क्या छोटे मालिक बनने का स्वप्न मेहनतकश जनता की ग़रीबी-बदहाली दूर कर सकता है?

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आज देश में बेरोज़गारी अपने चरम पर पहुँच गई है। इस बार बजट में वित्तमंत्री ने ‌खुद बेरोज़गारी की भयानकता को स्वीकार कर लिया है, परन्तु हमारे देश में जो नव उदारवादी विकास का मॉडल है, उसके साथ बेरोज़गारी की सच्चाई निहित है। पिछले दिनों श्रीलंका या फ़िर बंगला देश में, जो व्यापक जन असंतोष फूट पड़ा, उसके पीछे भी विकास का यही नव उदारवादी मॉडल था। सरकार लोगों को रोज़गार दे नहीं सकती, इसलिए सरकार ख़ुद मालिक बनने के स्वप्न बेच रही है।

भारत जैसे पिछड़े पूँजीवादी विकास वाले देशों में उद्यमशीलता और छोटे व्यवसाय के खेल का शोर बहुत ज़ोरों-शोरों से मचाया जा रहा है, हालाँकि विकसित पूँजीवादी देशों में इस खेल की हवाइयाँ पहले ही उड़ चुकी हैं, परंतु हमारे देश में लोगों का बढ़ा हिस्सा अभी भी इस खेल के सच को ठीक से समझा नहीं हैं। भारत में जनता को छोटे व्यवसाय में ‘मुक्ति’ ख़ुद मालिक बनकर ‘अपना ख़ुद का व्यवसाय’ खोलकर अपनी विषम परिस्थितियों से बाहर निकलने का सपना ख़ूब दिखाया जा रहा है। आपने ये नारा तो सुना ही होगा-‘नौकरी ढूँढ़ने वाले नहीं देने वाले बनो’।

मनोरंजन के स्रोत टीवीएफ़ पिचर्स, शार्क टैंक इंडिया जैसे टीवी शो वेब सीरिज़ से भरे पड़े हैं, जो ‘मालिक’ के लिए काम करने से इनकार करते हुए और अपना ख़ुद का उद्यम खोलकर अमीर बनने का सपना दिखाते हैं। इसके अलावा ये पूँजीवादी समाज के उस झूठ का भी ज़ोर-शोर से प्रचार-प्रसार करते हैं कि कोई सच्ची ‘मेहनत और लगन’ से अमीर और ख़ुशहाल हो सकता है। हालाँकि व्यवहार में ये सभी मीठी-मीठी बातें झूठ और फ़रेब के सिवा कुछ नहीं हैं। अपना ख़ुद का व्यवसाय शुरू करने से जनता ग़रीबी से मुक्त नहीं हो पाती और अगर बहुत थोड़े से ‘भाग्यशाली’ लोग सफल हो भी जाएँ, तब भी कमोबेश पूरा समाज ग़रीब ही रहता है।

पूँजीवादी मीडिया मेहनतकशों को यह विचार देती है कि ग़रीबी (जो पूँजीवाद द्वारा ही उत्पन्न की गई है) से मुक्ति अपना ख़ुद का व्यवसाय खोलने में निहित है। यह दावा किया जाता है कि इससे जनता अपने जीवन के स्तर को उठा सकती है, वित्तीय समस्या भूतकाल की बात हो जाएगी और फिर कभी किसी ‘मालिक’ के लिए काम नहीं करना होगा,आप ही मालिक होंगे। एक छोटा व्यवसायी निजी उद्यमी बनने, व्यवसाय खोलने आदि की इच्छा का विचार बहुत लंबे समय से अस्तित्व में है,यह कोई नया विचार नहीं है और इसे पूँजीवादी समाज ने ही पैदा किया है। पूँजीवाद उत्पादन के साधनों के निजी स्वामित्व,भाड़े के श्रम के शोषण और अल्पसंख्यक पूँजीपतियों द्वारा बहुसंख्यक मेहनतकश वर्ग के उत्पीड़न पर आधारित है। नतीजतन केवल शोषण और ख़ुद को मालिक में बदलने के माध्यम से ही भौतिक सुख सुनिश्चित किया जा सकता है।

