दिल्ली विधानसभा का चुनाव और राहुल गांधी महू में!

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इधर दिल्ली विधानसभा का चुनाव गरम हो गया है। उधर राहुल गांधी दिल्ली विधानसभा चुनाव के गरम राजनीतिक माहौल से बाहर महू में क्या कर रहे हैं? राजनीतिक विशेषज्ञ और विश्लेषकों को स्वाभाविक चिंता सता रही है कि ऐसे में राहुल गांधी बाबासाहेब के जन्म स्थान (इंदौर, मध्य प्रदेश के डॉ. आंबेडकर नगर) में क्या कर रहे हैं?

राजनीतिक विशेषज्ञ और विश्लेषकों को लगता है कि इस से दिल्ली विधानसभा के चुनाव में कांग्रेस को राजनीतिक नुकसान हो सकता है। कांग्रेस को होनेवाली इस राजनीतिक नुकसान की जवाबदेही राहुल गांधी की होगी। हो सकता है कांग्रेस को चुनावी क्षति हो, इनकार नहीं किया जा सकता है लेकिन राजनीतिक विशेषज्ञ और विश्लेषकों के लिए चुनावी विश्लेषण से अधिक जरूरी है राजनीतिक विश्लेषण है।

भारत की राजनीति में इन दिनों विचारधारा की बहुत चर्चा है। हालांकि यह चर्चा राहुल गांधी की तरफ से बार-बार उठाई जाती रही है। चलना कठिन है। बहना आसान है। बहना प्रकृति है। चलना संस्कृति है। चलने और बहने में बहुत बड़ा अंतर होता है। रुपया पैसा न चले तो मुश्किल है लेकिन, बह जाये तो मुश्किल है। क्या हाल है, पूछने पर लोग जवाब देते है; चल रहा है।

कोई नहीं कहता बह रहा है। लछमी चंचल होती है। बहुत तेज चलती है। रुपया न चले तो मुश्किल, बह जाये तो और बड़ी मुश्किल। रुपया बहे तो आदमी रुक जाता है, चले तो आदमी उसके पीछे-पीछे चलते चला जाता है। चलना प्रकृति की शक्ति, गति, और स्थिति के विरुद्ध मनुष्य की जिद, युक्ति, शक्ति और आंतरिक गति से संभव होता है। जिंदा आदमी बहता नहीं, चलता है। मुर्दा चलता नहीं, बहता है। पुरखों ने कहा चरैवेति चलते रहो। जिंदा बचना है, तो चलते रहो। चलना क्या है! कहना जरूरी है क्या!

चलने में विचारधारा मददगार होती है। बहने में विचारधारा का नहीं भाव-धारा का प्रभाव होता है। चलने और बहने के अंतर को ध्यान में रखने पर बात ‘बहुत कुछ’ साफ हो सकती है। विचारधारा पर बात शुरू करने के पहले यह कहना जरूरी है कि भावनाओं का संसार बहुत अस्थिर होता है। जब जैसी और जिस की भावना जैसी रहती है उसे ‘सब कुछ’ वैसा ही लगता है, जैसा लगने का संकेत भावनाएं करती हैं। भावनाओं में बहते या बह जानेवालों को सोच-विचार की जरूरत नहीं होती है। सोच-विचार की ही जरूरत नहीं होती है तो फिर विचारधारा का सवाल ही कहां उठता है!

हम यहां मुख्य राजनीतिक विचारधारा तक अपनी बाच बातचीत को सीमित रखने की कोशिश करें यही बेहतर होगा। वह भी इसलिए कि फिलहाल हमारी चिंता के केंद्र में यहां अपने लोकतंत्र और अपने संविधान पर आधारित राजनीतिक व्यवस्था को समझने की कोशिश है।

भारतीय जनता पार्टी किसी विचारधारा से संचालित नहीं होती है। वह पूरी तरह से भाव-धारा से संचालित होती है। उस का सारा कारोबार भावनाओं के उत्तेजक और उन्मादी उभार से चलता है। ऐसा इसलिए कि उस का संबंध उस परंपरा से है जो वस्तु को नहीं, चेतना को प्राथमिक मानता है; उस की चिंता में यह लोक नहीं वह लोक यानी परलोक होता है। वह वस्तुवाद या भौतिकवाद को नहीं अध्यात्मवाद या परलोकवाद में विश्वास रखता है। वह अगले जन्म में इस जन्म में किये काम का फल भोगने के लिए अगले जन्म का आश्वासन देता है। वह संसार को ईश्वर की इच्छा के अनुसार विकसित मानता है, मनुष्य को ईश्वर का निमित्त मानता है।

