Friday, March 29, 2024

कोरोना वैश्विक महामारी और मोदी सरकार

संपूर्ण विश्व इस समय मानव जाति पर आए अभूतपूर्व और अकल्पनीय संकट के दौर से गुजर रहा है। हमारे देश में यह संकट अपने चरम पर है। लगभग तीन माह का समय गुजर जाने के पश्चात तथा मोदी जी के चौथे प्रवचन के बाद सरकार के क्रियाकलापों के आकलन का यह उचित समय है। इस समय मोदी सरकार की नीति और नीयत दोनों स्पष्ट हो चुकी है तथा कोरोना वैश्विक महामारी का भारत पर पड़ने वाले प्रभाव की दिशा भी स्पष्ट हो चुकी है। 

कोविड-19 या सार्स-2 महामारी ने लगभग 05 माह पूर्व चीन के वुहान शहर में दस्तक दी। चीन में तबाही मचाने के साथ-साथ इस महामारी ने जल्दी ही सम्पूर्ण विश्व को अपने चपेट में ले लिया है। अब तक सम्पूर्ण विश्व में इस महामारी से मरने वालों की संख्या 2,97,000 से अधिक हो चुकी है तथा लगभग 43 लाख से अधिक लोग अभी भी संक्रमित हैं। भारत में 78000 से अधिक लोग संक्रमित हैं तथा 2500 से अधिक लोगों की मृत्यु हो चुकी है। संक्रमण अभी भी जारी है विशेषज्ञों का मत है कि अक्टूबर 20 से पहले इस पर नियंत्रण पाना संभव नहीं है। न जाने कितने लोगों को अपनी जान गंवानी पड़ेगी। इस बीमारी का विषाणु सार्स-2 कोरोना परिवार का नया  विषाणु है। जिसका न तो टीका ही उपलब्ध है न ही दवा।

इन परिस्थितियों में संक्रमण को रोकना ही एकमात्र उपाय है। विश्व की सभी सरकारों ने इसी उपाय को अपने-अपने ढंग से अपने-अपने देशों में अपनाया। जहां चीन सहित दुनिया के अधिकांश देशों ने लाकडाउन के माध्यम से संक्रमण रोकने का प्रयास किया वहीं ताइवान, दक्षिण कोरिया व न्यूजीलैंड जैसे देशों ने लाकडाउन माडल अपनाये बिना भी संक्रमण रोकने में अभूतपूर्व सफलता पायी। अभी तक ताइवान में केवल 07 व्यक्तियों की मौत हुई है। न्यूजीलैंड के केवल 21 लोग मरे हैं और दक्षिण कोरिया में 260 लोगों की मौत हुई है। प्रारंभ में विशेषज्ञों ने चीन के बाद सबसे अधिक मौतों की भविष्यवाणी ताइवान में की थी क्योंकि ताइवान चीन का पड़ोसी देश है तथा चीन और ताइवान की परस्पर निर्भरता भी अत्यधिक है। लेकिन ऐसा नहीं हुआ।

साउथ कोरिया की जनसंख्या 5.16 करोड़ है तथा इटली की जनसंख्या 6.05 करोड़ है। लेकिन इटली में मरने वालों की संख्या अभी तक 31368 हो चुकी है जो विश्व में चौथे स्थान पर है तथा साउथ कोरिया में मात्र 260 लोगों की मौत हुई है। प्रश्न यह है कि एक ही बीमारी से दुनिया के विभिन्न देशों में संक्रमित होने और इस संक्रमण से मरने वालों की संख्या में इतना अंतर क्यों है। एक चीन को छोड़कर, जहां से इस बीमारी का उद्भव हुआ, पूरा विश्व लगभग-लगभग एक समान स्थिति में था। दवा और टीका किसी के पास नहीं था। चीन से दूरी और नजदीकी का कोई अर्थ नहीं था क्योंकि सबसे नजदीक ताइवान में मात्र 07 लोगों की मृत्यु हुई है। जनसंख्या का भी कोई विशेष असर नहीं है। दक्षिण कोरिया में 260 और इटली में लगभग 31368 लोगों की मृत्यु हो चुकी है जबकि दोनों की जनसंख्या में एक करोड़ से कम का अंतर है। यहां इस बात की भिन्नता का कोई खास असर नहीं दिखाई दिया कि देश चीन जैसा कम्युनिस्ट शासन प्रणाली का है या अमेरिका, इंग्लैंड जैसे पूंजीवादी शासन प्रणाली का है। 

विश्व स्वास्थ्य संगठन ने 30 जनवरी 2020 को अंतर्राष्ट्रीय सार्वजनिक स्वास्थ्य आपात स्थिति घोषित किया था। उस समय चीन में लगभग 10,000 लोग संक्रमित थे तथा अन्य सभी देशों में कुल 98 लोग। आज 3 माह 15 दिन व्यतीत होने के पश्चात विभिन्न देशों के शासकों की कार्यशैली तथा नोवेल कोरोना से संक्रमण और मृत्यु के आंकड़ों के आधार पर यह निष्कर्ष निकाला जा सकता है कि जिस शासक ने विश्व स्वास्थ्य संगठन की 30 जनवरी 2020 की चेतावनी को गंभीरता से लिया और संवेदनशीलता का परिचय देते हुए तत्काल कार्यवाही प्रारंभ कर दी, उन देशों ने कोरोना संक्रमण रोकने में अच्छी सफलता पायी।

गिनती के कुछ देशों में जिन्होंने कोरोना संक्रमण रोकने में सफलता पायी है, उसमें ताइवान का नाम सबसे ऊपर है। कोरोना से ताइवान में सिर्फ 07 लोगों की मृत्यु हुई है। यह देश चीन का पड़ोसी है और चीन से अच्छी खासी संख्या में लोगों की आवाजाही होती है। ताइवान के लगभग 8,50,000 लोग चीन में कार्य करते हैं इसलिए ताइवान की स्थिति बड़ी नाजुक थी। विश्व स्वास्थ्य संगठन ने भी कहा था कि चीन के पश्चात कोरोना से प्रभावित यह दूसरा देश होगा लेकिन ऐसा नहीं हुआ। ताइवान में न तो विद्यालय बंद हुआ न ही कार्यालय बंद हुए। रेस्त्रां, बार, विश्वविद्यालय सब खुले रहे। ताइवान एक लोकतांत्रिक देश है। यहां के राष्ट्रपति साई इंगवेन लंदन स्कूल आफ इकनॉमिक्स से पीएचडी हैं। उपराष्ट्रपति चेन चीन जेन महामारियों के विशेषज्ञ हैं इनको 2003 में, जब सार्स का प्रकोप फैला था, तब स्वास्थ्य मंत्री बना दिया गया था।

