Friday, March 29, 2024

‘हिज मास्टर्स वॉयस’ में बदल गया भागवत का संबोधन

यह सच है कि मोहन भागवत के विजया दशमी के कर्मकांडी भाषण का संघ के एक पूर्व कट्टरतावादी प्रचारक की सरकार के काल में भी कोई विशेष सांस्थानिक मायने नहीं है। यह किसी पिटे हुए मोहरे की जोर आजमाइश के प्रहसनमूलक प्रदर्शन से ज्यादा अर्थ नहीं रखता है, लेकिन फिर भी महज यह जानने के लिए कि राजा के इशारों पर चलने वाले पुतले भी जब अपने खुद के अंदरखाने में होते हैं, तब उनके आचरण में उनकी एक मानव प्राणी की स्वतंत्र हैसियत किस हद तक जाहिर हो सकती है, हमने इस बार फिर एक बार उनके विजया दशमी के संबोधन को बहुत ध्यान से सुना।

हमारा विश्वास है कि हर आदमी का अपना एक आलोचनात्मक विवेक होता है, जिसमें वह अपने निजी क्षण में अपनी स्वतंत्र हैसियत के साथ कायम रहता है। पर सचमुच, इस बार तो भागवत ने हमें कुछ अतिरिक्त ही हताश किया। यह पता चला कि विजया दशमी का कार्यक्रम भी संघ के बजाय सत्ता का कार्यक्रम भर रह गया है। सत्ता की अनुकूलन की ताकत को हम जानते हैं, पर वह कथित तौर पर एक इतने विशाल अंतरराष्ट्रीय स्तर तक फैले संजाल वाले संगठन के सर्वशक्तिमान मुखिया को अपने मोहपाश में इस कदर अवश करके ‘हिज मास्टर्स वॉयस’ में बदल देगा, यह देखना बहुत पीड़ादायी था।

इस बार के मोहन भागवत के भाषण से हमारी कुछ अपेक्षाएं बेवजह नहीं थीं। हमारा देश अभी जिस संकट के दौर से गुजर रहा है, वह अभूतपूर्व है। सब लोग जानते हैं कि भारत के इस संकट के मूल में सिर्फ कोरोना का वैश्विक संकट नहीं है, बल्कि इसमें एक बहुत बड़ी भूमिका वर्तमान सरकार के नेतृत्व की आर्थिक-सामाजिक-राजनीतिक मामलों में चरम अज्ञता और अकर्मण्यता की भी है। आज जो अर्थ-व्यवस्था विकास के बजाय संकुचन के अकल्पनीय तीव्र भंवर में फंस कर पता नहीं किस अतल में डूबती चली जा रही है, उसे इस ढलान की ओर धक्का और किसी ने नहीं, खुद मोदी ने अपने नोटबंदी के कदम से दिया था और फिर जीएसटी, दूसरी फिजूलखर्चियों तथा बैंकों के जरिए अपने मित्रों के बीच पैसे लुटाने के भ्रष्टाचार ने इसे फिर कभी उबरने ही नहीं दिया।

अन्यथा सच तो यही है कि जब मोदी सत्ता में आए थे, भारत की अर्थ-व्यवस्था दुनिया की एक सबसे तेज गति से विकसित हो रही अर्थ-व्यवस्था थी। पर मोदी के काल के साल-दो साल के अंदर ही इसकी अवनति की यात्रा शुरू हो गई। मार्च 2020 में कोरोना के आगमन के पहले ही 2019-20 के जीडीपी और आयकर संग्रह के आंकड़े इस कहानी को बताने के लिए काफी हैं। कोरोना ने तो जैसे पहले से बुरी तरह से कोमोर्बिडिटी की शिकार अर्थव्यवस्था को एक प्राणघाती कोमा में डाल दिया है। कोरोना के दौरान भी लॉकडाउन संबंधी अविवेकपूर्ण फैसलों ने इसकी बीमारी को कई गुना बढ़ा दिया। इसे जीडीपी आदि के अंतिम तमाम आंकड़ों से देखा जा सकता है।

इसी हफ्ते आरबीआई की मुद्रा संबंधी कमेटी की बैठक ने जीडीपी में तेज गिरावट से उत्पन्न परिस्थिति पर टिप्पणी करते हुए कहा है कि हमारी अर्थ-व्यवस्था आगे कितने सालों में इस संकट से बाहर आएगी, इसका अभी कोई अनुमान भी नहीं लगाया जा सकता है।

कोरोना से मुकाबले के लिए सरकार ने जिस प्रकार घंटा बजवाया, दीया जलवाया और तमाम प्रकार के टोनों-टोटकों को बढ़ावा दिया, वह भी किसी से छिपा नहीं है। कोरोना के मामले में इस सरकार के पास कोई सुचिंतित नीति ही नहीं है, इसे वैक्सीन संबंधी इसकी सारी अटकलपच्चियों में भी देखा जा सकता है। इस मामले में मोदी दुनिया के पैमाने पर ट्रंप के स्तर के बेसिर-पैर की बातें करने वाले नेताओं की कतार में खड़े दिखाई देते हैं।