जाहिर है कि लोकतंत्र, संविधान या मनुष्य निर्मित किसी भी व्यवस्था की बेहतरी के संदर्भ में उस पर विचार करना असंभव है; उस में इस दुनिया में संबंधों के किसी भी रूप और स्तर को लेकर सिर्फ उलझाव ही उलझाव है। भक्ति, अध्यात्म और भाववादी चिंतन-मनन, संतोष और ईश्वरीय, प्राकृतिक न्याय इत्यादि की दृष्टि से भावधारा का जो भी महत्व हो, इस दुनिया की मानव-व्यवस्था के लिए वह बहुत उपयोगी नहीं होती है। यह अलग बात है कि उपयोगी नहीं होने के बावजूद दक्षिण-पंथी राजनीति इन उलझावों में लोगों को रखकर अपने भौतिक, आर्थिक लाभ के लिए सतत सक्रिय रहते हैं।

इस दुनिया की मानव-व्यवस्था के अंतर्गत सभ्य और बेहतर नागरिक जीवन व्यवस्था के लिए कई तरह की विचारधाराओं का प्रारंभ हुआ। यह सच है कि जीवन न तो पूरी तरह से विचारधाराओं के साथ मनोरम बनता है और न भावधाराओं से! यहीं से मुश्किल शुरू होती है। जब संदर्भ व्यक्ति का हो तो बात सिर्फ रुझान और झुकाव की होती है। लेकिन यहां बातचीत को व्यक्ति के नहीं व्यवस्था के संदर्भ से सीमित रखने की कोशिश है।

सुबह के समय बाग में टहलनेवालों की भावना खिले हुए फूल को देखकर बिना किसी सोच-विचार और श्रम के भावना संचालित मन जितना खुश होता है, आनंद के अतिरेक में जितनी दूर तक बह जाये, उसे उगाने के काम में लगे लोगों को सोच-विचार और श्रम की उतनी ही जरूरत होती है। श्रम के बदले मजदूरी की भी चिंता करनी होती है।

श्रम और मजदूरी के संबंधों की व्याख्या और विश्लेषण के लिए विचारधाराओं की जरूरत होती है। एक प्रकरण में जो श्रमिक है उसे स्वाभाविक तौर पर दूसरे प्रकरण में उपभोक्ता होना चाहिए। लेकिन यह स्वाभाविकता तब खंडित हो जाती है जब श्रम और मजदूरी के संबंधों में किन्हीं कारणों से संतुलन बिगड़ जाता है। बिना श्रम के सभ्यता का विकास संभव नहीं हो सकता है। श्रम और मजदूरी का संबंध सीधी-सरल रेखा पर विकसित नहीं होता है, बल्कि इन के बीच जबरदस्त तनाव बना रहता है। यह तनाव पूंजी की अतुल्य शक्ति और मुनाफा की बेकाबू प्रवृत्ति के संयोग से बनता है।

विज्ञान और तकनीक के विकास के कारण व्यवस्था में मशीन का वर्चस्व बढ़ता चला गया है। विज्ञान और तकनीक की मिलीभगत पूंजी और मुनाफा के साथ बनती चली गई है। यह सब औद्योगीकरण और बाजारवाद या बाजारोन्मुख अर्थव्यवस्था के वातावरण में फल-फूल रहा था। श्रम और मजदूरी के संबंधों में असंतुलन बढ़ने के साथ-साथ श्रमिक-उत्पीड़न बहुत तेजी से मानव-उत्पीड़न में बदलने लगा और ठीक इसी समय मार्क्सवाद प्रकट हुआ।

इधर उथल-पुथल के दौर से गुजर रही शासन व्यवस्था के लोगों में लोकतंत्र की मांग उठाई जा रही थी। ‘रक्तहीन क्रांति, 1688’ के अनुभवों को याद किया जा सकता है कि किन परिस्थितियों में लोकतंत्र और लोकतांत्रिक मूल्यों की तरफ व्यवस्था सभ्यता की नई राह तलाशने लगी थी। उथल-पुथल के बीच से निकलनेवाला लोकतंत्र का रास्ता कंटीला ही बना रहा।

