2024 के लोकसभा चुनावों में दक्षिण के राज्यों में बीजेपी और हाशिए पर चली जाएगी

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आम चुनाव से एक साल पहले राजनीति स्वाभाविक रूप से 2024 की राजनीतिक तैयारियों के इर्द-गिर्द घूम रही है। दक्षिणी के सभी राज्यों में कुल मिलाकर 130 लोकसभा सीटें हैं। मोदी की ओर से लोकसभा चुनाव को छह महीने पहले यानि दिसंबर 2023 तक कराने की अटकलों के साथ ही चुनावी सरगर्मी तेज हो गई है। दक्षिण में पहले से ही चुनावी हलचल जोर पकड़ रही है। 

तेलंगाना

तेलंगाना की वर्तमान विधानसभा का कार्यकाल जनवरी 2024 के पहले सप्ताह में समाप्त हो रहा है। चार महीने बाद तेलंगाना में विधानसभा चुनाव होने हैं। अमित शाह और मोदी की रैलियों के साथ चुनाव प्रचार पहले ही जोर पकड़ चुका है। जो लगभग चुनावी रैलियों में बदल गया है। ऐसी भी अटकलें हैं कि मोदी सरकार मई-जून 2024 में होने वाले लोकसभा चुनावों को विधानसभा चुनावों के साथ दिसंबर 2023 में ही करा देगी। दोनों चुनाव एक साथ होंगे। लोकसभा और विधानसभा दोनों में तेलंगाना में मुख्य मुकाबला टीआरएस और कांग्रेस के बीच होगा। 2024 में भाजपा तीसरे स्थान पर रहेगी।

केसीआर की मुख्य ताकत उनकी सरकार की लोकप्रिय योजनाओं का रिकॉर्ड है। मोदी ने किसानों को दिसंबर 2018 में 6000 रुपये प्रति वर्ष देना शुरू किया, केसीआर उसके पहले (मई 2018) से अपने राज्य के किसानों को 10,000 रुपये दे रहे थे। उनकी सरकार ने किसानों के लिए कई महत्वपूर्ण सिंचाई योजनाएं तैयार कीं।

टीआरएस (अब बीआरएस) सरकार की उद्योग समर्थक नीतियों के कारण हैदराबाद (तेलंगाना की राजधानी) पहले ही दक्षिण में आईटी और उच्च तकनीकी केंद्र के रूप में बेंगलुरु से आगे निकल चुका है। तेलंगाना में कांग्रेस इस तथ्य का फायदा उठा रही है कि सोनिया के चलते ही स्वतंत्र तेलंगाना राज्य बना, जिसके चलते कांग्रेस को आंध्र प्रदेश में बड़ा राजनीतिक नुकसान उठाना पड़ा।

भाजपा के पास भी तेलंगाना में अपने राजनीतिक गढ़ थे। जो मुख्य रूप से एआईएमआईएम के खिलाफ सांप्रदायिक ध्रुवीकरण के माध्यम से बनाए गए थे। पिछले संसदीय चुनावों में तेलंगाना में भाजपा ने 4 सीटें जीतीं थीं। यहां तक कि भाजपा ने निज़ामाबाद में टीआरएस प्रमुख के. चंद्रशेखर राव की बेटी कविता जैसी मजबूत टीआरएस उम्मीदवार को भी हराया। इसके अलावा वारंगल, करीमनगर और खम्मम आदि जिले भाजपा के उभार के समय माओवादियों के प्रभाव के कारण रेड जोन के रूप में जाने जाने लगे थे। इन क्षेत्रों में उच्च जातियों-वर्गों के लोगों ने माओवादियों को जवाब देने के लिए एक प्रभावी शक्ति के रूप में भाजपा को पसंद किया और उसके साथ एकजुट गए। ये क्षेत्र ‘भगवा क्षेत्र’ में बदल गये। माओवादियों का प्रभाव कमजोर होने के बाद यहां भगवा प्रभाव भी कमजोर हो रहा है।

तेलंगाना में बीआरएस और कांग्रेस के बीच तेजी से राजनीतिक ध्रुवीकरण हो रहा है। इस पर संदेह है कि भाजपा यहां अपनी 2019 की 4 सीटें बरकरार रख पाएगी। इससे ज्यादा पाना तो दूर की बात है।

