Saturday, April 20, 2024

छत्तीसगढ़ स्पेशल: आखिर ‘हिंदू-राष्ट्र’ वादियों में डिलिस्टिंग को लेकर इतनी उत्सुकता क्यों?

रायपुर। जून 5, 2022 को छत्तीसगढ़ के बलरामपुर जिला मुख्यालय में धर्मान्तरण के विरोध में जनजाति सुरक्षा मंच के बैनर तले एक रैली निकालकर डिलिस्टिंग के सन्दर्भ में एक विरोध प्रदर्शन हुआ। डिलिस्टिंग का तात्पर्य उन आदिवासियों से है, जो खुद को हिंदू धर्म से अलग कर ईसाई या इस्लाम धर्म को स्वीकार कर चुके हैं। इस आयोजन में भारतीय जनता पार्टी (भाजपा) के नेता पूर्व सांसद नंदकुमार साय, पूर्व राज्यसभा सांसद रामविचार नेताम, प्रदेश के पूर्व कैबिनेट मंत्री गणेश राम भगत सहित कई आदिवासी नेता सम्मिलित हुए। इस सम्मेलन के बाद पूरे प्रदेश के आदिवासियों के बीच धर्मान्तरण, घर-वापसी और डिलिस्टिंग के मामले को लेकर काफी घमासान और तनाव की स्थिति पैदा हुई है।

पिछले दो-तीन महीनों से देशभर के आदिवासी बहुल प्रदेश या इलाकों में डिलिस्टिंग को लेकर काफी बहस छिड़ी हुई है। लगभग दो वर्षों से धीरे-धीरे एक नए मंच का नाम सुनने को आ रहा है जिसे, जनजातीय सुरक्षा मंच कहा जा रहा है। इस मंच ने कितने जनजातीय लोगों को उनके हक़, अधिकार दिलाये या फिर उनकी मूलभूत लड़ाई यानि जल, जंगल, जमीन, खनीज इत्यादि के संघर्ष में साथ दिया इसका कोई लेखा जोखा नहीं है। पर इन दिनों इस संगठन ने एक ऐसा चक्रव्यूह रचा है, जिसके तहत आदिवासियों को ही गैर-आदिवासी घोषित किया जा रहा है।

बलरामपुर की रैली महज एक अकेला आयोजन नहीं था। विगत कुछ महीनों में ऐसे ही आयोजन देश के कई आदिवासी प्रदेशों में हुए, जिनमें यही नारा लग रहा था। इसमें प्रमुखतः मध्यप्रदेश, गुजरात, राजस्थान, झारखंड आदि प्रदेशों को देखा गया है। वैसे ओडिशा में आदिवासी ईसाइयों पर हमला लगभग ढाई दशक से चलते आ रहा है।

आरएसएस की भूमिका

इस अभियान को मुख्य रूप से राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ (आरएसएस) संचालित कर रहा है। कांग्रेस के भूतपूर्व सांसद व मंत्री रहे कार्तिक उरांव के पीठ पर सवार होते हुए आरएसएस के झारखंड प्रदेश के सह प्रांत प्रचार प्रमुख संजय कुमार आजाद की मानें तो उरांव हमेशा हिंदुत्व के पक्षधर रहे और धर्मांतरित आदिवासियों को आरक्षण देने का विरोध करते रहे। कार्तिक उरांव तीन बार लोकसभा के लिए निर्वाचित हुए थे। जीवन के अंतिम समय में वे नागरिक उड्डयन एवं संचार मंत्री थे। आजाद आगे कहते हैं कि आदिवासी हिंदू हैं और हिंदू संस्कृति के वे अभिन्न हिस्सा हैं। इस तरह से कई आदिवासी महापुरुषों के नाम पर संघ परिवार इस अभियान को हवा दे रहा है।

आरएसएस की राजनीतिक इकाई भाजपा के अलावा उसके अन्य सारे संगठन भी इस पूरे अभियान में लिप्त हैं। संघ परिवार इस मसले में शुरुआत से ही इस बात पर अडिग है कि जो भी भारत में रहने वाला है, वह हिंदू है, या फिर वे लोग जो हिंदू नहीं हैं हिंदू संस्कृति को पूर्णतः आत्मसात कर लें। गोलवलकर के अनुसार जो भी खुद को हिंदू नहीं कहता या खुद को हिंदू संस्कृति का हिस्सा नहीं मानता, उसे भारत में रहने का कोई हक़ नहीं है। हिंदू राष्ट्रवाद का यही आधार है और इसी आधार पर ही आज आदिवासियों को भी गैर-आदिवासी घोषित करने का मुहिम छेड़ा गया है। गौर फरमाने वाली बात यह है कि यही रणनीति कम्युनिस्ट, मुसलमान, दलित और ईसाई जो गैर-आदिवासी हैं उन पर भी अपनाया जा रहा है।

