Thursday, April 18, 2024

पुण्य तिथिः हवा में रहेगी मेरे ख्याल की बिजली…

जंग-ए-आज़ादी में निर्णायक मोड़ देने वाले शहीद-ए-आजम भगत सिंह की 23 मार्च को 89वीं पुण्यतिथि है। 23 मार्च, 1931 को बरतानिया हुकूमत ने सरकार के खिलाफ क्रांति का बिगुल फूंकने के इल्जाम में उन्हें फांसी की सजा सुनाई थी। सजा पर वे जरा से भी विचलित नहीं हुए और हंसते-हंसते फांसी के तख्ते पर चढ़ गए।

महज साढ़े तेईस साल की छोटी सी उम्र में शहादत के लिए फांसी का फंदा हंसकर चूमने वाले, क्रांतिकारी भगत सिंह की पैदाइश 28 सितम्बर 1907 को अविभाजित भारत के लायलपुर बंगा में हुई थी। शहीदे आज़म भगत सिंह भारत ही नहीं, बल्कि समूचे भारतीय उपमहाद्वीप की साझा विरासत के क्रांतिकारी प्रतीक हैं। भगत सिंह बचपन से ही क्रांतिकारी गतिविधियों में शामिल होने लगे थे। वे जिस परिवार में पैदा हुए, उसका माहौल ही कुछ ऐसा था कि उन्हें क्रांतिकारी बनना ही था।

उनके दादा अर्जुन सिंह आर्य समाजी थे और दो चाचा स्वर्ण सिंह और अजित सिंह स्वाधीनता संग्राम में अपना जीवन समर्पित कर चुके थे। यही नहीं उनके पिता किशन सिंह कांग्रेस पार्टी के सक्रिय कार्यकर्ता थे। यानी भगत सिंह के अंदर बचपन में जो संस्कार आए, उसमें उनके पूरे परिवार का बड़ा योगदान है। पारिवारिक संस्कारों के अलावा उनमें गदर पार्टी के क्रांतिकारी आंदोलन के प्रति गहरा आकर्षण था। खास तौर पर शहीद कर्तार सिंह सराभा उनके आदर्श थे। उनका फोटो वे हमेशा अपनी जेब में रखते थे।

भगत सिंह को बचपन से पढ़ने-लिखने का जुनूनी शौक था। साल 1924 में जब उन्होंने लिखना शुरू किया, तब उनकी उम्र महज सत्रह साल थी। ‘प्रताप’ (कानपुर), ‘महरारथी’ (दिल्ली), ‘चांद’ (इलाहाबाद), ‘वीर अर्जुन’ (दिल्ली) आदि समाचार पत्रों और पंजाबी पत्रिका ‘किरती’ में उनके कई लेख प्रकाशित हुए। हिंदी, पंजाबी, उर्दू और अंग्रेजी चारों भाषाओं पर उनका समान अधिकार था। छोटी सी ही उम्र में उन्होंने खूब पढ़ा। दुनिया को करीब से देखा, समझा और व्यवस्था बदलने के लिए जी भरकर कोशिशें कीं।

अंग्रेज सरकार के ‘पब्लिक सेफ्टी बिल’ और ‘ट्रेड डिस्प्यूट्स बिल’ के खिलाफ उन्होंने आठ अप्रैल, 1929 को केंद्रीय असेम्बली में बम फेंककर, अपनी गिरफ्तारी दी। बम फेंकने का मकसद किसी को घायल या मारना नहीं था, बल्कि बहरी अंग्रेज हुकूमत के कान खोलना था।

जेल जीवन के अपने दो वर्षों में भगत सिंह ने खूब अध्ययन, मनन, चिंतन और लेखन किया। जेल के अंदर से ही उन्होंने क्रांतिकारी आंदोलन को बचाए रखा और उसे विचारधारात्मक स्पष्टता प्रदान की। भगत सिंह सिर्फ जोशीले नौजवान नहीं थे, जो कि जोश में आकर अपने वतन पर मर मिटे थे। उनके दिल में देश भक्ति के जज्बे के साथ एक सपना था। भावी भारत की एक तस्वीर थी, जिसे साकार करने के लिए ही उन्होंने अपना सर्वस्वः देश पर न्यौछावर कर दिया।