अब उपराष्ट्रपति हैं। 31 दिसंबर-19 को जब चीन के वुहान में कोरोना विषाणु की खबर आयी, और अभी उसकी पहचान कोरोना विषाणु के रूप में नहीं हुई थी तभी से ताइवान ने चीन से आने वाली उड़ानों को सीमित कर दिया, लोगों की स्क्रीनिंग करने लगा तथा क्वारंटाइन करने लगा था। 10 फरवरी को जब ताइवान में 16 मामले ही सामने आये थे और चीन में 31,000 मामले थे, तभी ताइवान ने चीन से जुड़ी सभी उड़ानें निरस्त कर दिया था। इसके साथ ही साथ चिकित्सा उपकरण जैसे मास्क आदि का बड़े पैमाने पर उत्पादन शुरू कर दिया। जनवरी के अंत में ताइवान के पास 4.5 करोड़ सर्जिकल मास्क, 02 करोड़ एन-95 मास्क और 1000 निगेटिव प्रेसर आइसोलेशन रूम बनकर तैयार हो गये थे। इस तरह ताइवान ने चीन से अलग कोरोना का संक्रमण रोकने का मार्ग अपनाया जिसमें उसको उल्लेखनीय सफलता मिली। 

ताइवान से अलग अमेरिका, ब्रिटेन, ब्राजील जैसे देशों के साथ-साथ भारत ने भी संक्रमण को रोकने के लिए लाकडाउन का रास्ता अपनाया। लाकडाउन अर्थात पूर्णतः तालाबंदी का मार्ग जो चीन ने अपनाया था जहां यह विषाणु मिला था। चीन की स्थिति अलग थी। चीन नवंबर के अंतिम सप्ताह से ही इस विषाणु का प्रकोप झेल रहा था। 31 दिसंबर 2019 को चीन ने विश्व स्वास्थ्य संगठन से कहा कि यह कोई नया विषाणु है जो निमोनिया की दवा से ठीक नहीं हो रहा है। 07 जनवरी 20 को इस विषाणु की पहचान कोविड-19 के रूप में हुई। प्रारंभ में यह तय नहीं हो पा रहा था कि यह विषाणु केवल जानवर से मनुष्य में फैल रहा है या मनुष्य से मनुष्य में भी फैल रहा है। 21 जनवरी 2020 को चीन इस निष्कर्ष पर पहुंचा कि यह विषाणु मनुष्य से मनुष्य में फैल रहा है। 23 जनवरी 20 को हुवेई प्रांत में लाकडाउन किया गया जिस प्रांत में वुहान शहर है। चीन ने अपनी सारी ऊर्जा इस संक्रमण को रोकने तथा संक्रमित व्यक्तियों की चिकित्सा करने में लगा दी। अन्य प्रांतों से चिकित्सक वुहान बुलाये गये। रातों-रात हजारों बेडों के अस्पताल खड़े किये गये।

सोशल डिस्टेंसिंग का कड़ाई से पालन कराया गया। 30 जनवरी को विश्व स्वास्थ्य संगठन ने ‘पब्लिक हेल्थ इमरजेंसी’ की आधिकारिक घोषणा कर दिया जब चीन में 10,000 लोग संक्रमित थे तथा चीन के बाहर मात्र 98 लोग संक्रमित थे। भारत में भी केरल में एक मेडिकल की छात्रा संक्रमित पायी गयी जो वुहान से ही केरल कुछ दिन पहले आयी थी। इस प्रकार चीन एक अनजान बीमारी से लड़ रहा था जो विषाणु जनित बीमारी थी तथा मनुष्य से मनुष्य में तेजी से फैल रही थी। 30 जनवरी 2020 तक इस वायरस के विषय में इतनी जानकारी थी, जब विश्व स्वास्थ्य संगठन ने दुनिया के सभी देशों को चेतावनी जारी किया था। जो अन्य देशों के लिए इस विषाणु से मुक्ति पाने के लिए पर्याप्त थी। लेकिन अमेरिका, ब्रिटेन, इटली, ब्राजील आदि देशों के शासन प्रमुखों ने इसे गंभीरता से नहीं लिया। अमेरिकी राष्ट्रपति ट्रंप जो 24-25 फरवरी 20 को गुजरात के एक स्टेडियम में मोदी जी का आतिथ्य स्वीकारते हुए लाखों लोगों से ‘नमस्ते ट्रंप’ का अभिवादन स्वीकार करते हुए गदगद हो रहे थे, ने कहा था कि अमेरिका में यदि दो लाख लोग मर भी जाते हैं तो कोई बात नहीं है।

26 जनवरी गणतंत्र दिवस के अतिथि ब्राजील के राष्ट्रपति वोल्सेनेरो ने तो कोरोना विषाणु के अस्तित्व को ही नकार दिया था। इंग्लैंड के प्रधानमंत्री बोरिस जानसन ने कहा था कि ब्रिटेन में यदि पांच लाख लोग मर जायें तो कोई बात नहीं। हालांकि बाद में वे स्वयं इस विषाणु से संक्रमित हो गये और मरते-मरते बचे। इन्हीं शासकों को आदर्श मानने वाले मोदी जी भला इस विषाणु को कैसे गंभीरता से लेते। विश्व स्वास्थ्य संगठन द्वारा 30 जनवरी 2020 को वैश्विक स्वास्थ्य आपात की घोषणा तथा 11 मार्च 2020 को पुनः चेतावनी देने के पश्चात भारत सरकार की तरफ से 13 मार्च को आयी पहली प्रतिक्रिया में भारत सरकार के स्वास्थ्य विभाग के वरिष्ठ अधिकारी ने कहा कि भारत में कोविड-19 के कारण कोई स्वास्थ्य आपातकाल की स्थिति नहीं है। 19 मार्च को मोदी जी ने अपने संबोधन में केवल 22 मार्च को जनता कर्फ्यू के आह्वान के अतिरिक्त कुछ भी स्पष्ट नहीं कहा। हां, उन्होंने जनता से कुछ सप्ताह अवश्य मांगे थे लेकिन मांगने का उद्देश्य स्पष्ट नहीं था।

