कोरोना काल से अबतक पूंजीवादी अन्तर्द्वन्द और श्रमशक्ति के शोषण के हथकंडे

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कोरोना काल में भारत में पूंजीवाद और उसकी संरक्षक सत्ता का वीभत्स रूप देखा गया था जब श्रम पूंजी के सापेक्ष उभय पक्ष हो गया है, और सत्ता बेशर्मी के साथ पूंजीवाद के साथ खड़ी थी। उस काल से मौजूदा दौर तक श्रम और श्रमिकों की महत्ता को कम करने के लिए पूंजीपतियों का श्रमिकों पर आक्रामक हमले लगातार चल रहे हैं।

सृष्टि की रचना से लेकर आजतक मनुष्यों के विभिन्न समूहों में संसाधन कमाने, छीनने और हथियाने का संघर्ष चला आ रहा है। सभ्यता के काल खण्डों में यह संघर्ष विभिन्न रूपों में देखने को मिलता है। लेकिन पिछले 200 वर्षों में विकसित हुए कथित भूमंडलीकरण से लेकर कोरोना काल तक यह संघर्ष जिस रूप में सामने आया है वह सबसे अलग है और मानव सभ्यता के लिए सबसे अधिक भयावह है।

औद्योगीकरण के आरम्भ में इसका जो रूप था वह सूचना क्रान्ति काल तक बदल चुका था, 20 वीं सदी तक जो पूंजीवाद यह समझने लगा था कि उसका आस्तित्व गरीबी उन्मूलन में ही सम्भव है, (जैसे गरीब साइकिल चलाने के स्थान पर मोटर साइकिल या कार चलाए इसमें पूंजीवाद का विस्तार हो, यह गरीबी का नया स्तर माना जा सकता था ) जिससे पूंजीवाद फलता फूलता, और जिसके लिए ही पूंजीवाद का बनाया हुआ भूमंडलीकरण प्लेटफार्म था, लेकिन अब कोरोना काल के बाद वर्तमान वैश्विक स्थिति में वह धीरे धीरे पुन: अपने विद्रूप रूप में आने लगा है।

इस सम्बन्ध को समझने के लिए कोरोना काल का पन्ना पलटना ज़रूरी है। कितने आश्चर्य की बात थी कि कोरोना काल के प्रछन्न पूंजीवाद में पूंजीपति थे श्रम को लूटकर बढ़ाई गई पूंजी थी, पूंजी के अन्य उपादान मशीनें, कारखाने, पर्याप्त उर्जा/बिजली, कच्चा माल, मांग वित्तीय संस्थान बैंक और चैनल वगैरह वगैरह सब थे, और सब मुस्तैद थे, लेकिन श्रम उपलब्ध नहीं था, तब श्रमिक को मजदूरी नहीं चाहिए थी, सुरक्षा चाहिए थी अनजाने खौफ से, जिससे उसका जीवन खतरे में आ गया था। जिसका कोई तोड़ पूंजीवाद के पास नहीं था। आईटी सेक्टर के सीमित रूप से वर्क एट होम के अलावा मैन्युफैक्चरिंग में कोई गुंजाइश नहीं थी।

पूंजी असहाय सी खड़ी थी, उसका मजदूरों को आजीविका देने का ब्रह्मास्त्र भी बेकार हो गया था। तब पूंजी व श्रम के अन्तर्द्वन्द में श्रम उभय पक्ष हो गया है भले ही यह काल बहुत लम्बा न चल सका और न मजदूरों मेहनतकशों में पूंजीवाद के ख़िलाफ़ कोई सामूहिक चेतना विकसित हो सकी।

विश्व परिदृश्य में लॉकडाउन खोलने और नहीं खोलने के अन्तर्द्वन्द ने पूंजीवाद के चरित्र को दर्शाया था। मार्क्स ने घोषणा पत्र व दास कैपिटल रचते समय जिस उत्पाद को परिभाषित किया था, वह उत्पाद असेम्बली लाइन उत्पादन के वृहद उपयोग के बाद बदल गया था। उसमें श्रम को और हीन व निम्न बना दिया था, तब श्रम की विशेषज्ञता एक रूटीन में बदल गई थी, जो कि पूंजीवाद के फलने फूलने का बड़ा कारण बना। जिसके कारण श्रम का और अवमूल्यन हुआ, इसी के साथ भूमंडलीकरण के दौर से पूंजीवाद ने उपभोग का भूमंडलीकरण करके राष्ट्रवाद को पीछे ढकेल दिया। सूचना क्रान्ति तक आते आते पूंजीवाद के इन दोनो गणों ने राजनैतिक सत्ता पर अप्रत्यक्ष रूप से नियंत्रण कर लिया।

