युवाओं के दिल्ली सम्मेलन से रोजगार के सवाल पर लोकप्रिय आंदोलन की राह निकलेगी

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आज 10 नवंबर को रोजगार के सवाल पर युवाओं का सम्मेलन दिल्ली के गांधी शांति प्रतिष्ठान में होने जा रहा है। इस सम्मेलन का आयोजन युवा मंच तथा सहयोगी संगठनों ने किया है। युवा मंच ने इस संकट के समाधान के लिए कुछ मांगों को सूत्रबद्ध किया है जिसे लेकर वे देश भर में अभियान चला रहे हैं।

वे लोग मांग कर रहे है कि सुपर रिच तबकों पर टैक्स लगे, सबके लिए शिक्षा-स्वास्थ्य व रोजगार की गारंटी हो, देश में रिक्त पड़े करीब एक करोड़ पदों पर तत्काल भर्ती हो और हर व्यक्ति की सम्मानजनक जिंदगी की गारंटी हो।

बेरोजगारी के सवाल की भयावहता को चित्रित करते हुए हाल ही में एक प्रतिष्ठित दैनिक के लेख में उसे ticking bomb कहा गया। ILO और इंस्टीट्यूट फॉर ह्यूमन डेवलेपमेंट की एक रिपोर्ट में कहा गया है कि भारत में हर 3 बेरोजगारों में दो युवा ग्रेजुएट हैं।

स्थिति की भयावहता को इस बात से भी समझा जा सकता है कि चपरासी तक के पद पर भर्ती के लिए बड़ी-बड़ी डिग्रियां लिए युवा बैठने को मजबूर हैं।

लोकसभा चुनाव में भी रोजगार सबसे बड़ा मुद्दा था, यह तथ्य CSDS के सर्वे से सामने आ चुका है।भाजपा अगर अपने दम पर बहुमत हासिल नहीं कर पाई, तो इसमें बेरोजगारी के संकट की प्रमुख भूमिका थी। यह आज भारतीय समाज में सर्वोच्च प्राथमिकता का सवाल बना हुआ है।

दरअसल बरोजगारी की इस भयावहता में सबसे बड़ी भूमिका स्वयं सरकार की है। मोदी राज में सेवा क्षेत्र में बड़े पैमाने पर रोजगार के अवसर खत्म किए गए है। अंधाधुंध निजीकरण और सरकारी विभागों में आउटसोर्सिंग ने सरकारी नौकरियों का ध्वंस किया है।

प्रो प्रभात पटनायक ने रोजगार संकट पर विस्तार से लिखा है। उनका मानना है कि उत्पादन  और रोजगार का संकट आज किसी critical input की आपूर्ति कमी के कारण नहीं है। मसलन खाद्यान्न इतना प्रचुर मात्रा में उपलब्ध है कि सरकार पांच किलो अनाज सालों साल से 80 करोड़ लोगों को बांट रही है।

जिन्हें मोदी जी विपक्षी सरकारों के लोककल्याणकारी कामों के लिए मुफ्त की रेवड़ी बताते हैं। यह साफ है कि भारत में आज जो उत्पादन और रोजगार का संकट है, वह आपूर्ति की कमी नहीं वरन मांग की कमी के कारण है।

वे बताते हैं कि आज शिक्षा के क्षेत्र में अध्यापकों की भारी कमी है। इससे सर्वोपरि शिक्षा की गुणवत्ता प्रभावित हो रही है। ठीक यही हाल स्वास्थ्य सेवाओं का है। स्वास्थ्य क्षेत्र आज डाक्टरों और नर्सिंग स्टाफ की कमी से जूझ रहे हैं। सरकार अगर बड़े पैमाने पर शिक्षा और स्वास्थ्य के बजट में वृद्धि कर दे, तो करोड़ों नए रोजगार इन क्षेत्रों में सृजित किए जा सकते हैं।

लेकिन सरकार इन पर खर्च बढ़ाने को कौन कहे, उल्टे कटौती कर रही है। यहां तक कि राष्ट्रीय सुरक्षा से जुड़े सेना तक में खर्च बचाने के लिए अग्निवीर की चार साला ठेका जैसी योजना लाई गई है। इन सभी क्षेत्रों में सरकारी खर्च बढ़े पैमाने पर बढ़ाने की जोरदार वकालत करते हुए वह कहते हैं कि दरअसल किसी देश के लिए सरकारी खर्च बढ़ाने पर कोई वस्तुगत बंदिश नहीं है।