अभी विदेशी व घरेलू उड़ाने अबाध गति से चालू थीं सड़क और रेल परिवहन भी चल रहा था। फिर अचानक चार दिन बाद 24 मार्च की रात 08 बजे मोदी टी.वी. पर अवतरित हुए और 04 घंटे की अति अल्प समय की नोटिस पर संपूर्ण देश में लाक डाउन की घोषणा कर दिये। उसी दिन यानी 25 मार्च से ही आपदा प्रबंधन अधिनियम 2005, धारा-144 और महामारी एक्ट 1897 लागू कर दिये। जो लाकडाउन 24 मार्च के रात 8 बजे घोषित किया गया वह 19 मार्च को घोषित क्यों नहीं किया गया। जबकि 19 मार्च के भाषण में किसी बड़े कदम उठाने की प्रतिध्वनि स्पष्ट रूप से सुनाई दे रही थी। स्पष्ट है कि 19 मार्च तक मोदी जी लाकडाउन करने का मन बना चुके थे। लेकिन चूंकि मध्य प्रदेश में कांग्रेसी मुख्यमंत्री कमलनाथ अभी इस्तीफा नहीं दिये थे इसलिए मोदी जी ने लाकडाउन की घोषणा नहीं किया। यदि कमलनाथ कुछ और दिन इस्तीफा नहीं देते तो लाकडाउन और आगे बढ़ जाता। 20 मार्च को कमलनाथ के इस्तीफा देने तथा 23 मार्च को शिवराज सिंह चौहान के शपथ ग्रहण के पश्चात जब मोदी जी मध्य प्रदेश में बीजेपी की सरकार गठन कराकर निश्चित हो गये, तब 24 मार्च की रात 08 बजे लाकडाउन की घोषणा की।

यहां यह भी स्पष्ट करना जरूरी है कि यदि इस दौरान महाराष्ट्र में भी बीजेपी की सरकार बनाने का कुछ संकेत मिलता तो मोदी जी लाकडाउन को कुछ दिन और बढ़ा देते। आखिर विश्व के सबसे बड़े सांस्कृतिक संगठन का एकमात्र उद्देश्य भारत की राजनीतिक सत्ता पर कब्जा करना ही तो है। इसी को तो वे देशहित कहते हैं। इस प्रकार मोदी ने कोरोना विषाणु के संक्रमण पर बिल्कुल भी गंभीरता नहीं दिखाई। 30 जनवरी को भारत में पहला संक्रमण पता चलने के पश्चात तथा इसी दिन विश्व स्वास्थ्य संगठन द्वारा वैश्विक स्वास्थ्य आपातकाल की घोषणा करने के 54 दिन तक यानी 24 मार्च तक मोदी जी ने कोरोना संक्रमण से निजात पाने के लिए कोई कदम नहीं उठाया। 54 दिन का समय बहुत ज्यादा होता है, इस दौरान न तो विदेश से आने वाले लोगों को क्वारंटाइन किया गया, न ही स्क्रीनिंग की गयी, न ही यात्राओं पर प्रतिबंध लगाया गया।

इसके साथ ही चिकित्सा सुरक्षा उपकरणों जैसे मास्क, ग्लब्स, पीपीई किट, सेनेटाइजर आदि का उत्पादन बढ़ाने आदि पर कोई सक्रियता नहीं दिखाई गयी जबकि इस दौरान ताइवान जैसे देशों ने अपनी क्षमता एक दिन में एक करोड़ मास्क बनाने तक बढ़ा ली थी। आइसोलेशन वार्ड बना लिये थे। फ्रांस ने सभी परफ्यूम बनाने वाली कंपनियों को बड़े पैमाने पर सेनेटाइजर बनाने का निर्देश दे दिया था। स्पेन ने सभी प्राइवेट अस्पतालों को सरकारी नियंत्रण में ले लिया था कई देशों ने वाहन निर्माता कंपनियों को वेंटिलेटर बनाने का निर्देश दे दिया था, लेकिन भारत ने इन 54 दिनों में इस तरह का कोई कार्य नहीं किया जो कोरोना विषाणु से मनुष्य की जान बचाने के लिए आवश्यक थे।

विश्व स्वास्थ्य संगठन द्वारा 30 जनवरी 2020 को वैश्विक स्वास्थ्य आपातकाल की घोषणा कर देने के पश्चात भी मोदी ने कोरोना से बचाव हेतु कार्य करने के बजाय 54 दिन अपनी विचारधारा और राजनैतिक सत्ता पर पकड़ मजबूत करने के लिए कार्य किया। ऐसा लगता है कि वे पहले से ही तय किये थे कि नमस्ते ट्रंप कार्यक्रम के पश्चात सी.ए.ए. विरोधी आंदोलनकारियों से शाहीन बाग खाली काराया जायेगा और मध्य प्रदेश में बीजेपी सरकार बनाने तथा विदेश से अमीर भारतीयों को 102 चार्टर्ड हवाई जहाजों से भारत में बुलाने के पश्चात संपूर्ण लाकडाउन किया जायेगा। जो लोग यह समझ रहे हैं या जो लोग मोदी सरकार पर आरोप लगा रहे हैं कि बिना तैयारी के लाकडाउन किया गया वे लोग निहायत ही ईमानदार हैं जो समझते हैं कि मोदी जी व उनकी टीम बेवकूफ है या उनमें शासन की क्षमता नहीं है।

वास्तव में मोदी जी अपनी राजनीतिक विचारधारा से रत्ती भर भी नहीं हिले हैं। उन्होंने वही किया है जो ब्राह्मणवादी-पूंजीवादी विचारधारा को मानने वाला कोई भी शासक करता। इस संबंध में कनाडियन मूल की एक प्रसिद्ध लेखिका नोमी क्लेन का कथन उद्धृत करना उचित होगा। उनका कथन है कि शासक वर्ग जब भूकम्प, तूफान या महामारी जैसी आपदा का सामना करता है तो अपनी विचारधारा कहीं छोड़ के नहीं आता वरन् उसे साथ लेकर आता है। इसलिए इस तरह की आपदा में भी वह अपना वर्ग हित और भविष्य का मुनाफा देखता है। उसकी दमित इच्छाएं भी इसी समय उभरती हैं और वह उन्हें पूरा करने का भरसक प्रयास करता है। इस कथन के आलोक में मोदी सरकार का कार्य स्पष्ट रूप से अपना वर्गहित यानी बड़े पूंजीपति घरानों का हित साधने का था। लाकडाउन पूर्णतः सोच समझकर किया गया है। जिन मजदूरों को इस लाकडाउन ने सबसे अधिक शारीरिक, मानसिक और आर्थिक रूप से प्रताड़ित किया, उनको किसी भी तरह की छूट न देना मोदी जी की सोची समझी रणनीति थी।