पूँजीवादी नैतिकता और संस्कृति,जनता और उसके शोषित श्रम से ऊपर उठकर लगातार बढ़ते मुनाफ़े की खोज को प्रोत्साहित करती है। ये विचार पूरे समाज में व्याप्त हैं। जो भी वर्ग सत्ता पर क़ाब‍िज़़ होता है, उस वर्ग की विचारधारा ही प्रमुख विचार होते हैं। वैसे वर्ग के दृष्टिकोण से ‘अपना ख़ुद का व्यवसाय’ का विचार निम्न- पूँजीपति है। निम्न-पूँजीपति वर्ग एक मध्यवर्ती वर्ग है,जो उत्पादन के अपने साधनों का मालिक होता है, लेकिन मुख्य रूप से उत्पादन के साधनों को चलाने के लिए अपने स्वयं के व्यक्तिगत श्रम का उपयोग करता है, बिना किराए के श्रम पर निर्भर हुए।

नतीजतन वे अपनी आय का बड़ा हिस्सा (मुख्य रूप से) किसी और के श्रम के विनियोजन से नहीं,बल्कि अपने स्वयं के परिणामों से प्राप्त करते हैं। परंतु एक छोटा मालिक भी अंत में है तो मालिक ही, जो मौजूदा आर्थिक-सामाजिक स्थितियों से लाभांवित होता है और अधिक से अधिक मुनाफ़ा प्राप्त करने में रुचि रखता है। अचेतन मेहनतकश जिन्हें अपने मौलिक वर्ग हितों की समझ नहीं है, वह भी इस विचार में अपने लिए न्यूनतम लागत के साथ मुक्ति देखते हैं और यह नहीं समझते हैं कि सबके लिए निम्न पूँजीपति वर्ग में शामिल होना असंभव है।

अपना ख़ुद का व्यवसाय शुरू करने के लिए आपको शुरुआती पूँजी की आवश्यकता होती है। यह राशि लाखों से करोड़ों के बीच हो सकती है। व्यवसाय खोलने के लिए जगह का किराया चुकाना, उपकरण और उपभोग्य वस्तुएँ ख़रीदना, कर्मचारियों को वेतन देना इत्यादि–कुछ प्रमुख ख़र्च हैं, जिसके लिए शुरुआती पूँजी की आवश्यकता होती है। मेहनतकश जनता जो मुश्किल से अपना गुज़ारा कर पाती है, जिसका बड़ा हिस्सा क़र्ज़ के बोझ तले दबा रहता है,उसके पास इतना पैसा ख़ुद का व्यवसाय शुरू करने के लिए कहाँ से आएगा?

पूँजीवादी मीडिया और अर्थशास्त्री इस सवाल के जवाब में तपाक से कहते हैं–यह पूँजी बैंक ऋण या मुद्रा लोन जैसी सरकारी योजना से आ सकती है। बेशक, बैंक से ऋण लेना संभव है,लेकिन यह बात भी किसी से छि‍पी नहीं है, कि बैंक ऋण सबके लिए लेना इतना आसान भी नहीं है और अगर ऋण मिल भी जाए तो आँकड़े ये बताते हैं कि 95% छोटे व्यवसाय असफल होते हैं और इसके बाद ये उद्यमी ऋण और ब्याज़ के नीचे दब जाते हैं। यहाँ तक कि अगर एक नौसिखिया उद्यमी अपना ख़ुद का व्यवसाय खोलने के लिए आवश्यक राशि जुटा भी ले, तो यह उसके व्यवसाय के सफल संरक्षण और विकास की गारंटी नहीं है।

विभिन्न आँकड़े और रिपोर्ट यही बताते हैं, कि भारत में 5% से भी कम छोटे व्यवसाय 3 साल से अधिक समय तक जीवित रहने में कामयाब हो पाते हैं। बाक़ी सभी उद्यम या तो दिवालिया हो जाते हैं या वे बाज़ार में प्रतिस्पर्धा (अन्य छोटे मालिकों और बड़े उद्यमियों के साथ) में खड़े नहीं हो पाते और ख़ुद को पहले से भी बदतर वित्तीय स्थिति में पाते हैं। यदि एक नौसिखिया उद्यमी तीन साल बाद भी ‘जीवित’ रहने में कामयाब हो जाए, फिर भी वह एकाधिकार भयंकर गला-काट प्रतिस्पर्धा और आर्थिक संकटों के दबाव से अछूता नहीं है, जो पूँजीवाद के तहत अपरिहार्य हैं और कभी-कभी तो औद्योगिक दिग्गजों को भी हिला देते हैं। सूचना पोर्टल स्टैटिस्टा के अनुसार पूरी दुनिया में 2020 के बाद से ही अर्थव्यवस्था में संकट के कारण उद्यमियों की संख्या में भारी कमी आई है और तबाही का पैमाना बहुत बड़ा है ।