मोदी सरकार की विफलताओं का यह वह डरावना परिदृश्य है, जिसमें इस बार का भागवत का विजयादशमी का भाषण हुआ था। इस परिस्थिति को वे किस प्रकार लेते हैं, इसके प्रति उनका स्वतंत्र विवेक भी कुछ है अथवा नहीं, इसे जानने के लिए ही उनके भाषण के प्रति हमारा किंचित आकर्षण पैदा हुआ था, लेकिन कुल मिला कर उन्होंने अपने इस भाषण में जिस प्रकार शुद्ध रूप से एक कमजोर राजा के चारण की तरह का परिचय दिया, वह आरएसएस नामक संगठन पर व्याप चुकी परम जड़ता के परिचय के अलावा और कुछ नहीं कहलाएगा। उनकी सारी बातों का लब्बो-लुबाब यही था कि जैसे यह मुख्यतः सरकार और और किंचित प्रकृति-निर्मित वर्तमान महासंकट ही हमारे जैसे देश के लोगों के लिए किसी महा-वरदान की तरह हैं, मोदी का- ‘संकट का अवसर’!

भागवत को न आम आदमी के जीवन में बेरोजगारी, कंगाली और अनिश्चयता के बादल का कोई दुख है और न इनके निदान पर गंभीरता से विचार की जरूरत का अहसास। अपने भाषण में वे इतना सा कह कर निश्चिंत हो गए कि हमारे पास इतने महान तमाम अर्थनीतिविद् हैं कि वे हर संकट में हमारी डूबती नैया को पार लगा देंगे! मोदी की तरह ही उन्होंने अपने मन से अर्थ-व्यवस्था में कोई मंदी न होने का तर्क गढ़ते हुए यह झूठा आंकड़ा भी दोहरा दिया कि ‘जब हमारी विकास की दर पांच प्रतिशत है, तब मंदी का कोई सवाल ही कहां पैदा होता है’! जब सारी दुनिया भारत में विकास की नहीं संकुचन की दर की बात कह रही है, सब की एक राय है कि भारत में जीडीपी कम से कम 10 प्रतिशत की दर से कम होगी, अर्थात् जीडीपी की दर माइनस 10 प्रतिशत होगी, तब भागवत परम संतुष्टि का भाव जाहिर कर रहे थे।

इसी प्रकार, भारत की सीमाओं की रक्षा में सरकार की विफलताओं को छिपाने में भी भागवत ने कोई कोर-कसर नहीं छोड़ी। आज जब पूरे कश्मीर में धारा 370 को खत्म करने के परिणाम स्वरूप जनतंत्र के अंत की त्रासदी सबके सामने है, तब भी भागवत धारा 370 के संघ के पुराने मुद्दे की दुहाई देते हुए इस विवेकहीन कदम की सराहना कर रहे थे। सारे देश को उत्तेजित कर देने वाले नागरिकता संबंधी कानून पर भागवत ने कहा कि उस पर कोई पुनर्विचार किया जाता, उसके पहले ही कोरोना ने सारे राजनीतिक विमर्शों को ताख पर रख दिया।

राम मंदिर के सवाल पर उन्होंने कानून-सम्मत रास्ता अपनाए जाने की दुहाई दी, लेकिन क्षण भर के लिए भी यह नहीं सोचा कि इसे ‘कानून-सम्मत’ बनाने के लिए अब तक भारत की न्यायपालिका के साथ कितने भद्दे मजाक किए जा चुके हैं। किस प्रकार तमाम प्रकार के बेजा दबावों से सरकार ने भारत की पूरी न्यायपालिका को मुट्ठी में बंद करके पूरी न्याय प्रणाली को इस हद तक विकृत कर दिया था कि सुप्रीम कोर्ट ने भी बिल्कुल बेतुके ढंग से धर्म-निरपेक्षता से अभिन्न रूप में जुड़े संविधान के मूलभूत ढांचे को ही नुकसान पहुंचाने में कोई हिचक नहीं महसूस की। आज एक नहीं, ऐसे अनेक मामलों में न्यायपालिका नागरिकों के खिलाफ नग्न रूप में शासकों के हितों को साध कर एक जनतांत्रिक देश की न्यायपालिका से अपेक्षित नैतिकता के मामले में बार-बार निराश कर रही है।

भागवत ने अपने भाषण में कई जगह भारत के प्रजातंत्र का जिक्र किया, राष्ट्र और समाज की एकता की बातें भी कीं, लेकिन उन्हें वास्तव में यदि इन चीजों की कोई चिंता होती तो वे मोदी सरकार की चरम अराजक, एकाधिकारवादी नीतियों और इसके निकम्मेपन के प्रति इस प्रकार चुप्पी नहीं साधे रहते।

इसीलिए अंत में हम फिर कहेंगे कि भागवत ने सत्ता के सुखों के एवज में राष्ट्र के प्रति अपनी खुली बेवफाई का परिचय देकर सचमुच बेहद निराश किया। जनता तो तमाम प्रकार के चुनावी और गैर-चुनावी संघर्षों के जरिये अपनी चरम निराशा को जाहिर कर ही रही है।

(अरुण माहेश्वरी लेखक, चिंतक और स्तंभकार हैं। आप आजकल कोलकाता में रहते हैं।)   

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