जिस पूंजीवाद ने वृहद उत्पाद और उपभोक्तावाद के बल पर राष्ट्रवाद की जमीन खिसकाई थी, उसी के कारण आज विश्व परिदृश्य में भूमंडलीकरण का पैरामीटर घटता जा रहा है और उसके सापेक्ष राष्ट्रवाद या यूं कहें दक्षिण पंथ का उभार बढ़ता जा रहा है, ऐसा लगता है कि पूंजीवाद का यही अन्तर्द्वन्द आज नए विश्व के रचने का मुख्य कारण होने जा रहा है। अमेरिकी चीनी खेमे और मध्यपूर्व सहित रूसी खेमें का आपसी विवाद और घात प्रतिघात, इसी की ओर इशारा कर रहा है।

भारत में मजदूरों के साथ जो व्यवहार हो रहा है और अमेरिका सहित पूंजीवादी विश्व और कथित चीनी साम्यवादी देश में लॉकडाउन के बाद उत्पादन जारी रखने का जो संघर्ष है, वह मार्क्स के सिद्धान्त याद दिलाता है कि पूंजीवाद/पूंजीपति हर हथकंडे अपना कर सस्ते श्रम का उपयोग अपनी पूंजी बढ़ाने का या यूं कहें अपना विस्तार करता रहता है।

इस काल में भारत की परिस्थिति पर दृष्टि डालें तो पाऐंगे कि यहां श्रम के उत्पीड़न के नए रिकार्ड बन रहे हैं, श्रम कानूनों में बदलाव के बाद कोरोना काल ने पूंजीवादी व्यवस्था को नंगा कर दिया है। इस समय श्रम का उत्पीड़न उत्कर्ष पर है। इंफोसिस के नारायण मूर्ति को 70 घंटे काम करने की मांग और एल एण्ड टी के सुब्रह्मण्यम की 90 घंटे काम करने की बात इसी बात का उदाहरण है।

दोनों पूंजीपतियों के दृष्टिकोण के सापेक्ष अगर श्रम मूल्य की तुलना करें तो पाएंगे कि पिछले 10-12 साल से श्रम का सापेक्ष मूल्य या तो स्थिर है या कम हुआ है जबकि कम्पनियों की बैलेंस शीट में मुनाफा कई गुना बढ़ा है और कम्पनियों के प्रमुखों के वेतन भत्ते कई गुना बढ़े हैं। उदाहरण के तौर पर 15 साल पहले एक नौजवान आईटी प्रोफेशनल जो इंट्री लेवल पर जो पैकेज मिलता था। आज मूल्य ह्रास और इंफ्लेशन को घटा दिया जाए तो उससे कम मिल रहा है या उतना ही मिल रहा है। सीधे शब्दों में 15 साल पहले 3 लाख का सालाना पैकेज आज के 5 लाख के बराबर या उससे कम है। जो सीधा सीधा शोषण और उत्पीड़न है।

यह उत्पीड़न यह भी दर्शाता है कि भारतीय उद्योग पर श्रमिकों की गैर मौजूदगी का कितना आतंक है, और उसे रोकने के लिए पूंजीवादी सत्ता प्रतिष्ठान कितने पतित तरीके अपना रहा है।

याद करें मनरेगा के लागू होने के समय क्या हुआ था, तब गांवों में मनरेगा में काम मिलने के कारण अचानक शहरों में सीजनल मजदूरों की कमी हो गई थी, तब देश के अनेक उद्योग संघों ने बाकायदा मनरेगा का विरोध करते हुए इसे उद्योग विरोधी कहा था। उस वक्त मनरेगा लाने वाली सरकार ने भले ही इस पर कोई कान न धरा हो, लेकिन उद्योग जगत की एक सशक्त लॉबी सस्ते मजदूरों की अबाध आपूर्ति के लिए मनरेगा बजट के आवंटन में बढोत्तरी को रोकने का प्रयास करती रहती थी। 2014 में बीजेपी के चुनाव जीतने के बाद संसद में मनरेगा पर किया गया प्रधानमंत्री मोदी जी का व्यंग इसी कड़ी में पूंजीवाद की उपलब्धि में गिना जाता है।