2008 के वित्तीय संकट और विश्व अर्थव्यवस्था में चल रही मंदी के बाद विकसित पूँजीवादी देशों में भी छोटे व्यवसाय कठिन दौर से गुज़र रहे हैं। बारीकी से छोटे उद्यमों की परिघटना का विश्लेषण करने पर पता चलता है कि केवल राज्य से समर्थन ही है ना कि बाज़ार के “अदृश्य” हाथ जो छोटे व्यवसायों को आज भी बचाए रखे हुए हैं। यह समर्थन नवाचार और सामाजिक उद्यमिता के लिए अनुकूल परिस्थितियों के निर्माण के रूप में आता है, साथ ही नए उद्यमों के उद्घाटन को प्रोत्साहित करने, छोटे व्यवसायों का समर्थन करने के लिए बुनियादी ढाँचा बनने, छोटे उद्यमों की होड़ सुनिश्चित करने आदि के रूप में भी। राज्य से कृत्रिम प्रोत्साहन के बिना अधिकतम छोटे व्यवसायों का अपरिहार्य परिणाम इनके मालिक का बर्बाद होना और उनका मज़दूर वर्ग की श्रेणी में शामिल हो जाना है। एकाधिकार पूँजीवाद की स्थितियों में छोटा मालिक ना केवल बड़ी कंपनियों के ख़ि‍लाफ़ बल्कि अपनी तरह के लोगों के ख़ि‍लाफ़ भी मुक़ाबले का सामना करने में असमर्थ है।

अपनी आर्थिक स्थिति के अनुसार, छोटे मालिक मुख्य सामाजिक वर्गों–मज़दूर वर्ग और बड़े पूँजीपतियों के बीच एक मध्यवर्ती स्थिति रखते हैं। मज़दूर वर्ग के साथ उनकी समानता यह है कि वे (मुख्यतया) अपने स्वयं के श्रम से जीते हैं और पूँजीपतियों के साथ यह कि वे निजी मालिक हैं। छोटे मालिकों की यह अनिश्चित स्थिति उन्हें समाज को प्रगति की ओर ले जाने में सक्षम एक पूर्ण क्रांतिकारी वर्ग बनने की अनुमति नहीं देती है। यह साफ़ है कि छोटा व्यवसाय और छोटा मालिक बनना किसी को ग़रीबी और दुख से नहीं बचाएगा, ना ही यह उन्हें बड़े व्यवसाय की तानाशाही, वैश्विक अति-उत्पादन संकट और युद्धों से बचाएगा। चाहे पूँजीवादी प्रचारक ‘अपना ख़ुद का व्यवसाय’ के मालिक होने के सपने का कितना भी प्रचार करें, परंतु यह एक मिथक के अलावा और कुछ नहीं है।

एकाधिकार पूँजीवाद की दुनिया में छोटे व्यवसायों के लिए जगह कम होती जा रही है। साम्राज्यवाद के युग और औद्योगिक समाज के आगे के विकास में, बड़े एकाधिकार पूँजी को अब प्रतिस्पर्धियों की उपस्थिति में कोई रुचि नहीं बची है, जिसमें छोटे मालिक भी शामिल हैं। उन्हें मज़दूरों के बीच नौकरियों के लिए प्रतिस्पर्धा बढ़ाने, मज़दूर वर्ग को और विभाजित करने तथा श्रम शक्ति की क़ीमत कम करके मज़दूरों को उनके श्रम के लिए न्यूनतम मज़दूरी देकर अधिकतम लाभ प्राप्त करने के लिए मज़दूरों की एक आरक्षित औद्योगिक सेना की आवश्यकता है, इसलिए छोटे मालिकों के बढ़े हिस्से का भाग्य अंततः सर्वहाराकरण ही है। यह छोटे मालिक बनने की सच्चाई है, जिसे पूँजीवादी मीडिया कभी नहीं बतलाता है।

(स्वदेश कुमार सिन्हा लेखक एवं स्वतंत्र टिप्पणीकार हैं)

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