वे सिर्फ क्रांतिकारी ही नहीं बल्कि युगदृष्टा, स्वप्नदर्शी, विचारक भी थे। वैज्ञानिक ऐतिहासिक दृष्टिकोण से सामाजिक समस्याओं के विष्लेषण की उनमें अद्भुत क्षमता थी।

भगत सिंह ने कहा था,‘‘मेहनतकश जनता को आने वाली आज़ादी में कोई राहत नहीं मिलेगी।’’ उनकी भविष्यवाणी अक्षरशः सच साबित हुई। आज देश में प्रतिक्रियावादी शक्तियों की ताकत बढ़ी है। पूंजीवाद, बाज़ारवाद, साम्राज्यवाद के नापाक गठबंधन ने सारी दुनिया को अपनी आगोश में ले लिया है। अपने ही देश में हम आज दुष्कर परिस्थितियों में जी रहे हैं। चहुं ओर समस्याएं ही समस्याएं हैं। समाधान नज़र नहीं आ रहा है।

ऐसे माहौल में भगत सिंह के फांसी पर चढ़ने से कुछ समय पूर्व के विचार याद आते हैं, ‘‘जब गतिरोध की स्थिति लोगों को अपने शिकंजे में जकड़ लेती है, तो किसी भी प्रकार की तब्दीली से वह हिचकिचाते हैं, इस जड़ता और निष्क्रियता को तोड़ने के लिए एक क्रांतिकारी स्प्रिट पैदा करने की जरूरत होती है। अन्यथा पतन और बर्बादी का वातावरण छा जाता है।

लोगों को गुमराह करने वाली प्रतिक्रियावादी शक्तियां जनता को गलत रास्ते में ले जाने में सफल हो जाती हैं। इससे इनसान की प्रगति रुक जाती है और उसमें गतिरोध आ जाता है। इस परिस्थिति को बदलने के लिए यह ज़रूरी है कि क्रांति की स्प्रिट ताज़ा की जाए। ताकि इंसानियत की रूह में एक हरकत पैदा हो।’’ अफसोस, आज़ादी मिलने के बाद नई पीढ़ी में क्रांति की वह स्प्रिट उतरोत्तर कम होती गई। जिसके परिणामस्वरूप आज हमें कई समस्याओं का सामना करना पड़ रहा है।

स्वतंत्र भारत में बढ़ते सांप्रदायिक रूझान और प्रतिक्रियावादी शक्तियों के उभार ने उनकी चिंताओं को सही साबित किया। देश में बढ़ती सांप्रदायिककता और जातिवाद से लड़ने के लिए आज भी हमें भगत सिंह की विचार कारगर लगते हैं, ‘‘सांप्रदायिक वहम और पूर्वाग्रह हमारी प्रगति के रास्ते में बड़ी रुकावट हैं। हमें इन्हें दूर फेंक देना चाहिए।’’

हालिया सालों में साम्राज्यवाद का नंगा नाच सारी दुनिया ने देखा है। अफगानिस्तान, इराक, सीरिया समेत कई देश अमेरिकी साम्राज्यवाद के शिकार हुए हैं। भगत सिंह ने साम्राज्यवाद और साम्राज्यवादियों के इरादे पूर्व में ही भांप लिए थे।

लाहौर साजिश केस में विशेष ट्रिब्यूनल के सामने साम्राज्यवाद पर अपने बयान में भगत सिंह ने कहा था, ‘‘साम्राज्यवाद मनुष्य के हाथों मनुष्य के और राष्ट्र के हाथों राष्ट्र के शोषण का चरम है। साम्राज्यवादी अपने हितों और लूटने की योजनाओं को पूरा करने के लिए न सिर्फ न्यायालयों एवं कानूनों को क़त्ल करते हैं, बल्कि भयंकर हत्याकाण्ड भी आयोजित करते हैं।

