Thursday, March 28, 2024

हिरासत में अत्याचार से व्यक्ति की मौत सभ्य समाज में स्वीकार्य नहीं : सुप्रीम कोर्ट

उच्चतम न्यायालय कई बार कह चुका है कि हिरासत में अत्याचार से किसी व्यक्ति की मौत सभ्य समाज में स्वीकार्य नहीं है। इसके बावजूद देश के किसी न किसी कोने से कस्टोडियल डेथ की ख़बरें आती ही रहती हैं जो बर्बर पुलिस व्यवस्था की पर्यायवाची हो गयी हैं। उच्चतम न्यायालय ने ओडिशा में पुलिस की हिरासत में पिटाई से एक व्यक्ति की मौत के मामले में सुनवाई के दौरान बृहस्पतिवार को कहा कि पुलिस हिरासत में इस कदर अत्याचार से व्यक्ति का मर जाना एक सभ्य समाज में स्वीकार्य नहीं है। उच्चतम न्यायालय ने कहा कि यह सिर्फ मरने वाले के प्रति अपराध नहीं बल्कि पूरी मानवता के खिलाफ है और संविधान के अनुच्छेद 21 के तहत मिले अधिकारों का उल्लंघन है।

जस्टिस अशोक भूषण और अजय रस्तोगी की पीठ 1988 के एक मामले में सुनवाई कर रही थी। इसमें पुलिस हिरासत में दो पुलिसवालों ने एक आरोपी को इस कदर पीटा था कि उसे कई चोटें आईं और उसकी मौत हो गई। पीठ ने इस अपराध को धारा 324 के तहत शामिल करने से इनकार करते हुए कहा कि मृतक के परिवार को मुआवजा दिया जाना चाहिए। पीठ ने कहा कि मृतक पर हिरासत में हुई हिंसा को सभ्य समाज में स्वीकार नहीं किया जा सकता। इस तरह की मौत अपमानजनक है। पुलिस हिरासत में पिटाई किसी एक के लिए नहीं बल्कि पूरे समाज के लिए भयभीत करने वाला रवैया है।

पीठ ने कहा, लोग पुलिस के पास इस आस से जाते हैं कि उन्हें व उनकी संपत्ति को सुरक्षा देगी और जब पुलिस ही अन्याय और अपराध करने लगे तो ऐसे लोगों को सख्त सजा दी जानी चाहिए। जब संरक्षक ही भक्षक बन जाए तो यह बड़ी चिंता का विषय है। पीठ ने हालांकि इस मामले में दोनों दोषियों जिनकी उम्र 75 वर्ष है की सजा को कम कर दिया। साथ ही दोनों को मृतक के परिजनों को 3.5 लाख रुपये मुआवजा देने का निर्देश दिया।

पीठ ने कहा कि लोग थाना इस उम्मीद के साथ जाते हैं कि पुलिस की तरफ से उनकी और संपत्ति की रक्षा की जाएगी, अन्याय और अत्याचार करने वालों को दंडित किया जाएगा। पीठ ने कहा कि जब समाज के रक्षक, लोगों की रक्षा करने के बजाए बर्बरता और अमानवीय तरीका अपनाते हुए थाना आने वाले किसी व्यक्ति की पिटाई करते हैं तो यह लोगों के लिए चिंता की बात है।

हाईकोर्ट के फैसले के खिलाफ और सजा में नरमी बरतने के लिए दो पूर्व पुलिस अधिकारियों ने उच्चतम न्यायालय में एक याचिका दाखिल की थी। ओडिशा में एक थाने में दोनों आरोपी पुलिस अधिकारियों ने एक व्यक्ति की निर्ममतापूर्वक पिटाई की थी, जिससे उसकी मौत हो गई।

गौरतलब है कि 1948 में संयुक्त राष्ट्र का मानवाधिकार पर जारी घोषणा-पत्र का अनुच्छेद-5 एवं आईसीसीपीआर के धारा-7 भी साफ शब्दों में घोषणा करती है कि किसी भी व्यक्ति को टार्चर, दर्दनाक यातना, गैर इंसानी या अपमान भरा सलूक या सज़ा का शिकार नहीं बनाया जाएगा। इसी भावना और बुनियादी स्वतंत्रता के दर्शन को फिर हमारे देश के लोकतांत्रिक संविधान में महत्व देते हुए संविधान की भूमिका तथा मूलभूत अधिकारों के अध्याय में शामिल किया गया। संविधान के अनुच्छेद-21 में प्रत्येक नागरिक के लिए मानव सम्मान यानी स्वतंत्रता के साथ जीवन जीने और शोषण से सुरक्षा का अधिकार स्वीकार किया गया। इस मूलभूत अधिकार की सुरक्षा को विशेष महत्व देते हुए इसके संरक्षण के लिए न्यायिक व्यवस्था बनाई गई, हाईकोर्ट व उच्चतम न्यायालय  को विशेष अधिकार प्रदान किए गए।

इन सभी तथ्यों के बावजूद भारतीय संविधान या अन्य क़ानूनों में कहीं भी टॉर्चर की परिभाषा या इसकी मनाही का उल्लेख टॉर्चर शब्द के साथ नहीं है, बल्कि सामान्य प्रावधानों में हिरासत के दौरान मौत के मामले में इंडियन पिनल कोड की धारा-302 का ही संदर्भ लिया जाएगा।

