दलितों-आदिवासियों की एकता को खंडित करने में लगी है भाजपा

Estimated read time 1 min read

नई दिल्ली। हाल ही में AIPF द्वारा दिल्ली में आयोजित सम्मेलन दलितों और आदिवासियों की सामाजिक राजनीतिक एकता के गंभीर निहितार्थ पर केंद्रित किया गया और उसे छिन्न भिन्न करने की कॉरपोरेट हिंदुत्व गठजोड़ की कोशिशों का पर्दाफाश किया गया।

सम्मेलन में पेश प्रस्ताव में कहा गया है कि “देश के सामने दो बड़ी चुनौती कॉरपोरेट और हिंदुत्व या कहिए कॉरपोरेट-हिंदुत्व गठजोड़ की राजनीति और वैचारिकता है।

यह गठजोड़ अनुसूचित जाति-अनुसूचित जनजाति की राजनीतिक एकता और सामाजिक न्याय पर भी प्रहार कर रहा है, जिसे परास्त करना देश हित में सर्वाधिक महत्व का है।”

दरअसल इस सम्मेलन का आयोजन सुप्रीम कोर्ट द्वारा SC-ST समुदाय में उपवर्गीकरण की पृष्ठभूमि में किया गया था, जिसका इस्तेमाल भाजपा इनके बीच विभाजन पैदा करने और एक दूसरे के खिलाफ खड़ा करने के लिए कर रही है। राजनीतिक विश्लेषकों का मानना है कि हरियाणा और महाराष्ट्र चुनाव में भाजपा ने इससे लाभ उठाया है।

सम्मेलन के प्रस्ताव में कहा गया है कि सम्मेलन का मकसद है कि अथक प्रयास के बाद साहू जी महाराज, ज्योतिबा फूले और डॉक्टर अम्बेडकर परम्परा ने समाज के इन तबकों के बीच में जो वैचारिक राजनीतिक एकता कायम की, सुप्रीम कोर्ट के इस फैसले से खंडित नहीं होनी चाहिए।”

सम्मेलन में पेश प्रस्ताव में डॉ. अंबेडकर के हवाले से यह बताया गया है कि उनके लिए दलितों की एकता कितनी महत्वपूर्ण थी, “डॉ. अम्बेडकर अनुसूचित जाति में शैक्षिक व सामाजिक विषमता (हैट्रोजेनेटी) या असमानता को नहीं जानते थे”।

“यहां मैं जोर देना चाहता हूं कि अछूत जिन्हें बाद में अनुसूचित जाति का दर्जा दिया गया, को डॉक्टर अंबेडकर एक समग्र समरूप (होमोजेनियस) ईकाई के बतौर संगठित करना चाहते थे, जो लोकतांत्रिक नागरिक समाज का आधार बने और जिस पर लोकतांत्रिक, संप्रभु भारतीय गणराज्य का निर्माण हो सके”।

“डॉक्टर अंबेडकर ने गहराई से यह देखा था कि भारतीय समाज श्रेणीबद्ध असमानता (ग्रेडेड इन इक्वलिटी) पर आधारित है और इसका विस्तार उन्होंने अनुसूचित जाति में भी माना था। लेकिन डॉक्टर अंबेडकर का मत था कि उनके बीच में जो असमानता है उसके पारस्परिक संबंध का आधार आर्थिक शोषण नहीं है।”

प्रस्ताव में इस बात को भी नोट किया गया है कि डॉ. अंबेडकर के लिए दलितों की सामाजिक राजनीतिक एकता के साथ ही उनके आर्थिक व शैक्षणिक सशक्तिकरण का मुद्दा भी बेहद अहम था। आज जो पहचान की राजनीति हो रही है उसमें ये सवाल गायब हो गए हैं।

इस संबंध में प्रस्ताव में कहा गया है, “यहां यह स्पष्ट होना चाहिए कि डाक्टर अम्बेडकर ने दो बिंदुओं पर बड़ा जोर दिया था। एक सामाजिक अधिकारिता और दूसरा आर्थिक व शैक्षिक रूप से अनुसूचित जातियों को सबल बनाना। आरक्षण ने अनुसूचित जातियों को ताकत दी है लेकिन उनके शैक्षिक और आर्थिक प्रश्नों पर पर्याप्त ध्यान नहीं दिया गया।

जब हम 2024-25 के बजट में एससी-एसटी के विकास के लिए सब प्लान बजट को देखते हैं, तो अनुसूचित जाति के लिए 165492.72 करोड़ रुपया और अनुसूचित जनजाति के लिए 124908.96 करोड़ रुपया आवंटित किया गया है।