धीरे-धीरे 1917 का साल आ गया। मार्क्सवाद-लेनिनवाद के आधार पर सोवियत संघ की क्रांति हो गई। पूरी दुनिया के पूंजी और मुनाफा ने श्रम और मजदूरी के संबंधों में संतुलन के महत्व को समझ लिया। अमेरिका जैसे देश ने अपने लोकतंत्र में पूंजी और मुनाफा को श्रमिक-उत्पीड़न और मानव-उत्पीड़न की ओर से बढ़ने रोकने की व्यवस्था की, और बाकी देशों की शासन व्यवस्था ने सावधानी बरतनी शुरू कर दी ताकि विकासशील देशों में मार्क्सवाद-लेनिनवाद का प्रभाव न बनने पाये।

कहना न होगा कि मार्क्सवाद-लेनिनवाद पूंजी और मुनाफा के श्रमिक-उत्पीड़न को तो जरूर रोक दी लेकिन श्रमिकों के राजनीतिक उत्पीड़न को मानव-उत्पीड़न बनने से रोक पान में कामयाब नहीं हुई। जटिल प्रक्रिया को सीधे-सरल ढंग से कहने में सरलीकरण के खतरों से इनकार नहीं किया जा सकता है, लेकिन नतीजा यह कि ग्लास्नोस्त-पेरेस्त्रोइका (खुलापन और पुनर्गठन) के झोंका से ‘सब कुछ’ तितर-बितर हो गया।

15 अगस्त 1947 में आजादी हासिल होने के बाद भारत के सामने बड़ी चुनौती थी। दुनिया दो-दो विश्व-युद्ध को झेल चुकी थी। भारत विभाजन से लहुलुहान था। विश्व-युद्ध के जख्मों को सहलाती हुई दुनिया साफ-साफ दो ध्रुवों में बंट चुकी थी। विभाजन से लहुलुहान भारत के लोगों ने बहुत ही सावधानी के साथ वैश्विक परिस्थिति से सीख लेते हुए अपने संविधान की रूप-रेखा बनाया और उस में ‘विधि द्वारा स्थापित कानून के राज’ के अंतर्गत संवैधानिक प्रावधानों की व्यवस्था की गई।

‘कानून के राज’ और ‘राज के कानून’ के अंतर को सिद्धांतों में समझा गया लेकिन अंतर को व्यवहार में किसी-न-किसी हद तक भुला जरूर दिया गया! जो हो अधिक महत्वपूर्ण यह है कि उस कठिन दौर में भारत ने राह बनाई और ‘दो ध्रुवीय’ दुनिया में निर्गुट की राह पकड़ी।

भारत का संविधान अपने आप में विचारधाराओं का संगम है। संविधान का लचीलापन ही है कि डॉ मनमोहन सिंह के समय भारत में कल्याणकर अर्थव्यवस्था आसानी से बाजारोन्मुख अर्थव्यवस्था में बदली जा सकी और अब नरेंद्र मोदी के समय में धर्म-निरपेक्ष राज-व्यवस्था अपना स्वरूप सनातन के रूप में ढालने की कोशिश में लगी है।

संविधानवाद और लोकतंत्र भारत के लोगों के लिए सब से बड़ा आश्वासन था। संविधान से सरकार की चाल-चलन में पारदर्शिता और अन्याय की आशंकाओं से बचाव की संभावनाएं बनी रहती है। संवैधानिक अपेक्षा को नागरिक अपनी इच्छा मानकर अपनी स्वतंत्रता से जोड़कर देख लेता है। 9 दिसंबर 1946 को संविधान सभा की पहली बैठक हुई।

हमारे पुरखों के सामने चुनौती संविधान में इतने लचीलापन की जगह बनाये रखने की थी कि हाथी के पांव में सब के पांव आ जायें। अर्थात, चुनौती संवैधानिक अपेक्षा को नागरिक इच्छा के आस-पास रखने की थी। चुनौती प्रगति-विरोधी नागरिक इच्छा के प्रगति-अनुकूल बनने की संभावनाओं को जिलाये रखने की थी।इस चुनौती का मुकाबला करने के लिए संविधान के 395 अनुच्छेद और आठ अनुसूचियों में विभिन्न प्रावधान किये गये।