उच्चतम न्यायालय ने मानवाधिकार संरक्षण के पक्ष में बहुत सी बातें अपने फैसलों में दर्ज की हैं, जैसे 2010 में उच्चतम न्यायालय ने कहा था कि अगर रक्षक ही भक्षक बन जाएं तो सभ्य समाज का गला घुट जाएगा, पुलिस अगर आपराधिक कार्रवाईयों में शामिल पाया जाए तो उस अपराध के मामले में आम लोगों को दी जाने वाली सज़ाओं से ज्यादा कठोर सज़ा के हक़दार यह पुलिस वाले होने चाहिए, क्योंकि पुलिस का कर्तव्य लोगों की रक्षा करना है न कि स्वयं कानून की धज्जियां उड़ाना। इसके अलावा अनगिनत फैसलों में उच्चतम न्यायालय ने पुलिस व्यवस्था में प्रचलित ज़ुल्म व टॉर्चर को स्वीकार किया है, लेकिन कभी कोई सकारात्मक पहल इस दिशा में सरकार की ओर से नहीं की गई।

उच्चतम न्यायालय ने कई निर्णयों में कहा है कि किसी नागरिक की पुलिस गिरफ्तारी और न्यायिक हिरासत उस नागरिक के मूलभूत अधिकारों का उल्लंघन करके नहीं कर सकते। यही नहीं, अगर किसी नागरिक के मौलिक अधिकार का उल्लंघन होता है तो वह संविधान की धारा-32 के तहत सुप्रीम कोर्ट में संपर्क कर सकता है। हिरासत उसकी आज़ादी को पाबंद तो कर सकती है, लेकिन यह उसे इसके मानव अधिकार से वंचित नहीं कर सकती।

संविधान की धारा-20 साफ शब्दों में कहती है कि किसी भी व्यक्ति को खुद अपने खिलाफ गवाही देने के लिए मजबूर नहीं किया जा सकता है, और न ही उसके साथ किसी प्रकार का गैरइंसानी व्यवहार किया जाएगा, जो अपराध हो, उसी के अनुसार कानून के मुताबिक ही सजा दी जा सकती है।संविधान की धारा-21 टॉर्चर के एवं तमाम संबंधित ज़ुल्म व ज़्यादती से सुरक्षा प्रदान करती है। इसके अनुसार प्रत्येक नागरिक सम्मान के साथ जीवन जीने का अधिकार रखता है, उसे किसी तरह के अत्याचार और ज़्यादती का शिकार नहीं बनाया जाएगा।

संविधान की धारा-22 के तहत प्रत्येक नागरिक को हिरासत व गिरफ्तारी के दौरान बहुत से अधिकार दिए गए हैं,जिसके अनुसार किसी भी व्यक्ति की गिरफ्तारी से पहले उसके गिरफ्तारी के कारणों, वकील से कानूनी सहायता, किसी करीबी मजिस्ट्रेट के सामने 24 घंटे के अंदर पेशी आवश्यक क़रार दिया गया है।

इंडियन एविडेन्स एक्ट-1872 की धारा-25 के तहत पुलिस हिरासत के दौरान आरोपी का पुलिस को दिया गया इक़बालिया बयान का कोई कानूनी महत्व नहीं होगा, और न ही उसे किसी अदालत में बतौर सबूत पेश किया जा सकता है। हालांकि पिछले तीन दशकों के दौरान आतंकवाद से मुकाबले के नाम पर तीन ऐसे काले कानून (पोटा, टाडा और मकोका) भी लागू गए जिनमें पुलिस को दिया गया इक़बालिया बयान  सबूत का महत्व रखता है। मकोका के अलावा शेष दो कानून तो अपने बेजा इस्तेमाल के कारण एक सीमा तक पहुँचने के बाद प्रतिबंधित दिए जा चुके हैं, लेकिन मकोका आज भी ज़ुल्म व ज़्यादती का एक विशेष हथियार बना हुआ है। इसी कानून की धारा-24 के तहत धमकी, दबाव या वादे के ज़रिए लिया गया इक़बालिया बयान किसी भी अदालत में इस्तेमाल योग्य नहीं होगा। अब यूएपीए कानून भी लाद दिया गया है।

आपराधिक मामलों की कार्रवाईयों के संदर्भ में उच्चतम न्यायालय ने डी.के. बसु बनाम स्टेट ऑफ वेस्ट बंगाल और भाई जसबिर सिंह बनाम स्टेट ऑफ पंजाब और शीला बरसे बनाम स्टेट ऑफ महाराष्ट्र के फैसले में विस्तृत दिशा निर्देश जारी किये हैं। उच्चतम न्यायालय ने गिरफ्तारी से पहले और बाद की कार्रवाईयों के संदर्भ में अहम निर्देश जारी किए हैं, इस निर्देश का बोर्ड सभी ही पुलिस स्टेशनों में दिवारों की शोभा बढ़ाने के लिए लगाया गया है।

(वरिष्ठ पत्रकार जेपी सिंह की रिपोर्ट।)

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