इस धन का बड़ा भाग नेशनल हाईवे, टेलीकॉम इंडस्ट्री, सेमीकंडक्टर, यूरिया, खाद, जल जीवन मिशन जैसी योजनाओं में खर्च किया गया है।

जबकि अनुसूचित जाति के शिक्षा मद पर महज 18121.54 करोड़ और अनुसूचित जनजाति के लोगों की शिक्षा के लिए महज 9831 करोड़ रुपया दिया गया है।

मनरेगा के बजट को वित्तीय वर्ष 2022-23 में वास्तविक खर्च की तुलना में काफी घटा दिया है। जहां वर्ष 2022-23 में अनुसूचित जाति के लिए मनरेगा बजट 12250 करोड़ था, वहीं मौजूदा वित्तीय बजट में महज 11000 करोड़ आवंटित हुआ है।

ऐसे ही अनुसूचित जनजाति के लिए मनरेगा का 2022-23 का वास्तविक बजट 11291.99 करोड़ था जिसे घटाकर 10000 करोड़ कर दिया गया है। यहां तक कि सार्वजनिक राशन वितरण के बजट में भी कटौती की गई है।

2022-23 के वास्तविक खर्च का बजट अनुसूचित जाति का 24488.51 करोड़ था, जिसे इस बार घटाकर 18742.80 करोड़ कर दिया गया है।

ऐसे ही अनुसूचित जनजाति के सार्वजनिक राशन वितरण का बजट 2022-23 में 12756.53 करोड़ था, जिसे घटाकर इस बार 10969.80 करोड़ कर दिया गया है।

यहां यह स्पष्ट है कि जब तक अनुसूचित जातियों की शैक्षिक और आर्थिक परिस्थिति में बड़े बदलाव के लिए कदम नहीं उठाए जाते तो महज उपवर्गीकरण से उनके प्रतिनिधितत्व का सवाल हल नहीं होगा।

यही वजह है कि अनुसूचित जाति और अनुसूचित जनजाति के पद एनएफएस घोषित कर खाली रह जाते हैं। आरक्षण का लाभ प्राप्त करने के लिए यह भी अनिवार्य है कि इस समुदाय के लोगों के लिए गुणवत्तापूर्ण शिक्षा सुनिश्चित हो।

इसके लिए सरकारी स्कूलों, कालेजों और विश्वविद्यालयों के बड़े पैमाने पर खोलने की मांग होनी चाहिए। इसके साथ ही सरकारी व सार्वजनिक क्षेत्र में पर्याप्त रोजगार के अवसर मुहैया कराए जाएं।”

सम्मेलन में क्रीमीलेयर की बात को अवांछित माना गया। प्रस्ताव में कहा गया है कि, “पंजाब और अन्य बनाम देवेंदर सिंह और अन्य पर आए 1 अगस्त 2024 के सुप्रीम कोर्ट के फैसले में जो चर्चा क्रीमीलेयर को लेकर उठाई गई है, वह उस मुकदमे का विषय नहीं था।

फिर भी उस पर चर्चा की गई और बड़े उत्साह के साथ बेंच के कुछ एक सदस्यों ने समर्थन किया। हालांकि यह सुप्रीम कोर्ट के निर्णय और आदेश का हिस्सा नहीं है।

आरक्षण की पूरी अवधारणा का आधार शैक्षिक और सामाजिक है जबकि क्रीमीलेयर का मूल आधार आर्थिक बन जाता है।

आर्थिक आधार पर किसी भी प्रकार का आरक्षण संविधान के मूल भाव से भटकाव है। इस तथ्य को नजरंदाज नहीं किया जाना चाहिए कि पिछड़े व दलित वर्ग में किसी एक तबके की संपन्नता पूरी जाति को संपन्न नहीं बनाती और पूरी जाति को आरक्षण के दायरे से बाहर कर देना न्यायसंगत नहीं होगा।

यहां यह भी नोट किया जाना चाहिए कि क्रीमीलेयर के निर्धारण में कृषि और सरकारी व सार्वजनिक क्षेत्र में लगे लोगों की आय क्रीमीलेयर का आधार नहीं बनता है।

मूलतः क्लास वन के अधिकारी और क्लास टू में पति-पत्नी दोनों हों तो ही वे क्रीमीलेयर के दायरे में आते हैं। आरक्षण और क्रीमीलेयर के संदर्भ में प्रोफेसर थोरट और सामाजिक चिंतक आनंद तेलतुंबडे के विचारों पर समग्रता में बातचीत होनी चाहिए”।
  