कर्नाटक

2019 में, भाजपा ने कर्नाटक में लोकसभा चुनावों में 28 में से 25 सीटों पर जीत हासिल की। दक्षिण में बीजेपी का मुख्य और एकमात्र आधार कर्नाटक ही रहा। इसके ठीक उलट, मई 2023 में कांग्रेस ने 224 विधानसभा सीटों में से 136 सीटें जीतीं और सिद्धारमैया ने सरकार बनाई। क्या 2024 में पेंडुलम दूसरी दिशा में घूमेगा या सिद्धारमैया कांग्रेस के आधार को मजबूत करेंगे और उसमें सुधार करेंगे?

सिद्धरमैया सरकार के अब तक के प्रदर्शन से संकेत मिलता है कि कांग्रेस राज्य में 2024 के लोकसभा चुनावों में जीत हासिल कर सकती है। कांग्रेस ने अपनी मुफ्त बस यात्रा से आधे मतदाता ( महिलाओं) के बीच अपने समर्थन को मजबूत किया है। अगस्त से परिवार की महिला मुखियाओं को 2000 रुपये प्रति माह मिलेंगे।

दूसरे, जब कांग्रेस ने चुनाव के दौरान किए गए वादे के अनुसार प्रत्येक बीपीएल परिवार को 10 किलोग्राम मुफ्त चावल देने की योजना बनाई तो केंद्र और एफसीआई ने राज्य को अतिरिक्त चावल कोटा आवंटित करने से इनकार कर दिया। भाजपा की इस चाल से बचने के लिए मुख्यमंत्री सिद्धारमैया ने बीपीएल लोगों को नकद भुगतान किया। मतदाता इतने समझदार हैं कि वे समझ सकते हैं कि कौन लोग योजना को पटरी से उतारने की कोशिश कर रहे थे। उन्हें उनके 10 किलो मुफ्त चावल से वंचित कर रहे हैं। बेरोजगार स्नातकों को जल्द ही 3000 रुपये प्रति माह मिलेंगे, जो एक प्रमुख चुनावी वादा भी था।

हिजाब और हलाल मांस आदि जैसे सांप्रदायिक विवादों के चलते मध्यम वर्ग के बीच एक मजबूत हिंदुत्व समर्थक वैचारिक झुकाव पैदा हुआ था। जो विधानसभा चुनावों के समय नाटकीय रूप से गायब हो गया। जहां भाजपा सरकार का भ्रष्टाचार ‘40% सरकार’ के रूप में राजनीतिक चर्चा पर हावी हो गया। इसके अलावा, कर्नाटक में एडेलु कर्नाटक नामक एक लोकप्रिय सामाजिक आंदोलन के रूप में एक अनूठी घटना देखी गई, जिसके तहत बड़ी संख्या में नागरिक समाज समूहों ने राजनीतिक रूप से भाजपा के खिलाफ और कांग्रेस के समर्थन में रैली की। मध्यम वर्ग की राय को कांग्रेस के पक्ष में मोड़ने में इसकी भूमिका महत्वपूर्ण थी और उन्होंने लोकसभा चुनावों के दौरान भी इसी तरह की भूमिका निभाने की कसम खाई है।

कर्नाटक में कांग्रेस की नई सरकार बनने के बाद बीजेपी न तो कोई सांप्रदायिक मुद्दा उठा पाई है और न ही अपनी दागदार छवि से उबर पाई है। विधानसभा चुनावों में दलितों और ओबीसी के कांग्रेस में लौटने के साथ प्रमुख सामाजिक बदलाव हुए। भाजपा का पारंपरिक लिंगायत आधार बिखर रहा है और डी. शिव कुमार जैसे मजबूत वोक्कालिगा नेता की बदौलत कांग्रेस वोक्कालिगाओं के बीच पैठ बना रही है, कांग्रेस लगभग 25 सीटें जीत सकती है और भाजपा येदियुरप्पा के होम टर्फ शिमोग्गा के अलावा तटीय कर्नाटक में मंगौर, उडुपी और उत्तरी कन्नड़ा जैसे अपने पारंपरिक गढ़ों तक ही सीमित रह सकती है।