कर्नाटक के मुख्यमंत्री वी.एस. येदुरप्पा ने अपने ट्वीट के माध्यम से बिल्डरों के साथ हुई मीटिंग का हवाला देकर जब कर्नाटक से उत्तर भारत आने वाली ट्रेनों को निरस्त कर देने की सूचना दी तो कोई भी समझ सकता है कि पूंजीपतियों के दबाव में ही अचानक लाकडाउन की घोषणा की गयी। इस देश का पूंजीपति चाहता था कि लाकडाउन के दिन तक मजदूरों के श्रम का शोषण करें तथा जैसे ही लाकडाउन खुले, तत्काल ही अपने श्रम को बेचने के लिए मजदूर, पूंजीपतियों को उपलब्ध हो जायें। यह तभी संभव हो सकता था जब अचानक लाकडाउन घोषित कर दिया जाता और रेल तथा सड़क परिवहन पर कड़ाई से प्रतिबंध लगा दिया जाता। वही किया गया। पूंजीपति यह भी चाहता था कि लाकडाउन की अवधि में मजदूरों के खाने-पीने और रहने पर होने वाले खर्च का बोझ या तो मजदूर स्वयं उठायें या सरकार उठाये। यही हुआ भी।

सरकार ने मजदूरों का बोझ अपने तरीके से कागजों पर उठाया और जब मजदूर अपना बोझ उठाने लायक नहीं रह गये तो अपने मूल निवासों की तरफ लौटने लगे। 49 करोड़ मजदूरों का बड़े-बड़े शहरों से अपने मूल निवास की तरफ लौटना अभी भी जारी है। मजदूरों का पलायन हमारे समय के इतिहास की सबसे बड़ी त्रासदी बन गयी है। कुछ लोग इसे 1947 के विभाजन में हुए पलायन से जोड़कर देख रहे हैं। यह त्रासदी तो समाप्त हो जायेगी लेकिन इसका धब्बा जो वर्तमान सरकार या शासकों पर लग गया है वह कभी भी नहीं मिटेगा। स्पष्ट है कि मजदूर श्रम पैदा करने की मशीन बनकर रह गये हैं।

इसीलिए पूंजीवादी अर्थव्यवस्था में श्रमिकों को किसी तरह का दिया गया मानवाधिकार बेमानी हो जाता है। वैसे भी ये सभी मजदूर विनिर्माण क्षेत्र, छोटे-मझोले उद्योगों में कार्य करने वाले, पटरी पर सब्जी, भूजा आदि का ठेला लगाने वाले तथा आटो ड्राइवर आदि हैं। इन्हें प्रवासी श्रमिक कहा जाता है। इनकी भारत में इस समय संख्या 46 करोड़ है। इन्हीं के श्रम से जीडीपी का सूचकांक ऊपर नीचे होता है जिस पर पक्ष विपक्ष के नेता तथा टी.वी. के एंकर चिल्लाकर-चिल्लाकर अपनी टी.आर.पी. बढ़ाते हैं। इनको ट्रेड यूनियन का संरक्षण भी नहीं प्राप्त है। इनके साथ यही होना तय था। 

अब इस बिंदु पर विचार कर लेना चाहिए कि आखिर सरकार ने लाकडाउन के चौथे  चरण की घोषणा के साथ 20 लाख करोड़ के तथाकथित राहत पैकेज की घोषणा तो कर दी लेकिन इस पैकेज में इन मजदूरों के हिस्से कुछ क्यों नहीं आया। उल्टे मध्य प्रदेश एवं उत्तर प्रदेश में भाजपा सरकारों ने मजदूरों के पक्ष में जो कानून थे उन कानूनों को तीन साल के लिए स्थगित कर दिया है। यहां भी नोमी क्लेन का कथन हमें सहायता प्रदान करेगा। हमारे देश की सत्ता इस समय जिनके हाथ में वे ब्राह्मणवादी पूंजीवादी लोग हैं। डा. आंबेडकर कहते थे कि भारत में मजदूर वर्ग के दो दुश्मन हैं एक ब्राह्मणवाद दूसरे पूंजीवाद। आज दोनों का गठबंधन सरकार चला रहा है। मोदी जी इसके अगुवा हैं। मोदी ने इस विपत्ति में वर्गहित के साथ-साथ वर्ण हित का भी बखूबी ध्यान रखा है। ये सभी मजदूर वर्ण व्यवस्था के अनुसार शूद्र वर्ण में आते हैं।

शूद्र वर्ण का कार्य होता है ऊपर के तीनों वर्णों अर्थात् ब्राह्मण क्षत्रिय और वैश्य की सेवा करना और सेवा के बदले में मजदूरी की मांग नहीं करना बल्कि जो कुछ मिल जाये उसी पर गुजारा करना। इस दर्शन के अनुसार मोदी को यही करना चाहिए जो वे कर रहे हैं अर्थात 500 रुपये खाते में भेज रहे हैं तथा 5 किलोग्राम अनाज 1 किलोग्राम दाल घर पहुंचा रहे हैं। इस बात को यहीं छोड़ देने पर बात अधूरी रह जायेगी। मूल बात यह है कि इन मजदूरों में भी मजदूर होने की चेतना नहीं है। न ही इनकी चेतना इतनी विकसित है कि संविधान में प्रदत्त नागरिकों के अधिकारों से परिचित हों। इसीलिए बड़ी ही शांति से पुलिस को घूस देते हुए, पुलिस की लाठियां खाते हुए, उठक-बैठक करते हुए, बिना खाये, बिना पानी पिये, जीते मरते अपने वतन को लौट रहे हैं। केंद्र में पूंजीवादी व ब्राह्मणवादी विचारधारा की गठबंधन वाली सरकार कार्य कर रही है।

अमेरिका में 30 करोड़ जनसंख्या पर 2 ट्रिलियन डालर का राहत पैकेज घोषित किया जाता है जो अमेरिका की जी.डी.पी. का लगभग 10 प्रतिशत है तथा भारत में 138 करोड़ जनसंख्या पर 1.76 लाख करोड़ रुपये का राहत पैकेज अब तक घोषित किया गया है जो भारत की जी.डी.पी. का 1.00 प्रतिशत से भी कम है। 12 मई को घोषित किये गये 20 लाख करोड़ के पैकेज की हकीकत भी सामने आ गयी है जिसमें इन मजदूरों को कुछ नहीं मिलेगा। जबकि अभिजीत बनर्जी, रघुराम राजन जैसे अर्थशास्त्रियों के साथ-साथ विपक्ष की नेता सोनिया गांधी जैसे लोग मोदी सरकार से अपील कर रहे हैं कि प्रवासी मजदूरों को और अन्य पीड़ित शोषित नागरिकों को कम से कम 6 माह का राशन तथा 5000 से 10000 रुपये प्रतिमाह इनको दिया जाये लेकिन सरकार किसी की नहीं सुन रही है। इस समय देश के गोदामों में बफर स्टाक के रूप में 77 मिलियन टन अनाज भरा पड़ा है जो निर्धारित बफर स्टाक का ढाई गुना है और रवि की फसल भी तैयार हो चुकी है। लेकिन सरकार मजदूरों को राशन नहीं देना चाहती है।