‘चुनावी या लोकतांत्रिक ढांचा में तानाशाही’ को पनपने न देने के लिए ‘शक्ति के पृथक्करण’ का सिद्धांत अपनाया गया ताकि जांच और संतुलन की प्रणाली काम करती रहे। बहुसंख्यकवाद के अन्याय और लैंगिक भेद-भाव पर रोक और पारंपरिक सामाजिक पदानुक्रम अर्थात वर्ण-व्यवस्था को हटाकर स्वतंत्रता, समानता और न्याय के नये युग की शुरुआत की व्यवस्था संविधान में की गई।

स्वतंत्रता, समानता और कानून-सम्मत न्याय हिंदुत्व की राजनीति को मंजूर नहीं थी। हिंदुत्व की राजनीति स्वतंत्रता को समर्पण, समानता को सामाजिक वर्चस्व और कानून-सम्मत न्याय को पुनर्जन्म आधारित कर्म-फल की मान्यताओं के अधीन रखना चाहते थे। मनुस्मृति में निहित न्याय एवं अन्य सामाजिक व्यवस्थाओं को ही भारतीय मानते थे।

कुल मिलाकर यह कि सवर्ण-वर्चस्व के सामाजिक अन्याय को कर्म-फल की मान्यताओं के अनुरूप वैधानिक बनाये जाने को ही शायद भारतीय मानते थे। इस तरह से वैधानिकता और नैतिकता के वैश्विक मानदंडों से इतर भारतीय मानदंड को ‘मदर ऑफ डेमोक्रेसी’ का बार-बार हवाला देनेवालों के वैचारिक पूर्वज उचित मानते थे।

इन मामलों में भारत के सभी राजनीतिक दलों की विचारधाराएं हिंदुत्व की राजनीति और राष्ट्रीय स्वयं-सेवक संघ की मूल विचारधारा से न सिर्फ भिन्न थी बल्कि पूरी तरह से विपरीत थी। हिंदुत्व की राजनीति से जुड़े राजनीतिक दलों को छोड़कर, तमाम तरह की असहमतियों यहां तक कि महात्मा गांधी की रणनीतियों की घनघोर नकारात्मक आलोचनाओं के बावजूद आम तौर पर भारत के अन्य राजनीतिक दलों के भीतर महात्मा गांधी की सर्वोच्च राजनीतिक स्वीकार्यता बनी हुई थी। हिंदुत्व की राजनीति की सर्वोच्च विरुद्धता डॉ. बाबासाहेब आंबेडकर के विचारों में थी।

बाबासाहेब की किताब ‘एनिहिलेशन ऑफ कास्ट’ पर टिप्पणी करते हुए महात्मा गांधी ने आंबेडकर को हिंदुत्व के लिए चुनौती माना था। हिंदुत्व की राजनीति ने ऐसा राजनीतिक वातावरण तैयार कर दिया कि नाथूराम विनायक गोडसे (19 मई 1910 – 15 नवंबर 1949) ने 30 जनवरी 1948 को महात्मा गांधी की हत्या कर दी। इस के चलते देश विभाजन से लहुलुहान भारत के राजनीतिक वातावरण में हिंदुत्व की राजनीति दुबक गई। हालांकि राष्ट्रीय स्वयं-सेवक संघ से इतर दक्षिण-पंथी हिंदुवादी राजनीति खुद कांग्रेस के अंदर सक्रिय बनी रही।

आम चुनाव के ठीक पहले राष्ट्रीय स्वयं-सेवक संघ के राजनीतिक दल के रूप में भारतीय जनसंघ का गठन 21 अक्तूबर 1951 में हुआ। श्यामा प्रसाद मुखर्जी अध्यक्ष बने। इस प्रसंग में हिंदू महासभा और राम राज्य परिषद को भी याद कर लेना जरूरी है। भारत के लोगों और राजनीतिक दलों में जनसंघ के प्रति अस्वीकार्यता का भाव दृढ़ता से बना रहा। इमरजेंसी विरोध (1975-77) की राजनीति के दौर में जनसंघ के प्रति अस्वीकार्यता का भाव समाप्त हो गया। इस तरह से भारतीय जनता पार्टी (जनसंघ) भारत की संसदीय राजनीति की मुख्य धारा में जगह घेरने लगी।

