Friday, March 29, 2024

सीमा विवाद पर चिदंबरम: चीन ने पेश की भारत के सामने कठिन चुनौती

पिछले हफ्ते हमने भारत के भूगोल के बारे में और ज्यादा जाना। अपरिचित नाम जैसे गलवां घाटी, पैंगोंग त्सो (झील) और गोगरा, जो कि सभी लद्दाख में हैं, अब हमारे घरों में प्रवेश कर गए हैं।

यह घुसपैठ है।

भारत-चीन के रिश्तों में मौजूदा घटनाक्रमों की उत्पत्ति उन टकरावों में खोजी जा सकती है जो पांच मई को पैंगोंग त्सो में और उससे पहले चले आ रहे थे। हालांकि सरकार ने कभी भी यह स्वीकार नहीं किया कि चीनी सैनिक भारतीय सीमा में मौजूद हैं। ये कुछ ऐसे तथ्य हैं, जो निश्चित हैं-

बड़ी संख्या में चीनी सैनिक लद्दाख में गलवां, हॉट स्प्रिंग्स, पैंगोंग त्सो और गोगरा व सिक्किम में नाकु ला में आ गए, जो कि भारतीय क्षेत्र में पड़ते हैं।

– लद्दाख में गलवां और सिक्किम में नाकु ला पहले कभी भी विवादित या संवेदनशील क्षेत्रों की किसी सूची में नहीं रहे। लगता है, चीन ने अपने विवादित क्षेत्रों का दायरा बढ़ा दिया है।

– चीन ने अपनी तरफ बड़े पैमाने पर सेना का जमावड़ा कर लिया है। भारत भी अपनी तरफ वैसा ही कर रहा है।

– पहली बार ऐसा हुआ है जब दोनों ओर से सैन्य जनरलों की अगुआई में वार्ता हुईं। अब तक ये वार्ताएं दोनों देशों के विदेश सेवाओं के राजनयिकों या विशेष प्रतिनिधियों के बीच हुआ करती थीं।

पूर्ण युद्ध नहीं

यह भरोसा करना कठिन है कि इस वक्त चीन या भारत सीमा विवाद को बढ़ावा देने के इच्छुक होंगे। विगत में यह विवाद उस दिन उठा था जब मैक मोहन रेखा खींची गई थी और इसका विस्फोट 1962 के संपूर्ण युद्ध के रूप में हुआ था। यह सही है कि दोनों देशों के सैनिकों के बीच समय-समय पर टकराव होते रहे हैं, लेकिन कभी भी ऐसे समय में नहीं जब दोनों देशों को एक साथ कई गैर-सैन्य चुनौतियों का सामना करना पड़ रहा हो। दोनों देश अभी तक कोविड-19 संकट से जूझ रहे हैं, दोनों देशों के सामने 2020 और 2021 में आर्थिक मंदी की चुनौतियां हैं, और दोनों ही देश उन फायदों को खोना नहीं चाहेंगे जो उन्हें अपने बीच शांति, स्थिरता और संतुलित संबंधों की वजह से दुनिया से मिले हैं।

इसके अलावा, अगर चीन यह समझ रहा है कि 1962 के मुकाबले वह 2020 में सैन्य रूप से कहीं ज्यादा मजबूत है तो वह यह भी जानता है कि भारत भी 1962 की तुलना में 2020 में कहीं ज्यादा ताकतवर हो चुका है। 1962 के युद्ध से उलट, 2020 में दोनों देशों के बीच युद्ध में कोई भी स्पष्ट विजेता बन कर नहीं उभरेगा। चीनी विशेषज्ञ इस बात से सहमत हैं कि चीन की हाल की गतिविधियों के पीछे कारण चाहे जो रहे हों, लेकिन वह भारत के साथ पूरी तरह से जंग नहीं छेड़ सकता।

वार्ता छह जून को हुई। अंत में दोनों पक्षों ने अलग-अलग बयान जारी किए, जिसमें कुछ शब्द समान थे, जैसे- ‘मतभेद’ ‘विवाद’ नहीं बनने चाहिए। इसलिए मतभेद हैं और ये मतभेद पांच मई के पहले भी थे। हाल के हफ्तों या महीनों में ऐसा क्या हो गया, जिसने भारतीय क्षेत्र में चीनी सैनिकों की घुसपैठ करा दी और विवादों को उन क्षेत्रों तक बढ़ा दिया, जिन पर स्पष्ट तौर पर पहले कभी विवाद नहीं था जैसे गलवां या नाकु ला पर?