इसका कारण स्पष्ट है यदि प्रवासी मजदूर 6 माह का राशन और 5000 से 10000 रुपये तक नगद अपने घर पर पा जायेंगे तो वे 6 माह तक काम पर नहीं लौटेंगे जो कोरोना के संक्रमण से बचाव के लिए अतिआवश्यक है। लेकिन सरकार पूंजीपतियों, बिल्डरों और ठेकेदारों के हितों की संरक्षक है न कि मजदूरों के जीवन की। इसलिए सरकार चाहती है कि मजदूर कार्यस्थल पर ही रूकें या घर पर आयें तो अभाव के कारण जल्द ही कार्य स्थल पर लौट जायें। सरकार की इसी कुत्सित मजदूर विरोधी सोच के कारण, प्रवासी मजदूरों की दुर्घटना, भूख, साधनहीन यात्रा, बीमारी और पुलिस की पिटाई से भी मौत हो रही है। प्रथम चरण के लाकडाउन के अंतिम दिन 13 अप्रैल तक इस तरह होने वाली मौतों की संख्या 195 थी जबकि कोरोना से होने वाली मौतों की संख्या 13.4.20 तक 331 थी।

लाकडाउन के दौरान नान वायरस डेथ पर नजर रखने वाली जी.एन.तेजस की टीम का आंकड़ा बताता है कि 14.05.20 तक इस तरह से होने वाली कुल मौतों की कुल संख्या 386 हो चुकी है और कोरोना से होने वाली मौतों की संख्या 14.05.20 तक 2564 है। अभी तक कोरोना से मरने वालों की सामाजिक और आर्थिक पृष्ठभूमि नहीं बताई जा रही है। जिस दिन यह सच्चाई सामने आयेगी उस दिन स्पष्ट होगा कि लाकडाउन और कोरोना से मरने वाले मजदूर ही हैं चाहे वे बौद्धिक श्रम करने वाले डाक्टर, नर्स, मेडिकल स्टाफ हो या पुलिस स्टाफ हो। इस तरह के तमाम अध्ययन यह साबित करते हैं कि आपदा या स्वास्थ्य संबंधी खतरे से सामाजिक, आर्थिक रूप से कमजोर और उत्पीड़ित लोग ही ज्यादा नुकसान उठाते हैं। नुकसान चाहे जन का हो या धन का। 

मोदी सरकार ने इस आपदा का इस्तेमाल अपनी वैचारिकी को लोगों की सोच में बिठाने का कार्य किया। मोदी जी द्वारा जनता के लिए दिये गये कार्यक्रमों के परिणाम इस दावे की पुष्टि करते हैं 22 मार्च को जनता कर्फ्यू के पश्चात 5 मिनट तक थाली बजाने के कार्यक्रम को विपक्षी बेवजह का कार्यक्रम बताकर खारिज कर रहे थे, लेकिन इसकी एक खास वजह सेल्फ पुलिसिंग के सिद्धांत से अपने समर्थकों को परिचित कराना था। इसका अर्थ है कि यदि कोई मोदी द्वारा दिये निर्देशों का पालन नहीं करता है तो पड़ोसी को यह नैतिक अधिकार मिल जाता है कि वह अपने पड़ोसी से निर्देशों का पालन कराये। यह लाकडाउन के पूर्व की तैयारी थी। इसका प्रभाव 05 अप्रैल को दिया और मोमबत्ती जलाने के कार्यक्रम के दौरान दिखाई दिया। जिन परिवारों ने 05 अप्रैल को दीया मोमबत्ती या दीया नहीं जलाया उनके ऊपर उनके पड़ोसियों ने हमला किया।

बी.बी.सी. की एक खबर के अनुसार हरियाणा के एक गांव ठाठरथ में नरेंद्र मोदी की अपील पर 5 अप्रैल को रात 9 बजकर 9 मिनट तक बालकनी में मोमबत्ती या दीया न जलाने पर हिंदू पड़ोसियों ने चार मुसलमान भाइयों पर धारदार हथियारों से हमला कर दिया जो गंभीर रूप से घायल हो गये। जिनका जिंद के अस्पताल में तथा बाद में रोहतक के अस्पताल में इलाज हुआ। इस कार्यक्रम का मुख्य उद्देश्य हिंदू और मुसलमानों के बीच नफरत की खाई को और चौड़ा करना था जिसमें बीजेपी सफल हुई। नोमी क्लेन का यह कथन की महामारी या किसी भी तरह की आपदा में शासक वर्ग अपनी विचारधारा से ऊपर उठकर नागरिकों को मदद करने के लिए कार्य नहीं करता बल्कि विपत्ति काल में भी अपनी विचारधारा को मजबूत करने के लिए ही कार्य करता है। कोरोना वैश्विक महामारी में मोदी की कार्यशैली नोमी क्लेन के कथन को पुष्ट कर रही है।

कोरोना वैश्विक महामारी में जनता के प्रति दायित्वों का निर्वाह करने का रास्ता चुनने के बजाय मोदी जी ने एक आत्ममुग्ध तानाशाह की भांति अपनी छवि चमकाने का रास्ता चुना। पहले ही दिन से जब कोरोना का संक्रमण अभी फैलना शुरू ही हुआ था, केंद्र सरकार के मुखिया के तौर पर मोदी ने कुछ किया भी नहीं था, तभी से अपने आपको मोदी एक मसीहा की भांति जनता के सामने प्रस्तुत करने लगे थे। 24 मार्च के संबोधन में तो उन्होंने हद ही कर दी। उन्होंने कहा कि समर्थ देश भी कोरोना संक्रमण को नहीं रोक पा रहे हैं सोशल डिस्टेंसिंग ही एकमात्र रास्ता है। आपके जीवन को बचाना मेरी प्राथमिकता है।