ऐसा सरकारें स्वतः ही अंतरराष्ट्रीय वित्तीय पूंजी की संस्थाओं के दबाव में करती हैं। यह एक तरह से अपने राष्ट्र राज्य की स्वायत्तता को वित्तीय धनकुबेरों के दबाव में उनके हाथों गिरवी रख देना है।

यह साफ है कि शहरी क्षेत्रों में बेरोजगारी दर अधिक दिखती है और ग्रामीण क्षेत्र में कम क्योंकि गांवों में परिवार के सभी लोग जमीन के छोटे से टुकड़े पर लगे रहते हैं, जहां वास्तव में उनकी जरूरत होती नहीं है। यह एक तरह का disguised unemployment ही होता है।

ग्रामीण क्षेत्र में क्योंकि लोग स्वरोजगार में लगे रहते हैं इसलिए बेरोजगारी कम लगती है लेकिन शहरी क्षेत्र में स्थिति बदल जाती है, वहां बेरोजगारी को छिपाने का कोई वैकल्पिक क्षेत्र नहीं होता। इसलिए वहां बेरोजगारी दर अधिक होती है। जाहिर है इससे किसी कन्फ्यूजन की गुंजाइश नहीं होनी चाहिए कि गांवों में बेरोजगारी कम है।

इसीलिए गोवा और केरल जैसे राज्यों में बेरोजगारी दर अधिक दिखती है, क्योंकि वे अधिक urbanised हैं जबकि UP या MP जैसे राज्यों में यह कम दिखती है। वैसे ग्रामीण क्षेत्र और कृषि ने कोविड के दौर में शहर से गांव में पलायन कर आए करोड़ों मजदूरों को बहुत बड़ा सहारा दिया था।

ठीक इसी तरह शिक्षितों के बीच अशिक्षितों की तुलना में बेरोजगारी दर अधिक है। इसीलिए केरल में जहां लेबर फोर्स में ग्रेजुएट की संख्या 30% है, स्वाभाविक रूप से वहां बेरोजगारी दर अधिक है।

दरअसल रोजगार का सवाल केवल आर्थिक नहीं है बल्कि व्यक्ति की गरिमा से जुड़ा हुआ है। प्रो प्रभात पटनायक ने भारत में बेरोजगारी के कारणों पर विस्तार से चर्चा करते हुए यह स्थापित किया है कि यहां बेरोजगारी का मूल कारण संसाधन या आपूर्ति की कमी नहीं वरन मांग की कमी है।

वे कहते हैं कि मांग की कमी को अगर दूर कर दिया जाय तो उत्पादन बढ़ेगा और उत्पादन बढ़ने के साथ रोजगार बढ़ेगा। युद्ध के दौर को छोड़कर पूंजीवाद आम तौर पर मांग की कमी की अर्थव्यवस्था है।

उनके अनुसार आज आजाद भारत का सबसे बड़ा बेरोजगारी संकट देश के सामने है। वे बताते हैं कि 2019 की तुलना में 2024 में जीडीपी तो 18%बढ़ गई है, लेकिन इन्हीं पांच वर्षों में रोजगार वृद्धि शून्य है। वे कहते हैं कि बेशक कोविड के बाद उत्पादन और जीडीपी में वृद्धि हुई है लेकिन इससे रोजगार में वृद्धि नहीं हुई।

क्योंकि अधिकांशतः जीडीपी में यह वृद्धि उच्चतर टेक्नोलॉजी वाले उद्यमों में हुई है जहां नया रोजगार सृजन नहीं के बराबर हुआ। यह वृद्धि मध्यम और लघु उद्यम क्षेत्र में नहीं हुई जहां  बड़े पैमाने पर रोजगार का सृजन होता है।

दरअसल इसे और व्यापक परिप्रेक्ष्य में देखा जाय तो जिस तरह नोटबंदी हुई, GST को गलत ढंग से लागू किया गया और कोविड के समय अविचारित ढंग से लॉकडाउन हुआ, इन तीनों ने मिलकर हमारे SMSE की कमर तोड़ दी।