सम्मेलन में संघ भाजपा द्वारा अनुसूचित जातियों की एकता को विखंडित करने की साजिशों को खास तौर से निशाने पर लिया गया है “कॉरपोरेट-हिंदुत्व गठजोड़ के निशाने पर न केवल मजदूर, किसान, पर्यावरण रक्षा जैसे आंदोलन हैं बल्कि संगठित राजनीतिक सामाजिक ताकतें भी हैं”।

“यहां मेरा संदर्भ दलितों के बीच से उभरी वे राजनीतिक सामाजिक शक्तियां हैं, जिनके अलगाव और विखंडन में राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ-भारतीय जनता पार्टी की सरकार लगी हुई है”।

“जाटव-चमार, महार, माला, रामदसिया जैसी डॉक्टर अंबेडकर के विचारों पर संगठित जातियों के बरक्स अनुसूचित जाति की अन्य जातियों को खड़ा किया जा रहा है। इससे सचेत रहने की जरूरत है।” 

जहां तक अनुसूचित जनजाति की बात है, प्रस्ताव में नोट किया गया है कि, “कॉरपोरेट-हिंदुत्व गठजोड़ लूट और दमन के अलावा आदिवासियों की स्वतंत्र पहचान को समाप्त करने में लगा हुआ है।

यहां हिन्दू बनाम क्रिश्चियन, हिन्दू बनाम मुस्लिम, देशी बनाम विदेशी के नाम पर उनके बीच संघर्ष तेज किया जा रहा है। मणिपुर में मैतेई और कुकी आदिवासियों के बीच हिंसक संघर्ष इसका उदाहरण है।

राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ आदिवासियों को ‘वनवासी’ के रुप में संबोधित करता है। इससे उनका आशय यह कहने का है कि आदिवासियों की अपनी कोई स्वतंत्र पहचान नहीं है। वे हिन्दू ही हैं जो जंगलों और पहाड़ों में जाकर बस गए।

जबकि इतिहासकारों का एक तबका यह मानता है कि आदिवासी उन्हें कहते हैं जो आर्य ही नहीं द्रविडों के पहले से ही यहां बसे हुए थे, उन्हें विपरीत परिस्थितियों में जंगल, पहाड़ जैसी जगहों पर जाना पड़ा है।

आदिवासियों के संघर्ष के नायकों की चर्चा तो होती है लेकिन उनके सामाजिक, सांस्कृतिक, भाषायी बहुलता व विविधता की चर्चा कम होती है।

जिन वेरियर एल्विन जैसे प्रशासकों व समाजशास्त्रियों ने आदिवासियों के समग्र विकास के लिए काम किया उन्हें भाजपा के लोग क्रिश्चियन मिशनरी का एजेंट बताने में लगे हैं।

दरअसल राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ का यूरोपीय माडल का राष्ट्र बोध पूरे भारतीय समाज को सांस्कृतिक गुलामी की तरफ ढकेलता है उसमें आदिवासी समाज उनके अभियान का सर्वाधिक शिकार है।

जहां तक अनुसूचित जनजाति के सरकारी व सार्वजनिक संस्थाओं में प्रतिनिधित्व की बात है वह भी बेहद कम है। उच्च शिक्षण संस्थानों, ज्यूडिशियल, मीडिया और कारपोरेट सेक्टर में इनका प्रतिनिधित्व नाममात्र है।

आदिवासी कोटे में फर्जी सर्टीफिकेट लगाकर सरकारी नौकरी हासिल करने के मामले भी बड़े पैमाने पर हैं।

आजादी के बाद से ही डैम, खनन और अन्य बड़े प्रोजेक्ट्स के लिए आदिवासी बड़े पैमाने पर विस्थापित हुए हैं, लेकिन उन्हें इन प्रोजेक्ट्स में भी नियमानुसार मिलने वाले लाभ जैसे नौकरी व रोजगार से वंचित रखा गया है। इनके लिए विशेष प्रावधान किए जाने की जरूरत है।”

अंत में सम्मेलन ने यह उम्मीद जाहिर की कि अनुसूचित जाति और अनुसूचित जनजाति की राजनीतिक एकता का अभियान चलाने के लिए फैसला लिया जाएगा और कारपोरेट-हिंदुत्व गठजोड़ की राजनीति को विफल किया जाएगा।

इलाहाबाद विश्वविद्यालय छात्रसंघ के पूर्व अध्यक्ष लाल बहादुर सिंह की रिपोर्ट।

+ There are no comments

Add yours

You May Also Like

More From Author