मैं यह बात प्रधानमंत्री के नाते नहीं आपके परिवार के सदस्य के नाते कह रहा हूं और यह कहते-कहते 21 दिन का लाकडाउन घोषित कर दिया। भारत जैसे देश में जहां 99 प्रतिशत बुद्धिजीवी ब्राह्मण हैं उन्होंने मोदी को मसीहा कहना शुरू कर दिया। इस भाषण में मोदी ने प्रधानमंत्री के दायित्वों का जिक्र नहीं किया जबकि भारत की जनता ने उनको प्रधानमंत्री बनाया है न कि घर का सदस्य। केवल भावनात्मक रूप से ब्लैकमेल करने के अलावा इनके चारों भाषणों में कुछ नहीं था। 14 अप्रैल के भाषण में कहा कि दुनिया के सामर्थ्यवान देशों की तुलना में हमारी स्थिति अच्छी है। फिर तीन मई तक लाकडाउन बढ़ा दिया। इस दौरान जो मजदूर कार्यस्थल पर फंस गये थे तथा लगातार अपने मूल प्रदेशों की ओर लौट रहे थे उनकी कोई चर्चा भाषण में नहीं थी और तो और मोदी जी ने अपने 3 संबोधनों में ‘मजदूर’ या ‘श्रमिक’ शब्द ही प्रयोग ही नहीं किया। 12 मई के भाषण में मजदूरों के दुःख दर्द को बड़ी बेशर्मी से तपस्या और बलिदान घोषित कर दिया। 

4 घंटे की नोटिस पर दुनिया का सबसे बड़ा लाकडाउन घोषित किया गया जिससे एकाएक इन मजदूरों सहित 80 करोड़ जनता अपने संवैधानिक अधिकारों से वंचित हो गयी। लाकडाउन करते समय संवैधानिक प्रावधानों की धज्जियां तो उड़ाई ही गयी साथ ही साथ मानवीय मूल्यों का जरा सा भी ध्यान नहीं रखा गया। भारत की 50 प्रतिशत जनता के पास अगले दिन के भोजन का इंतजाम नहीं रहता है। करोड़ों दिहाड़ी मजदूर रोज कमाते हैं और खाते हैं। तमाम लोग अपने रिश्तेदारी में गये थे, नौकरी या व्यापार संबंधी यात्राओं पर थे। वे वहीं के वही रूक गये। जबकि यह कोई ऐसी इमरजेंसी नहीं थी। क्या एक सप्ताह या 3-4 दिन का समय लाकडाउन के पहले नहीं दिया जा सकता था। यदि 19 मार्च को ही प्रधानमंत्री जी यह कह देते कि हो सकता है कि अगले हफ्ते में या 3-4 दिनों के पश्चात हमें देश में संपूर्ण लाकडाउन करना पड़ सकता है तब भी लोग अपने लिए सुरक्षित स्थानों पर चल जाते। लेकिन मोदी जी ने ऐसा नहीं किया।

इससे स्पष्ट है कि न तो इनके अंदर मानवता नाम की चीज है न ही मनुष्य की गरिमा का ही इनको आभास है। बिलकुल नोटबंदी की तरह उन्होंने  लाकडाउन भी कर दिया। जिस तरह से नोटबंदी का कोई सकारात्मक प्रभाव अर्थव्यवस्था पर नहीं पड़ा था उसी तरह लाकडाउन का भी कोई सकारात्मक प्रभाव कोरोना संक्रमण पर पड़ता दिखाई नहीं दे रहा है। अर्थव्यवस्था पर तो इसका नकारात्मक प्रभाव पड़ना तय ही है। मोदी जी ने 80 करोड़ लोगों को गरिमामय जीवन तथा समानता के अधिकार से बेवजह ही वंचित कर दिया। प्रसिद्ध अर्थशास्त्री जयति घोष का मानना है कि लाकडाउन से हुआ दो दिन का आर्थिक नुकसान नोटबंदी से हुए संपूर्ण नुकसान से ज्यादा है।

वास्तव में भारत की जो सामाजिक, आर्थिक परिस्थिति है उसमें लाकडाउन कहीं से भी उपयुक्त नहीं था। यहां स्कूल, कालेज, बड़े माल, सिनेमाघर इत्यादि बंद कर दिया जाता तथा बस, रेल यातायात सीमित कर दिया जाता है। फैक्ट्रियों और विनिर्माण के क्षेत्र में सोशल डिस्टेंसिंग का पालन करते हुए विदेशी यात्रा से आये हुए लोगों की जांच पर बल दिया जाता है तो हम कोरोना संक्रमण से बहुत अच्छी तरह निपट सकते थे। यह माडल ताइवान या दक्षिण कोरिया में अपनाया गया। जिसकी आज बड़ी तारीफ हो रही है। मोदी जी ने आंख मूंद कर चीन का माडल अपना लिया। आंख मूंद कर इसलिए कहना पड़ रहा है कि चीन ने केवल हुवेई प्रांत को संपूर्ण लाकडाउन किया गया था, अन्य प्रांत उसके खुले हुए थे जबकि मोदी जी ने संपूर्ण देश को लाकडाउन कर दिया। जो हमारे देश के लिए बिल्कुल ही उपयुक्त नहीं था।

आखिर मोदी जी ऐसा निर्णय क्यों लेते हैं जिससे तानाशाही झलकती है। वास्तव में मोदी जी भले ही लोकतांत्रिक ढंग से चुने गये हैं लेकिन वे अपने आपको तानाशाह ही मानते हैं। जैसे हर तानाशाह यही मानता है कि वह जो निर्णय ले रहा है, उस समय विशेष के लिए वही सर्वश्रेष्ठ निर्णय है। वे इसे स्वीकार भी करते हैं। वे कहते हैं कि मैं मनुष्य हूं मुझसे गलतियां हो सकती हैं लेकिन मेरी नीयत में खोट नहीं है। अब मोदी जी को कौन समझाये कि एक मनुष्य से गलती हो सकती है इसलिए प्रधानमंत्री को इतना भारी भरकम मंत्रालय दिया जाता है। सचिवों की फौज रहती है, विशेषज्ञों की टीम रहती है, लेकिन आप किसी की सुने तब तो। आपको तो हार्वर्ड के विशेषज्ञों पर नहीं अपने हार्डवर्क पर भरोसा ज्यादा है। आप हर समय अपने गांव के पोखरे से मगरमच्छ का बच्चा ही पकड़ रहे होते हैं। आप शायद भूल गये हैं कि प्रधानमंत्री की नीयत और नीति दोनों देखी जाती है जिसके विषय में एक अमेरिकी अर्थशास्त्री ने कहा है कि मोदी को पता ही नहीं है कि पालिसी क्या होती है। मोदी जी यदि संवैधानिक दायित्वों का पालन लोकतांत्रिक मर्यादाओं में रहकर करते तो देश को इतना बड़ा अभूतपूर्व नुकसान नहीं उठाना पड़ता जिसका मानवीय पहलू बड़ा ही दर्दनाक है।

