी वाजपेयी के नेतृत्व वाले राष्ट्रीय जनतांत्रिक गठबंधन से अलग हो गए। लेकिन राजनीतिक मजबूरी कहें या पासवान की नैतिक ताकत, जहां नरेंद्र मोदी ने अपने दल के तमाम दिग्गज विरोधियों को घुटने पर ला दिया, पासवान को वह अंत तक अपने मंत्रिमंडल में रखने को मजबूर रहे।

(सत्येंद्र पीएस आजकल बिजनेस स्टैंडर्ड में वरिष्ठ पद पर कार्यरत हैं।) 

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