2014 से लेकर आब तक नरेंद्र मोदी के नेतृत्व में राष्ट्रीय स्वयं-सेवक संघ से अनुशासित, संचालित और निदेशित भारतीय जनता पार्टी की सरकार चल रही है। हालांकि 2014 और 2019 के आम चुनाव में भारतीय जनता पार्टी को ‘अकेले दम’ पूर्ण बहुमत मिला लेकिन 2024 के आम चुनाव में राम मंदिर और अनुकूलित चुनाव तंत्र के बावजूद राष्ट्रीय जनतांत्रिक गठबंधन (एनडीए) के घटक दलों के सहयोग और समर्थन के बिना नरेंद्र मोदी का प्रधानमंत्री बनना मुमकिन नहीं हुआ।

कुल मिलाकर यह कि 1947-48 की राजनीतिक परिस्थितियों में हारी हुई विचारधारात्मक बाजी को अब राष्ट्रीय स्वयं-सेवक संघ और भारतीय जनता पार्टी नरेंद्र मोदी के नेतृत्व में पलट देने के लिए आतुर है। अपनी व्यग्र आतुरता में अब इन्हें महात्मा गांधी की इस टिप्पणी का अर्थ समझ में आ रहा है कि ‘हिंदुत्व और सवर्णत्व’ मन-मस्तिष्क के अनुसार, अर्थात हिंदुत्व के अनुकूल संविधान को बदलने या उस में संशोधन की ‘हिंदुत्व की राजनीति’ के लिए डॉ. बाबासाहेब आंबेडकर के चुनौती’ होने का मतलब क्या है!

बाबासाहेब की चुनौती का मुकाबला करने के लिए बार-बार और तरह-तरह से बाबासाहेब का मुद्दा उठाया जाता है। बाबासाहेब के अपमान के विरोध की राजनीतिक ताकत को थकाकर कमजोर करने की तरकीब पर भारतीय जनता पार्टी और राष्ट्रीय स्वयं-सेवक संघ के नेतृत्व में ‘सुचिंतित’ ढंग से काम होता हुआ दिख रहा है।

राष्ट्रीय स्वयं-सेवक संघ और भारतीय जनता पार्टी की इस ‘सुचिंतित’ परियोजना के ठीक से लागू होने के रास्ता में रोड़ा अटकानेवाले लोगों और उन के नेता के रूप में राहुल गांधी भारतीय जनता पार्टी और उस के शुभचिंतकों के सब से बड़े दुश्मन बन गये हैं। सच पूछा जाये तो अब वे भारत की राजनीति को ‘कांग्रेस मुक्त’ करने के पचड़े में न पड़कर, भारत की राजनीति को ‘राहुल मुक्त’ करने की तरकीब भिड़ाने में रात-दिन हलकान हो रहे हैं।

किसी भी चुनाव को जीतने से यहां तक कि अभी हो रहे दिल्ली विधानसभा का चुनाव जीतने से कहीं बड़ी चुनौती राहुल गांधी के सामने है। चुनौती लोकतंत्र को विचारधारात्मक पटरी पर लाने की है। विचारधारा! राहुल गांधी और देश के लिए सब से बड़ी नहीं, एक मात्र विचारधारा संविधान है; संविधान की रक्षा विचारधारा की रक्षा और विचारधारा की रक्षा संविधान की रक्षा बन गया है। यहां हमवतनों को चुनावी विश्लेषण और राजनीतिक विश्लेषण में फर्क कर लेना चाहिए। ऐसा नहीं किया गया तो रोशनखयाल लोगों को ही नहीं, रोशनखयाली को भी अंधेरे में गुम होने से बचाने में कामयाबी मिलनी मुश्किल ही है।

सर्वसत्तावादी रुझानवाली राजनीति के खिलाफ वास्तविक लोकतंत्र के पक्ष में सक्रिय राजनीतिक विशेषज्ञों और विश्लेषकों को राजनीतिक दलों के ‘जीत का जश्न’ में शामिल होने के बदले संविधान के जीत का जश्न सुनिश्चित करने, नागरिकों को सभ्य और बेहतर नागरिक जीवन-स्तर जीवनयापन शैली, सह-अस्तित्व की स्थिति बहाल करने में दिलचस्पी लेना ही शायद अधिक मुनासिब है। चुनावी लड़ाई से बड़ी राजनीतिक लड़ाई के दौर में है दुनिया और भारत भी।

समझ में आने लायक बात है कि आज-कल जब दिल्ली विधानसभा का चुनाव हो रहा है तो राहुल गांधी महू में क्या कर रहे हैं!

(प्रफुल्ल कोलख्यान स्वतंत्र लेखक और टिप्पणीकार हैं)

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