जिस लाकडाउन को मोदी जी ने अंतिम अस्त्र बताकर संपूर्ण देश में लागू कर दिया, उसे संवैधानिक और कानूनी संदर्भ में भी देखना आवश्यक है। सर्वप्रथम यह जानना जरूरी है कि लाकडाउन शब्द का उल्लेख न तो भारत के किसी कानून में है न ही संविधान में। लाकडाउन का सर्वप्रथम उपयोग अमेरिका के एक स्कूल में 1970 के दशक में किया गया था जब कुछ अमेरिकी बच्चों ने स्कूल में आपस में गोलीबारी कर ली थी तब स्कूल को लाकडाउन किया गया था। उसके बाद चीन ने वुहान को इस साल कोरोना से निपटने के लिए किया। भारत में धारा-144, महामारी एक्ट 1897 एवं आपदा प्रबंधन अधिनियम 2005 के अंतर्गत संपूर्ण देश में लाकडाउन लागू किया गया। इसी के साथ युद्ध जैसा माहौल भी बनाया गया और प्रधानमंत्री ने यहां तक कहा कि युद्ध के समय महिलायें अपने गहने तक बेंच देती हैं।

आज जब तमाम प्रवासी मजदूरों की पत्नियां अपने गहने बेचकर घर आने का टिकट खरीद रही हैं तो स्पष्ट हो जाता है कि इस युद्ध को किसे लड़ना है और कौन दर्शक बनेगा। क्योंकि युद्ध में सभी लोग नहीं लड़ते हैं। कुछ लोग लड़ते हैं तथा शेष मूकदर्शक बने रहते हैं। आपदा प्रबंधन अधिनियम 2005 की धारा 12 (3) के अनुसार आपदा से जीवन की हानि होने पर अनुग्रह सहायता एवं जीविका की बहाली के लिए सहायता का प्रावधान किया गया है। लेकिन प्रधानमंत्री जी न तो कोरोना से संक्रमण के कारण मृत्यु होने पर कोई सहायता दे रहे हैं न ही लाकडाउन के कारण भूख, दुर्घटना या दवा न मिलने के कारण होने वाली मौतों पर ही कोई सहायता देने की घोषणा कर रहे हैं। इस गुत्थी को समझने के लिए भी नोमी क्लेन के कथन का सहारा लेना उचित होगा। भाजपा संघ का राजनीतिक संगठन है संघ की राजनीति दीनदयाल उपाध्याय के विचारों पर चलती है।

दीनदयाल उपाध्याय ‘कल्याणकारी राज्य’ की अवधारणा के विरोधी थे। नेहरु की कल्याणकारी राज्य की अवधारणा के विरोध में ही दीनदयाल उपाध्याय ने अपना अन्त्योदय दर्शन विकसित किया था जिसका मूल तत्व था अमीर अपना ख्याल खुद रखें तथा गरीबों के कल्याण की बात भी सोचे। यही उनकी अन्त्योदय यानी अंतिम व्यक्ति के कल्याण की अवधारणा है। दीन दयाल उपाध्याय अंतिम व्यक्ति को अधिकार संपन्न नहीं बनाना चाहते थे जैसा कि ‘कल्याणकारी राज्य’ की अवधारणा में निहित है। यही दर्शन ब्राह्मणवाद का भी आधार है। शूद्रों और अन्त्यजों को जूठन पर गुजारा करना चाहिए। कोरोना से तथाकथित युद्ध के समय में मोदी जी इसी विचारधारा को पुष्पित पल्लवित कर रहे हैं। मोदी जी की अपील कि गरीब परिवारों को देखरेख अमीर करें, किसी को नौकरी से न निकालें, संघ की विचारधारा को स्थापित करने का सूत्र है।

जबकि कल्याणकारी राज्य की अवधारणा तथा संवैधानिक प्रावधानों के अनुसार इस देश के प्रत्येक नागरिक को गरिमामय जीवन निर्वाह का अधिकार है तथा नागरिक का प्रत्येक अधिकार राज्य का दायित्व है जिसे मोदी जी निभाने के बजाय अनर्गल प्रलाप कर रहे हैं। संविधान के अनुच्छेद 21 में गरिमामय जीवन का अधिकार जिसे आपातकाल में भी स्थगित नहीं किया जा सकता है, उसकी मोदी जी ने ऐसी तैसी कर दी। सड़क पर हजारों मील पैदल चलते भूखे, नंगे पैर मजदूर, रेलवे की पटरियों पर मजदूरों की लाशों के साथ बिखरी पड़ी रोटियां इसकी ज्वलंत प्रमाण हैं। 

अब कोविड-19 से संबंधित कुछ अंतर्राष्ट्रीय बहसों पर नजर डालते हैं। इस समय होने वाली बहसों का मुख्य विषय यह है कि कोरोना पूरी दुनिया की अर्थव्यवस्था को तबाह करने के लिए चीन द्वारा वुहान के लैब में निर्मित वायरस है। इस तर्क को खुद अमेरिकी राष्ट्रपति ट्रंप बार-बार दुहरा रहे हैं। कई देशों ने इसी आधार पर कोरोना से होने वाले नुकसान की भरपाई के लिए चीन से मुआवजा भी मांगा है। ट्रंप ने इस वायरस को कई बार चीनी वायरस तथा वुहान वायरस के नाम से भी संबोधित किया। उधर चीन भी कह रहा है कि अमेरिका ने यह वायरस चीन में छोड़ा जिससे चीन को कमजोर किया जा सके। भारत सरकार की तरफ से अभी कोई पक्ष तय नहीं किया गया है। लेकिन भारत में भक्तों का एक समूह यही मान रहा है कि चीन के वुहान लैब में कोरोना तैयार किया गया है। वैसे सच्चाई जो भी है लेकिन वैज्ञानिक समुदाय इस मुद्दे पर एकमत नहीं है।