कुछ चीजें हैं जिन्हें साधारण व्यक्ति भी आसानी से समझ रहा है। वुहान (2018) और महाबलीपुरम (2019) के बावजूद प्रधानमंत्री मोदी और राष्ट्रपति शी के बीच गर्मजोशी वाले निजी रिश्ते नहीं हैं। शी ही एकमात्र नेता हैं जिनसे मोदी गले मिलने का शर्मिंदगी भरा अभिवादन नहीं करते। पिछले छह सालों में कई बार की बैठकों के बावजूद शी के साथ बातचीत में मोदी कोई उल्लेखनीय उपलब्धि हासिल नहीं कर पाए।

व्यापार और निवेश में भारत फायदे देखता है, चीन अभी तक व्यापार कर रहा है और हासिल कुछ नहीं हुआ है। भारत अपने क्षेत्र की रक्षा करना चाहता है, लेकिन चीन उस क्षेत्र को भारतीय क्षेत्र के रूप में मान्यता नहीं देता। चीन आक्षेप के साथ आगे बढ़ता है, नेपाल के साथ राजनीतिक और सामरिक संधियां करता है, श्रीलंका में आर्थिक लाभ उठाता है। भारत उसके इन कदमों का कोई जवाब दे पाने में सक्षम नहीं दिखता। भारत को मालद्वीव का भरोसा मिल गया है, लेकिन चीन ने अभी तक हार नहीं मानी है। भारत ने दक्षिण चीन सागर पर उसके दावे विशेष का विरोध किया और अंतरराष्ट्रीय जलक्षेत्र में निर्बाध आवाजाही की वकालत की। लेकिन चीन ने भारत के इस विरोध की ठीक वैसे ही अनदेखी कर दी जैसे अमेरिका सहित दूसरे देशों की।

देपसांग या डोकलाम?

मौजूदा विवाद का शांतिपूर्ण समाधान क्या हो सकता है? भारत चाहता है कि ‘पूर्व स्थिति की बहाली’ हो जो पांच मई को थी। अगर यह होता है तो यह दूसरा देपसांग (2013) होगा। (मैंने जानबूझ कर डोकलाम (2017) पर देपसांग को चुना है और इसका कारण रक्षा प्रतिष्ठान जानता है।) चीन की आधिकारिक स्थिति यह है कि हालात ‘स्थिर और नियंत्रण योग्य’ हैं, जो कि मेरे विचार से पूर्व की स्थिति से विपरीत हैं। यदि वास्तविक रूप में यथास्थिति बनी रही तो चीन खुश होगा। मेरे शब्दों को नोट कर लीजिए, गलवान, हॉटस्प्रिंग्स और पैंगोंग त्सो में हाथी और ड्रैगन एक दूसरे के सामने तन कर खड़े हैं।

वार्ता के बाद भारत ने दोनों पक्षों की फौजों की वापसी का संकेत दिया, लेकिन रिटायर्ड सैन्य जनरलों ने अभी तक किसी भी तरह के टकराव में कमी की बात नहीं मानी है।

शी और मोदी में एक खूबी तो मिलती है। दोनों निर्विवाद नेता बनना चाहेंगे। अब तक दोनों ने ही घरेलू आलोचनाओं को नजरअंदाज किया है, लेकिन दोनों देशों में आलोचनाएं बढ़ रही हैं। मोदी अगले चार साल के लिए सुरक्षित हैं, जबकि शी तब तक ही सुरक्षित हैं जब तक कि पोलित ब्यूरो और पीएलए का उन्हें समर्थन होगा। दोनों नेता अलग-अलग कानूनों से सत्ता चला रहे हैं। भारत में परंपरा है कि किसी भी संकटकाल में पूरी तरह से सरकार के साथ रहा जाए और भारत-चीन के इस विवाद से उपजे संकट में मोदी सरकार को पूरा समर्थन मिलेगा। ऐसी स्थिति में नतीजा जो हो, प्रधानमंत्री का यह कर्तव्य है कि वे पूरी पारदर्शिता के साथ राष्ट्र को पूरी और सही जानकारी देते रहें। चीन ने शह-मात का जो खेल शुरू किया है, वह रहस्य ही है। इसका नतीजा भी एक रहस्यमय पहेली के रूप में सामने आ सकता है।

(इंडियन एक्सप्रेस में ‘अक्रॉस दि आइल’ नाम से छपने वाला, पूर्व वित्त मंत्री और कांग्रेस नेता, पी चिदंबरम का साप्ताहिक कॉलम। जनसत्ता में यह ‘दूसरी नजर’ नाम से छपता है। हिन्दी अनुवाद जनसत्ता से साभार।)

जनचौक से जुड़े

0 0 votes
Article Rating
Subscribe
Notify of
guest
0 Comments
Inline Feedbacks
View all comments

Latest Updates

Latest

Related Articles