अपने शोषण को पूरा करने के लिए जंग जैसे खौफनाक अपराध भी करते है। जहां कई लोग उनकी नादिरशाही शोषणकारी मांगों को स्वीकार न करें या चुपचाप उनकी ध्वस्त कर देने वाली और घृणा योग्य साजिशो को मानने से इनकार कर दें, तो वह निरअपराधियों को खून बहाने में संकोच नहीं करते। शांति व्यवस्था की आड़ में वे शांति व्यवस्था भंग करते हैं।’’

पराधीन भारत में अंग्रेजी साम्राज्यवाद के खिलाफ भगत सिंह द्वारा उस समय दिया गया यह बयान, मौजूदा वैश्विक परिस्थितियों में भी प्रासंगिक जान पड़ता है। अफगानिस्तान और इराक में लोकतंत्र की स्थापना के नाम पर अमरीका ने जो किया वह किसी से छिपा नहीं। विश्व की सर्वोच्च न्यायिक संस्था संयुक्त राष्ट्र संघ और आर्थिक संस्थाओं मसलन विश्व बैंक, अन्तर्राष्ट्रीय मुद्रा कोष, विश्व व्यापार संघ का इस्तेमाल अमरीका अपने साम्राज्यवादी हितों को पूरा करने के लिए कर रहा है।

मौजूदा परिस्थितियां खुद भगत सिंह की बात को हू-ब-हू सच साबित करती हैं। भगत सिंह साम्राज्यवाद, उपनिवेशवाद के घोर विरोधी थे। सच मायने में वे भारत में समाजवादी व्यवस्था कायम करना चाहते थे।

भगत सिंह की सारी जिंदगानी पर यदि हम गौर करें, तो उनकी ज़िंदगी के आखिरी चार साल क्रांतिकारिता के थे। इन चार सालों में भी, उन्होंने अपने दो साल जेल में बिताए, लेकिन इन चार सालों में उन्होंने एक सदी का सफर तय किया। क्रांति की नई परिभाषा दी। अंग्रजी हुकूमत, नौजवानों में भगत सिंह की बढ़ती लोकप्रियता और क्रांतिकारी छवि से परेशान थी। लिहाजा अवाम में बदनाम करने के लिए भगत सिंह को आतंकवादी तक साबित करने की कोशिश की गई। मगर क्रांति के बारे में खुद, भगत सिंह के विचार कुछ और थे।

वे कहते थे,‘‘क्रांति के लिए खूनी संघर्ष अनिवार्य नहीं है और न ही उसमें व्यक्तिगत प्रतिहिंसा को कोई स्थान है। वह बम और पिस्तौल की संस्कृति नहीं है। क्रांति से हमारा अभिप्राय यह है कि वर्तमान व्यवस्था जो खुले तौर पर अन्याय पर टिकी हुई है, बदलनी चाहिए।’’

भगत सिंह ने क्रांति शब्द की व्याख्या करते हुए कहा था, ‘‘क्रांति से हमारा अभिप्राय अन्ततः एक ऐसी सामाजिक व्यवस्था से है, जिसको इस प्रकार के घातक हमलों का सामना न करना पड़े और जिसमें सर्वहारा वर्ग की प्रभुसत्ता को मान्यता हो।’’ यानी भगत सिंह हक़, इंसाफ की लड़ाई में हिंसा को जायज नहीं मानते थे। उनकी लड़ाई सिर्फ व्यवस्था से थी। समाज में सर्वहारा वर्ग काबिज हो, यही उनकी ज़िंदगी का आखिरी मक़सद था।

भगत सिंह आज भले ही हमारे बीच नहीं हैं, लेकिन उनके विचार हमें नई क्रांति की राह दिखलाते हैं। जिंदगी के जानिब भगत सिंह की सोच हमेशा सकारात्मक रही। खुद उन्हीं के अल्फाजों में, ‘‘हवा में रहेगी मेरे विचार की बिजली, ये मुश्ते खाक है फानी रहे ना रहे।’’

जाहिद खान

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