इसलिए जब तक वैज्ञानिक कुछ निष्कर्ष पर न पहुंचे भारतीयों के लिए यह बहस बेमानी है। इसी के साथ एक दूसरी बहस है कि दुनिया के अन्य देशों को कोरोना से हुए नुकसान को चीन द्वारा आर्थिक मुआवजा देकर भरपाई की जानी चाहिए। जर्मनी ने तो दावा भी पेश कर दिया है। इस बहस को हम इस समय तार्किक परिणति तक ले जा सकते हैं। प्रथम विश्व युद्ध एवं द्वितीय विश्व युद्ध के बाद जर्मनी को मुआवजा देना पड़ा था। यहीं से यह विचार लोगों में फैलाया जा रहा है। लेकिन हम यह भूल रहे हैं कि दोनों विश्वयुद्धों में जर्मनी हारा हुआ देश था। सामरिक और आर्थिक रूप से टूट चुका था। क्या चीन भी ऐसा ही है और वह युद्ध था जिसकी जिम्मेदारी जर्मनी पर थोपी गयी थी। बहुत सारे वायरस दुनिया के अलग-अलग कोने से प्राप्त होते हैं तथा पूरी दुनिया को प्रभावित करते हैं तो क्या इसके लिए उस विशेष देश को जिम्मेदार ठहराया जा सकता है। बिल्कुल नहीं। वास्तव में इस तरह अर्थहीन मुद्दे पर बहस इसलिए हो रही है कि कोविड-19 की उत्पत्ति के मूल कारणों को बहस से दूर रखा जाये। क्योंकि मूल कारण पूंजीवादी उत्पादन पद्धति है। 

कोविड-19 कोरोना परिवार का एक वायरस है। इसी परिवार का एक वायरस सार्स ने 2003-04 में दुनिया के कई देशों में तबाही मचायी थी। कोविड-19 सार्स-2 है। यह वायरस पशुओं से ही मनुष्यों में आता है। इससे पहले स्वाइन फ्लू  H1 N1  ने भी पूरी दुनिया में लाखों की जान ली थी। यह मैक्सिको से शुरू हुआ था और शुरू में इसे भी मैक्सिकन फ्लू का नाम दिया गया जैसे इस समय कोरोना को चाइनीज वायरस या वुहान वायरस कहने का प्रयास किया जा रहा है। लेकिन स्वाइन फ्लू के विषय में अब बहुत कुछ पता चल गया है। यह औद्योगिक उत्पादन वाले सुअरों से मनुष्यों में आया। मैक्सिको के एक सुअर मीट उद्योग से इसकी शुरुआत हुई। स्क्रीप्स रिसर्च इंस्टीट्यूट के अनुसार कोविड-19 जिस तरह विकसित हुआ है और जिस तरह उसकी जीन संरचना है, उसके लिए पशुओं की उच्च संख्या घनत्व आवश्यक है और कम जगह में अधिक पशुओं को रखना औद्योगिक पशुपालन की आवश्यक शर्त है।

मुर्गा और सुअर का उत्पादन ऐसी ही परिस्थितियों में होता है। चूंकि सुअर की प्रतिरोधक क्षमता मनुष्यों से अपेक्षाकृत अधिक मिलती-जुलती है इसलिए यह संभावना प्रबल है कि कोविड-19 सुअर से ही मनुष्यों में आया है। एक दूसरी थीसिस चमगादड़ से भी मनुष्यों में आने की है लेकिन यह तार्किक तौर पर उचित नहीं प्रतीत होती है। जो भी हो, निकट भविष्य में स्वाइन फ्लू की तरह वैज्ञानिक समुदाय इसका भी पता लगा लेगा। लेकिन इतना तो स्पष्ट है कि पूंजीवादी उत्पादन पद्धति जिसमें केवल और केवल मुनाफे के लिए उत्पादन किया जाता है, मानव जीवन तथा प्रकृति के लिए बहुत ही घातक है। प्रकृति के साथ छेड़छाड़ विशेषकर जंगलों के कटते जाने के कारण कई खतरनाक वाइरस, जो केवल जंगलों में रहते हैं, के मनुष्यों के संपर्क में आने की संभावना बढ़ती चली जा रही है। महामारियों के इतिहास को हमें नहीं भूलना चाहिए।

1918-20 के दौर में स्पेनिश फ्लू से 5 करोड़ लोगों की मृत्यु हुई थी, 1957 में एशियन फ्लू से 11 लाख तथा 2009-10 में स्वाइन फ्लू  से 5.75 लाख लोग मारे गये हैं। कोविड-19 का संकट पिछली कई सदियों में मानवजाति पर आने वाले संकटों में सबसे भयानक विकराल और बड़ा है। इन परिस्थितियों में हमें एंगेल्स की चेतावनी याद रखनी चाहिए। उन्होंने कहा था कि हमें हमेशा याद रखना चाहिए कि हम किसी विदेशी आक्रांता की तरह प्रकृति पर शासन नहीं करते, बल्कि हम अपने हाड़मांस व दिमाग के साथ प्रकृति का हिस्सा हैं और प्रकृति के बीच ही हमारा अस्तित्व है। प्रकृति पर हमारा नियंत्रण इस तथ्य में निहित है कि हम दूसरे जीवों के मुकाबले प्राकृतिक नियमों को बेहतर तरीके से जानते हैं, और उसे सही तरीके से लागू करते हैं।

निष्कर्षतः यह कहना उचित होगा कि आज जिस तरह कोरोना वैश्विक महामारी से मानवजाति जूझ रही है, वह दुनिया के अधिकांश देशों द्वारा अपनायी जाने वाली पूंजीवादी उत्पादन पद्धति की तार्किक परिणति है। यदि इस उत्पादन प्रणाली से मानवजाति किनारा नहीं करती है तो भविष्य में ऐसी या इससे भयानक महामारियों का सामना करना पड़ सकता है। जिन देशों के शासकों ने समय रहते संपूर्ण मानवजाति के प्रति संवेदनशीलता का परिचय दिया तथा जिन देशों का पब्लिक हेल्थ सिस्टम मजबूत था उन्होंने अच्छा काम किया। क्यूबा, ताइवान, दक्षिण कोरिया सहित अपना केरल प्रदेश इसका उदाहरण है। मोदी जी का तानाशाही रवैया और संघ की मनुष्य विरोधी विचारधारा ने हमें अपने देश के नागरिकों की दर्दनाक होती मौतों का मूकदर्शक बने रहने पर मजबूर कर दिया है। करोड़ों जनता को अब अपनी सरकार चुनने का समय आ गया है क्योंकि सरकार ने अब स्पष्ट रूप में अपने लिए जनता चुन लिया है।

(डॉ. अलख निरंजन गोरखपुर विश्वविद्यालय के राजनीति शास्त्र विभाग से पी-एचडी हैं। विभिन्न पत्र-पत्रिकाओं में नियमित लेखन करते हैं। इनकी दो महत्वपूर्ण किताबें- ‘नई राह के खोज में समकालीन दलित चिंतक’ और ‘समकालीन भारत में दलित: विरासत, विमर्श विद्रोह’ प्रकाशित हैं।) 

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