नई दिल्ली। बीते अगस्त माह के आखिरी दिनों में दिल्ली के ओखला फेस-2 में बुलडोजर कार्रवाई की गयी। इस बुलडोजर कार्रवाई में जे.जे. बस्ती के कई घरों और झुग्गी-झोपड़ियों को धराशायी कर दिया गया। घरों पर बुलडोजर चलाने का कारण अतिक्रमण माना जा रहा है। इस बुलडोजर एक्शन में बहुत से लोग बेघर हो गये हैं। बेघर हुए इन लोगों के रहने, खाने, उठने-बैठने, काम करने का कोई ठिकाना नहीं है। ये लोग अब दर-दर की ठोकरें खा रहे हैं।
वहीं, घर तोड़े जाने के इस घटनाक्रम से संबंधित एक लेटर भी हमारे सम्मुख आया है। यह लेटर दिल्ली के शहरी विकास मंत्री सौरभ भारद्वाज ने ऑफिस ऑफ मिनिस्टर (यूडी) एनसीटी दिल्ली के लिए लिखा है। पत्र पर दिनांक 03/09/2024 अंकित है।
इस लेटर के महत्वपूर्ण अंश में वर्णित किया गया कि, ओखला फेज-2 में जे.जे. क्लस्टर के कुछ निवासियों ने आरोप लगाया है कि एमसीडी उन क्षेत्रों में तोड़फोड़ कर रही है जो डीयूएसआईबी द्वारा निर्धारित क्षेत्र के अंतर्गत आते हैं। वे डीयूएसआईबी के सूचीबद्ध क्लस्टरों का हिस्सा होने का दावा करते हैं।
पत्र में आगे उल्लेख है कि, माननीय दिल्ली उच्च न्यायालय के दिनांक 02/09/2024 के आदेश में न्यायालय ने डीयूएसआईबी और एमसीडी के साथ-साथ अन्य को बाध्य किया है कि डीयूएसआईबी द्वारा मान्यता प्राप्त और प्रकाशित जे.जे. बस्तियों के लिए परिभाषित सीमाओं के भीतर कोई भी विध्वंस कार्रवाई नहीं की जाएगी। साथ में यह निर्देश दिया कि डीयूएसआईबी अपने वरिष्ठ अधिकारियों को साइट पर भेजे और उक्त जे.जे. बस्ती की सीमाओं की पहचान करे ताकि कोई अवैध विध्वंस न किया जा सके।
लेकिन, इसके बावजूद बुलडोजर कार्रवाई ने कई लोगों के घर ध्वस्त कर दिये। वहीं, लोगों का यह दावा भी है कि, हाई कोर्ट का आदेश हमने अधिकारियों को बताया था। मगर, उसके बाद भी हमारे घर तोड़ दिये गये। झुग्गी-झोपड़ी और घर टूटने के बाद बेघर हुए लोगों का जीवन अब बदहाल हो गया है।
लोगों का दुख-दर्द और परेशानियां जानने के लिए हमने उनसे संवाद भी किया। इस संवाद में रिया हमें बताती हैं कि “सन 1990 -91 से हमारे परिवार के 10 लोग दिल्ली के प्रेम नगर से दो-तीन किलोमीटर दूर ओखला फेस टू में रहते आ रहे थे। धागा बनाने वाली कंपनी में काम करने से हमारी रोजी-रोटी चल रही थी। हमारा मकान तोड़े जाने की बावजूद एक रुपए हमको नहीं मिला। कोई हमारा हाल-चाल, हमारी स्थिति जानने नहीं आया। सैकड़ों लोगों के मकान तोड़े गए। मकान तोड़े जाने से 2 साल पहले हमारा सर्वे हुआ था और बताया गया था कि आपको मकान दिया जाएगा। मगर कुछ नहीं हुआ। हमने खुद के मकान में चार लाख रुपए तक की लागत लगा रखी थी। अब हमारा सब कुछ उजड़ गया।”
रिया आगे दुखी मन से बोलती हैं कि “जब हमारा घर तोड़ा गया तो उसमें राशन-पानी से लेकर घरेलू सामान, बच्चों की कापी-किताबें और कपड़े वगैरह सब दब गया। सरकार ने हमें कुछ नहीं दिया। इस वक्त हमारी हालत यह है कि, खाना-पीना भी जुटा पाना मुश्किल हो रहा है। अभी हम एक खाली प्लाट में खुले आसमान के नीचे अपने तीन बच्चों के साथ रह रहे हैं। बच्चे पहले सरकारी स्कूल में पढ़ते थे। जब से मकान टूटा है उनका स्कूल जाना बंद हो गया है। अब उनकी शिक्षा प्रभावित हो रही है। हमारे पास इतनी व्यवस्था ही नहीं है कि हम बच्चों को स्कूल पहुंचा पाएं।”
