Friday, April 19, 2024

बहुजन आंदोलन को ले डूबेगा भक्तिकाल

तीन दिन पहले कांग्रेस की नेता अलका लांबा का एक सवाल बीएसपी सुप्रीमो को अपरोक्ष रूप में तंजिया ढंग से आता है। स्वाभाविक रूप से इसकी प्रतिक्रिया राजनीतिक ढंग से नहीं आती है। मुद्दा था कांग्रेस द्वारा प्रस्तावित एक हज़ार बसों का जिसके जरिये पैदल जा रहे मजदूरों को उनके गतंव्य तक पहुंचाने का जिसे उत्तर प्रदेश की योगी सरकार ने येनकेन प्रकारेण अटका के रख दिया।

पिसे जा रहे मज़दूरों और उनके परिवारों को ही इसका सबसे ज्यादा खामियाजा भुगतना पड़ा। इससे एक बात तो साफ हो गयी कि योगी सरकार न केवल क्रूरता कर रही है बल्कि मानवता के नाम पर घोर अपराध भी कर रही है। इसी संदर्भ में माया की धनी शब्द कह कर आरोप अलका लांबा ने लगाए कि वो क्या कर रही हैं आदि-आदि?

अब आते हैं मुख्य मुद्दे पर। अलका लांबा ने जो भी आरोप मायावती पर लगाए, इसके पहले मायावती ने राहुल गांधी पर भी आरोप लगाए थे। क्या आरोप थे, क्या क्या बयान बाजी हुईं, वह सब दर्ज़ है जो गूगल पर सर्च करने से मिल जाएंगे।

अब शुरू होता है इमोशनल ड्रामा! वह यह कि मायावती हमारी बहन हैं, हमारी बुआ हैं, बहुत अनुभवी हैं, सीनियर हैं, उन्हें कोई कैसे इस तरह से बोल सकता है। अलका लांबा को माफी मांगनी चाहिए आदि इत्यादि। इस पूरे ड्रामे में हमारे बहुजन मज़दूर एक सिरे से गायब हो गए। निकम्मी केंद्र और राज्य सरकारों से सवाल गायब हो गए। यह बहुत अनैतिक समय हम देख पा रहे हैं। बहुजन समाज का आंदोलन चुनाव केंद्रित होता गया है। सामाजिक और राजनीतिक चिंतन प्रक्रिया एक सिरे से गायब हो गई है।

उत्तर प्रदेश के आगामी चुनावों के संभावित समीकरणों को ध्यान में रखते हुए बोल बचन शुरू होते हैं और अपने समाज के श्रमिकों को केवल चुनावी समीकरण तक सीमित कर देना कम से कम बहुजन संगठनों के नेताओं को तो कतई नहीं करना चाहिए था, बल्कि सरकारों को कठघरे में खड़ा करना चाहिए था। दुर्भाग्य है कि भक्तिकाल का असर न केवल सत्ता पक्ष पर है, बल्कि विपक्षी पार्टियों में भी देखने को मिल रहा है।

आप इसलिये नहीं बच सकते हैं कि आप कितने महान थे, आप किसके रिश्तेदार हैं। आप उस महान वैचारिक परंपरा को ही कुचल रहे हैं, जिन्होंने कभी कहा था कि किसी भी बात को इसलिए मत मानो कि यह महान ग्रंथों में लिखा हुआ है, इसलिए भी मत मानो कि उसे बहुत लोग मानते हैं, बल्कि तर्क की कसौटी पर जांचो, परखो तब मानो, जिन्होंने बहुजन हिताय बहुजन सुखाय का सिद्धान्त दिया था।

यदि मायावती किसी पार्टी की सुप्रीमो हैं तो क्या उनसे सिर्फ इसलिए सवाल नहीं पूछे जाने चाहिए कि वह बहुत सीनियर हैं, यह बहुत बचकानी बात है। वो एक समाज के प्रतिनिधित्व का दावा करती हैं, यदि उसके प्रति अपने दायित्व को निभा नहीं पाती हैं तो सवाल तो पूछे ही जाएंगे। हो सकता है अलका लांबा ने राजनीतिक मकसद के लिए कुछ सवाल किए हों, तो एक बात समझ लेनी चाहिए कि कोई भी अपनी राजनीतिक लाइन के हिसाब से ही राजनीति करता है अगर नहीं करता है तो फिर वह नेता कैसे हो सकता है? मुझे लगता है कि बहुजन नेताओं को अपने समाज के पक्ष में राजनीति तो करनी ही चाहिये। अच्छा होता कि विपक्ष के नाते भी मज़दूरों को तत्काल राहत देने के नाते भी वर्तमान सरकार की नाकामियों को उजागर करते हुए साझा प्रयास करते।

बहुजन नेताओं, बहुजन कार्यकर्ताओं और समर्थकों को भक्तिकाल से बाहर आना होगा। ऐसा नहीं करने पर आप बहुजन समाज का भला तो कतई नहीं कर पाएंगे, उलटे अपने समाज को प्लेट में सजाकर मनुवादियों के चरणों में जरूर समर्पित कर देंगे।

(हिम्मत सिंह बहुजन कम्यूनिस्ट पार्टी के नेता हैं।)

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