वे बताते हैं कि भारत में बेरोजगारी का एक दूसरा कारण प्रमुख है। क्योंकि कोविड के पहले 2019 में भी बेरोजगारी 1973 के बाद के उच्चतम स्तर पर थी। बावजूद इसके कि तब से जीडीपी वृद्धि की दर दोगुनी हो गई थी। वे बताते हैं कि इसका संबंध नवउदारवादी अर्थव्यवस्था की अंतर्निहित प्रवृत्ति से है।

इन नीतियों के लागू होने के पहले का जो लोककल्याणकारी अर्थव्यवस्था का दौर था, उसकी तुलना में जीडीपी रफ्तार दोगुना हो जाने के बावजूद रोजगार सृजन की रफ्तार आधी रह गई।

नवउदारवादी नीतियों के फलस्वरूप होने वाले इस बड़े बदलाव के वे दो कारण बताते हैं। वे कहते हैं इसके मूल में श्रम की जो उत्पादकता बढ़ गई वह है। नवउदारवाद ने देश को पूरी तरह खोल दिया। वित्तीय पूंजी ने भारत के विराट बाजार पर कब्जे का अभियान छेड़ दिया। 

और इसमें लाभ बढ़ाने के लिए ऐसी आधुनिक तकनीक के इस्तेमाल की गला काट प्रतियोगिता बढ़ती गई जो बड़े पैमाने पर श्रमिकों को विस्थापित करने वाली थी। निर्बाध पूंजीवाद बेरोजगारी को बढ़ाता है। पहले अगर 100मजदूर मिलकर 100इकाई उत्पादन करते थे तो अब 50 मजदूर ही उतना उत्पादन कर सकते हैं।

फलस्वरूप 50 मजदूर बेकार हो जायेंगे। इससे मजदूरी का बिल आधा हो जाएगा और पूंजीपति का मुनाफा बढ़ जाएगा। लेकिन मजदूरों के बेरोजगार होने से कुल consumption घट जाता है।

प्रो पटनायक ने विस्तृत गणना द्वारा यह स्पष्ट किया है कि सभी बेरोजगारों के लिए रोजगार के संवैधानिक अधिकार की अर्थात जिसके लिए न मिलने पर कोर्ट में चुनौती दी जा सकती है, गारंटी हो सकती है, अगर आबादी के ऊपरी 1%के ऊपर मात्र .8%संपत्ति कर लगा दिया जाय।

वे बताते हैं कि बेरोजगारी दर अगर 10% माना जाय तो 4 करोड़ बेरोजगारों को औसतन बीस हजार वेतन के साथ कुल 9.6 लाख करोड़ रु की जरूरत होगी। यह भारत के कुल GDP का 3.2% है। बेरोजगारों को यह पैसा मिलने से उनकी क्रयशक्ति बढ़ेगी तो वे इसे खर्च करेंगे, फलस्वरूप बाजार में मांग बढ़ेगी, उत्पादन बढ़ेगा, नतीजतन रोजगार बढ़ जाएगा।

इसका परिणाम यह होगा कि बेरोजगारों पर सरकार को जो खर्च करना पड़ रहा है, वह और घट जाएगा। उनकी गणना के अनुसार यह घटकर 4.8 लाख अर्थात जीडीपी के1.6%के बराबर रह जाएगा। वे बताते हैं कि इससे सरकार के टैक्स में वृद्धि होगी और सरकार का वास्तविक खर्च और घटकर जीडीपी के 1.5% के आसपास रह जाएगा।

क्या सरकार देश के सभी बेरोजगार युवाओं को रोजगार का अधिकार देने के लिए इतनी धनराशि भी नहीं खर्च कर सकती ? वे बताते हैं कि यह धनराशि भारतीय समाज के महज 1%ऊपरी तबकों पर .8% सम्पत्ति कर लगाकर इकट्ठा की जा सकती है।

किसी भी सरकार के लिए यह बोझ इतना कम है कि इसे नकारना सरकार का अपने दायित्व का आपराधिक परित्याग है।

उम्मीद है युवाओं के दिल्ली सम्मेलन से रोजगार के सवाल पर लोकप्रिय आंदोलन की राह प्रशस्त होगी।

(लाल बहादुर सिंह इलाहाबाद विश्वविद्यालय के पूर्व अध्यक्ष हैं।)

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