इसके आगे रिया कहतीं हैं कि “हमारे पास रहने के लिए कोई जगह नहीं है। इसलिए खाली प्लाट में हैं। खाली प्लाट से भी पुलिस हमको भगाने के लिए तैयार है। बार-बार हमें भगाने की बात भी हो रही है। यहां भी हमको धमकी दी जा रही है कि तुम्हारे सामान पर भी बुलडोजर चला दिया जाएगा। इस खाली प्लाट से यदि हमें कोई भगाने का अधिकार रखता है, तो वह प्लाट का मालिक है। कोई और हमें कैसे भगा सकता है। हम अपने रहने का ठिकाना तलाश रहे है। कहीं खाली जगह मिलते ही हम यहां से निकल जायेगें।”
अमरीश बताते हैं कि “सरकार को यह सोचना चाहिए कि जब गरीब का घर टूटता है तब बच क्या जाता है? घर टूटने के बाद जब गरीब इंसान बच्चों, परिवार को लेकर खुले आसमान में बारिश, धूप, धूल-मिट्टी, प्रदूषण, शोर-शराबे के बीच रह रहा हो तब सोचिए उसका क्या होता होगा? उस पर क्या बीतती होगी? हमारे घरों पर तो बुलडोजर चला दिया गया है। अब हमारे साथ सुख-दुख में कोई नहीं खड़ा है। हमारे साथी, परिचित, रिश्तेदार सब बिछड़ चुके हैं। अकेलापन हमें भयभीत कर रहा है। देश का दिल कहे जाने वाली दिल्ली में लोगों की भीषण भीड़ में भी हम खुद को अकेला महसूस कर रहें हैं। दिल्ली में बहुत लोग हैं लेकिन, फिर भी हमें अपनी सुरक्षा का डर है।”
अमरीश का दावा है कि “हमारे पास कोर्ट का आर्डर भी है जिस पर लिखा है कि, हमारे मकान एक सीमा पर हैं जिन्हें नहीं तोड़ा जाना चाहिए। कोर्ट का यह आर्डर हमने अधिकारियों को भी बताया। लेकिन, इसके बावजूद हमारे मकान तोड़े गए और हमें बेघर किया गया।”
तारा की सारी उम्मीदों पर पानी फिर चुका है। अब उनका किसी से बतियाने का जी नहीं चाहता। हमें भी वह अपना दर्द बताना नहीं चाहती थी मगर, फिर भी वह कहती हैं कि, ‘हमारी कोई सुनवाई नहीं है। सरकार ने हमारे घर तोड़ दिये। अब किसी से कोई उम्मीद नहीं रही। सरकार को हमें बसाना होता तो घर तोड़ने से पहले घर दिया होता। घर टूटने के साथ हमारा सामान भी टूट गया। हमारे पलंग टूट गये बोरियां-बिस्तर सब का सब घर के मलबे में दब गया।’
सीता अपना दर्द कुछ यूं बयां करती हैं, ‘घर टूटने के बाद लोगों के काम-धंधे से लेकर सब कुछ प्रभावित हो गया। सबसे ज्यादा बच्चों की शिक्षा प्रभावित हो रही है। हमें ऐसा भी सुनने मिल रहा है की और भी घर तोड़े जाने हैं। 40 साल से यहां हमारी बसाहट थी। हमारे बच्चों के बच्चों का यहां जन्म हो गया है। मकान तोड़े जाने का नोटिस भी हमको ढंग से नहीं दिया गया। यदि कुछ दिन पहले नोटिस दिया गया होता तो हम अपनी व्यवस्थाएं भी कर लेते।’
अन्नू का कहना है कि, ‘मीडिया और समाजिक कार्यकर्ताओं से लेकर बहुत लोगों ने हमारी आवाज़ उठाई, मगर हमारे घर अंततः तोड़ दिए गये।’
अन्नू आगे बोलते हैं कि, ‘हमारे घरों को तोड़े जाने की खबरें उठाए जाने के बावजूद अभी तक सरकार का दिल नहीं पसीजा की पीड़ितों को कुछ मिलना चाहिए। कितनी बार हम अपनी बदहाल स्थिति बताएं, हमारी दशा सबके सामने है। मगर, कुछ हो नहीं रहा।’
घर तोड़ जाने की घटना पर एक अन्य शख्स से भी हमारी चर्चा होती है। ये शख्स अपना नाम नहीं बताते हैं कहते हैं कि, नाम को छोड़िए और हमारा दर्द सुनिए।