तमिलनाडु

1970 के दशक से ही भ्रष्टाचार हमेशा द्रमुक की दुखती रग रहा है। यहां तक कि जब डीएमके सीएम एम.के. स्टालिन द्रविड़ मॉडल को उजागर करने की कोशिश कर रहे थे। उसी बीच 14 जून को नकदी के बदले नौकरी घोटाले में प्रवर्तन निदेशालय की तरफ से उनके मंत्री सेंथिल बालाजी की गिरफ्तारी हुई। एक अन्य मंत्री पोनमुडी के खिलाफ छापे और उनके बैंक लॉकर से 50 करोड़ रुपये की जब्ती की रिपोर्ट ने स्टालिन सरकार की छवि को धूमिल कर दिया है।

एआईएडीएमके नेताओं के एक वर्ग के बीच यह भावना बढ़ रही है कि भाजपा के साथ गठबंधन केवल एक बोझ है, जिससे उन्हें मुस्लिम वोटों का नुकसान होगा। ऐन लोकसभा चुनाव के समय वे भाजपा के साथ अपना गठबंधन तोड़ सकते हैं। वे तब तक उनके साथ बने रह सकते हैं, ताकि वे संभावित ईडी-आईटी विभाग की छापेमारी से बच सकें।

स्टालिन सावधानी से किसी भी बड़े अलोकप्रिय कदम से बच रहे थे। लेकिन उनकी यह राजनीतिक रणनीति तब कमजोर पड़ी, जब उन्होंने बड़े कॉरपोरेट्स की मांग को मानने का फैसला किया और प्रतिदिन 12 घंटे काम की अनुमति देने के लिए फैक्ट्री अधिनियम में संशोधन करने का फैसला किया। ट्रेड यूनियनों और डीएमके के वामपंथी सहयोगियों के कड़े विरोध के कारण, उन्हें यह कदम पीछे खींचना पड़ा। उनकी सरकार सड़क परिवहन निगमों का निजीकरण करने की भी योजना बना रही है, जबकि निगम बेहतर तरीके से संचालित हो रहा है। परिवहन यूनियन बड़े पैमाने पर विरोध प्रदर्शन के लिए तैयार हो रहे हैं। अपने बेटे उदयनिधि को मंत्री के रूप में पदोन्नत करने और डीएमके तथा शासन के मामलों पर उनके परिवार की पकड़ ने वंशवादी शासन को मजबूत किया है।

लेकिन विधानसभा द्वारा पारित विधेयकों को दबाकर रखने में तमिलनाडु के राज्यपाल रवि की मनमानी के चलते उन्हें राज्य में लोकप्रिय सहानुभूति मिली है। तमिलनाडु बार-बार मजबूत संघीय भावनाओं को प्रदर्शित करता रहता है।

2014 में, भाजपा के पोन. राधाकृष्णन ने कन्याकुमारी से लोकसभा सीट जीती, लेकिन 2019 में कांग्रेस से हार गए। भाजपा 2024 में भी कन्याकुमारी सीट नहीं जीत पाएगी। भले ही  2021 के विधानसभा चुनावों में भाजपा ने 4 सीटें  थीं। इसके बावजूद भी हाल के दिनों में पूरे राज्य की राजनीति में भाजपा के लिए कोई विशेष राजनीतिक आकर्षण नहीं बचा हुआ है। द्रमुक-कांग्रेस और सहयोगी दल 2019 की तरह 2024 में फिर से चुनाव जीत सकते हैं। उस समय उन्होंने सभी 39 सीटें जीती थीं।

केरल

2019 में केरल में पिछले लोकसभा चुनावों के बारे में आश्चर्य की बात यह थी कि भाजपा को कुल वोटों में से 13% वोट मिले। भाजपा ने महिलाओं के मंदिर प्रवेश पर विवाद का फायदा उठाया। हालांकि वामपंथी नेतृत्व वाले एलडीएफ नहीं बल्कि कांग्रेस के नेतृत्व वाले यूडीएफ ने बेहतर प्रदर्शन किया और 20 में से 19 सीटें जीतीं। लेकिन केरल के मतदाताओं ने 2021 के विधानसभा चुनावों में एलडीएफ को प्राथमिकता दी। 