वर्तमान समय में राजनैतिक स्थिति देश के उद्योग पतियों के बहुत अनुकूल और समर्थक है तभी वह मजदूरों को प्रताड़ित करने के हर हथकंडे अपना रहे हैं।

ऐसे में जब मजदूरों के ऊपर जान और भविष्य की सुरक्षा का जोखिम, आजीविका पर भारी पड़ रहा है, लॉकडाउन में गुजरात और महाराष्ट्र आदि राज्यों में जिस तरह मजदूरों ने प्रदर्शन और आंदोलन किए थे वह उनकी बेचैनी और आशंका को दिखाती थी, लेकिन भारतीय पूंजीपति मजदूरों की जान की परवाह न करते हुए उन्हे हर तरह से रोककर अपने हित सुरक्षित करना चाहते थे। यहां पूंजीपतियों/उद्योगपतियों के हित साधने के लिए वर्तमान राज सत्ता हर तरह से उद्योगपतियों का साथ दे रही थी। गुजरात, महाराष्ट्र, पंजाब सहित औद्यौगिक राज्यों से मजदूर किसी भी सूरत में अपने घर न जा पाएं, भले ही वह भूखे मर जाएं, या वह कोरोना के चपेट में आकर मारे जाएं। यदि वह जैसे तैसे घर जाने की जुर्रत करें तो उनके आवागमन के साधन और सीमा बंद करके उन्हे रोका जाए। यदि तब भी न रुकें तो आंसू गैस और गोली चलाई जाए।

गुजरात, मध्यप्रदेश आदि की सीमाओं पर पूंजीपतियों के हित में पुलिस ने जो मजदूरों के खिलाफ नंगा नाच किया है वह इसका प्रत्यक्ष प्रमाण था। यह प्रकरण बतलाता है कि देश का पूंजीपतिवर्ग और उसका समर्थक राजनैतिक नेतृत्व कितना खोखला और हृदयहीन है। वह मजदूरों के लिए न तो रोटी की व्यवस्था कर सकता है और न किसी बीमारी से बचाने की व्यवस्था कर सकता है।

कोरोना काल समाप्त होने के बाद यह स्थिति नहीं बदली। इस काल ने पूंजीवाद द्वारा स्थापित की जा रही अवधारणाओं को अवश्य नंगा कर दिया है।

पूंजीवाद ने हमेशा से ही उत्पादन,उत्पादों/ उत्पादन की प्रक्रिया में श्रम की भागीदारी को निम्नतम स्थान दिया है। पूंजीपति के समर्थक कथित आध्यात्मिक नेता तक श्रम को बहुत भाव नहीं देते थे। क्योंकि सभी के अन्तर्निहित सम्बंध और हित परस्पर जुड़े हैं, यह सभी मजदूरों को केवल उपभोग की दृष्टि से देखते हैं। भले ही कोरोना काल ने यह सिद्ध कर दिया था कि उत्पाद हो अथवा विकास का केन्द्र दोनों में श्रम ही उभय पक्ष है।

21वीं सदी के प्रारम्भिक काल में आए कोरोना काल ने और उसके बाद पूंजीवाद के अन्तर्द्वन्द ने सारी परिभाषाओं को और तहस नहस कर दिया था, बहुत सी अवधारणाओं को समूल नष्ट कर दिया था। कोरोना काल ने सबको अपने अतिवादी और वास्तविक रूप में दिखा दिया, और बहुत कुछ सिखा दिया था। राजनीति, धर्म, आस्था और प्रकृति से भी, लेकिन पूंजीवाद और पूंजीपतियों का जो अपना नंगा रूप दिखाया था वैसा सभ्य इतिहास में कभी नहीं हुआ है।

(इस्लाम हुसैन गांधीवादी कार्यकर्ता हैं और काठगोदाम, नैनीताल में रहते हैं)

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