शख्स बताते हैं कि, ‘घर टूटना हमारे ऊपर दुखों का पहाड़ टूटना है। यहां केवल लोगों के घर नहीं टूटे, उनकी उम्मीदें टूटी है। लोगों के रिश्ते-नाते टूट गए हैं। रोजगार धंधे टूट गये हैं। परिवार के परिवार टूट गये हैं। हमने सब कुछ खो दिया। पाया कुछ भी नहीं। कुछ मिल रहा है तो ठोकरें, लोगों के ताने और हताशा।’
मजदूर आवास संघर्ष समिति से जुड़े और बेघर लोगों के अधिकारों की लड़ाई लड़ रहे निर्मल गौराना का इस मामले में कहना है कि, ‘घर तोड़े जाने केइस मामले में पॉलिसी का ध्यान नहीं दिया गया। 260 घर तोड़े गये हैं। अभी तब जिनके घर तोड़े गये उनको कुछ नहीं मिला है। जिन लोगों के घर तोड़े गये हैं उन्हें मुआवजा दिया जाना चाहिए। साथ में उनके पुनर्वास की व्यवस्था भी की जानी चाहिए। घर तोड़े जाने वाले मामलों को लेकर हम लोग कुछ दिन में एक आंदोलन भी करने वाले हैं। जिसमें हम अपनी मांगों सहित यह बताएंगे कि, दो दिन में लोगों के घर तोड़ना कितना अमानवीय और क्रूर है।’
याद दिलाते चलें कि, दिल्ली अर्बन शेल्टर एंपावरमेंट बोर्ड के एक पत्र के मुताबिक, दिनांक 14/06/2016 को बोर्ड ने अपनी 16वीं बैठक आयोजित की। इस बैठक में संकल्प संख्या 16/3 के तहत बोर्ड ने दिल्ली झुग्गी-झोपड़ी एवं जे.जे. पुनर्वास एवं पुनर्वास नीति, 2015 को मंजूरी दे दी थी। झुग्गी-झोपड़ी बस्तियों के पुनर्वास/पुनर्स्थापन के लिए उक्त नीति का पालन करने का निर्देश भी दिया गया था।
इस पत्र में दिल्ली झुग्गी एवं जेजे पुनर्वास एवं पुनर्वास नीति, 2015 (भाग-ए) में कई सिद्धांतों का जिक्र किया गया। सिद्धांतों में यह भी बताया गया कि, झुग्गियों में रहने वाले लोग दिल्ली में महत्वपूर्ण आर्थिक गतिविधियाँ करते हैं जैसे ड्राइवर, सब्जी विक्रेता, ऑटो और टैक्सी चालक, आदि।
पत्र में कई मामलों का भी जिक्र किया गया। इन्हीं मामलों में से एक मामले का उल्लेख करते हुए पत्र में लिखा गया कि, अहमदाबाद नगर निगम बनाम नवाब खान गुलाब खान, [1997 (11) एससीसी 123] मामले में, सुप्रीम कोर्ट ने माना कि सार्वजनिक भूमि पर गरीबी से त्रस्त व्यक्तियों को भी आवास का मौलिक अधिकार है। न्यायालय ने निर्धारित किया कि जब झुग्गी-झोपड़ी में रहने वाले लोग कुछ समय से एक स्थान पर रहते हैं, तो झुग्गी में रहने वालों के लिए आवास की योजना बनाना सरकार का कर्तव्य है।
पत्र में आगे यह भी जिक्र किया गया कि, डीयूएसआईबी जेजे बस्तियों में रहने वाले लोगों को वैकल्पिक आवास उपलब्ध कराएगा, या तो उसी भूमि पर या आसपास के 5 किलोमीटर के दायरे में। असाधारण परिस्थितियों के मामले में, बोर्ड की पूर्व स्वीकृति के साथ यह 5 किलोमीटर से भी आगे हो सकता है। वैकल्पिक आवास प्रदान किए जाने की शर्तें और पात्रता की शर्तें अलग से अधिसूचित की जा रही हैं।
डीयूएसआईबी ने उम्मीद भी जताई कि यदि उसे सभी भूमि स्वामित्व एजेंसियों से सहयोग प्राप्त होगा तो वह अगले पांच वर्षों में दिल्ली की जेजे बस्ती के पुनर्वास का कार्य पूरा कर लेगा।
चिंतनीय है कि, पुनर्वास नीति 2015 और हाईकोर्ट का आर्डर भी लोगों के घरों पर चलता बुलडोजर नहीं रोक पाया। अब सवाल यही पैदा होता है कि, घर टूटने के बाद बेघर हुए लोगों का क्या होगा? क्या उनके साथ आर्थिक और सामाजिक न्याय हो पायेगा? या फिर ये बेघर लोग यूं ही रोटी, कपड़ा, मकान, जैसी बुनियादी सुविधाओं के लिए संघर्ष करते रहेंगे और खुद को स्थापित करने के लिए अपनी जिंदगी झोंक देगें।
(सतीश भारतीय एक स्वतंत्र पत्रकार हैं।)