एलडीएफ ने कुल 140 सीटों में से 99 सीटें जीतीं और यूडीएफ  केवल 41 सीटें जीत पाई। लेकिन केरल के मुख्यमंत्री पिनाराई विजयन ने बेहद लोकप्रिय स्वास्थ्य मंत्री सुश्री के. के. शैलजा को महामारी ( कोविड़) दौरान उत्कृष्ट प्रदर्शन के बावजूद दरकिनार कर दिया गया। पिनाराई अपनी बुलेट ट्रेन के चलते भी विवादस्पद हुए हैं। इस परियोजना को सिल्वरलाइन परियोजना भी  कहा जाता है। जिसमें बड़े पैमाने पर भूमि अधिग्रहण शामिल है। यह अत्यधिक विवादास्पद परियोजना हो गई है। उनका एक सहयोगी सोना तस्करी घोटाले में फंसा हुआ था।

जब पिनाराई ने एक मजबूत नवउदारवादी अर्थशास्त्री गीता गोपीनाथ को अपना सलाहकार नियुक्त किया तो उससे भी लोगों लोगों की भौंहें तन गईं। वह आईएमएफ की पहली उप-प्रबंध निदेशक बनीं। इतना ही नहीं पिनाराई अडानी सहित अन्य बड़े कॉरपोरेट्स और दुबई के वित्तीय माफिया से भी संपर्क साध रहे हैं। सीपीआई (एम) और कांग्रेस दोनों ही महागठबंधन (INDIA) का हिस्सा हैं लेकिन कांग्रेस केरल में सीपीआई (एम) की मुख्य राजनीतिक प्रतिद्वंद्वी है। चुनाव में यह विरोधाभास कैसे सुलझेगा, यह देखना दिलचस्प होगा। सीपीआई (एम) के भीतर मुख्यमंत्री पिनाराई कांग्रेस के साथ मोर्चे को लेकर कम उत्साहित नजर आर रहे हैं।

आंध्र प्रदेश

आंध्र प्रदेश में बीजेपी और टीडीपी का गठबंधन लगभग तय है। वाईएसआरसीपी के कांग्रेस में विलय और वाईएस जगन मोहन रेड्डी के अपने पिता की मूल पार्टी कांग्रेस में लौटने की भी अटकलें हैं। इस सिलसिले में जगन मोहन की बहन वाई. एस. शर्मिला ने कांग्रेस नेता डी. के. शिवकुमार से मुलाकात भी की। लेकिन इस संबंध में जगन मोहन या यहां तक कि कांग्रेस की ओर से कोई मजबूत संकेत नहीं आया है। 2024 के लोकसभा चुनावों से पहले ऐसे किसी भी विलय की संभावना नहीं है क्योंकि वाईएसआरसीपी अभी भी जगन मोहन की लोकप्रिय योजनाओं के साथ मजबूत हो रही है और उस पार्टी के कई नेताओं को लगता है कि वाईएसआरसीपी को हाशिए पर पड़ी कांग्रेस से ज्यादा फायदा नहीं होगा।

बीजेपी की एकमात्र उम्मीद टीडीपी के साथ उसका गठबंधन है, लेकिन इससे ज्यादा कुछ हासिल नहीं हो सकता क्योंकि वाईएसआरसी अभी भी मजबूत स्थिति में है।

पुडुचेरी 

2019 में, पुडुचेरी में एकमात्र सीट कांग्रेस ने पूर्व सीएम एन. रंगास्वामी के नेतृत्व वाली स्थानीय पार्टी को हराकर जीती थी। 2024 में भी ऐसा ही दोहराए जाने की उम्मीद है। निर्वाचित सरकार और भाजपा के एजेंट के रूप में देखी जाने वाली राज्यपाल किरण बेदी के बीच चल रहे झगड़े ने भी लोकप्रिय मूड को भाजपा के खिलाफ कर दिया है।

दक्षिण में ऐसे जटिल राजनीतिक परिदृश्य की पृष्ठभूमि में, विशेष रूप से कर्नाटक में अपनी पराजय के बाद, 2024 में कुल 130 सीटों में से दक्षिण में भाजपा की सीटें मात्र 10 सीटें या उससे भी कम होंगी, जबकि 2019 में उसे 29 सीटें मिली थीं।

( बी. सिवरामन स्वतंत्र टिप्पणीकार हैं।)

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