क्या होगा डिलिस्टिंग का परिणाम

संघ परिवार के द्वारा संचालित इस आंदोलन के अनुसार जो आदिवासी ईसाई बने हैं उन्हें बरगला-फुसलाकर, पैसा और लालच देकर ईसाई बनाया गया है। वे लोग दुगुना लाभ पाते हैं, पहला ईसाई होने का और दूसरा आरक्षण का। 2014 में भारत सरकार द्वारा स्थापित खाखा कमेटी की रिपोर्ट के अनुसार आदिवासियों की स्थिति वहीं की वहीं है। हालांकि आदिवासी इलाकों में ईसाई संस्थानों के आने से शिक्षा और स्वास्थ्य की व्यवस्था में गुणात्मक और संख्यात्मतक परिवर्तन जरूर हुआ, पर सांस्कृतिक परिवर्तन उनके बीच नहीं हुआ।

खाखा कमेटी के अध्यक्ष रहे प्रो. वर्जिनियस खाखा के मुताबिक यह एक ऐसा तरीका है जिसके चलते आदिवासी इलाकों को घटाया जाएगा और परिणामस्वरूप अनुसूचित क्षेत्र को आबादी के आधार पर घटाया जा सकेगा। इसका अर्थ यह हुआ कि पंचायत (एक्सटेंशन टू सेड्यूल्ड एरिया) एक्ट 1996 (पेसा) और वन अधिकार क़ानून 2006 ऐसे क्षेत्रों में अपने आप ही निरस्त हो जाएगा। यदि इस आधार पर बांटने की प्रक्रिया जारी रही तो आने वाले दिनों में केवल झारखंड के ही आधे से अधिक हिस्से को अनुसूचित क्षेत्र से डिलिस्टिंग के आधार पर डिनोटिफाई कर उसे सामान्य क्षेत्र के रूप में घोषित किया जायेगा। यदि भारत की पांचवीं अनुसूची के अंतर्गत आने वाले क्षेत्र में ऐसा हुआ तो फिर उत्तर-पूर्व के छठीं अनुसूची वाले राज्यों में भी इनका यही रवैया होगा। इससे तो सारा देश बर्बाद हो जायेगा। और यह सारा कारनामा सरकार के इशारों पर जनजाति सुरक्षा मंच द्वारा आदिवासियों में भ्रम फैला रहा है।

संघ परिवार का यह षड्यंत्र लंबे समय से जारी है कि किस तरह से आदिवासी क्षेत्र को घटाया जाये ताकि वहां से भी सामान्य वर्ग के लोग चुनाव लड़ें और जीत कर आएं। डिलिस्टिंग जैसी हरकत इस षड्यंत्र का हिस्सा है कि किस तरह हिंदू और हिंदू राष्ट्र के बहाने ब्राह्मणवाद को पूर्ण रीति से आदिवासी इलाकों में फैलाया जाये और उस पूरे इलाके को अपने कब्जे में लिया जाये। इस चक्रव्यूह में आदिवासियों का कोई स्थान नहीं, केवल उन्हीं आदिवासियों को कुछ स्थान मिलेगा जो संघ के कारनामे के हिस्सेदार बनाने के लिए राजी होंगे।

डिलिस्टिंग के विरोध में लामबंद होते आदिवासी संगठन

डिलिस्टिंग के खिलाफ छत्तीसगढ़ के अंबिकापुर में ईसाई आदिवासी महासभा ने भी जून 11, 2022 को एक महारैली की। संगठन के पदाधिकारियों के अनुसार जनजाति सुरक्षा मंच के द्वारा किया जा रहा सार्वजनिक प्रदर्शन और मांग अनुचित है। इस रैली में धर्मान्तरित आदिवासियों को जनजाति सूची से बाहर करना संविधान विरोधी करार दिया गया।

छत्तीसगढ़ प्रदेश में सर्व आदिवासी समाज डिलिस्टिंग के खिलाफ एकजुट हो रहा है। हालांकि इस संबंध में कोई औपचारिक घोषणा या बयान अभी जारी नहीं हुआ है, पर अंदरूनी सूत्रों से मिली जानकारी के मुताबिक इस मसले में जल्द ही कोई बड़ा बयान और एक्शन प्रोग्राम की घोषणा की जाएगी।

इस सिलसिले में जय आदिवासी युवा शक्ति (जयस) के संस्थापक और मध्यप्रदेश से भारतीय ट्राइबल पार्टी के विधायक हीरालाल अलावा कहते हैं कि डिलिस्टिंग का पूरा मुद्दा फ़र्ज़ी है। डिलिस्टिंग के मुद्दे के ज़रिए आरएसएस आदिवासियों के आरक्षण को समाप्त करने की साज़िश कर रहा है। अगर वो इस मुद्दे पर गंभीर है तो फिर उन्हें यह मुद्दा नॉर्थ ईस्ट से शुरू करना चाहिए था। वहां के ट्राइबल ग्रुप में से 90 प्रतिशत ईसाई धर्म को मानते हैं।

यह भी सच है कि आदिवासियों की अपनी संस्कृति और धर्म है, पर 1961 के बाद के हर जनगणना में उन्हें स्वाभाविक रीति से हिंदू मानकर चला जाने लगा। जिन जिन समुदायों का बाहरी हिंदू समुदायों से संपर्क बनने लगा वे ऐसे आदिवासी समुदाय हैं जो धीरे धीरे हिंदू रीति रिवाजों को मानने लगे हैं। इस संदर्भ में अलावा सवाल करते हैं कि “क्या ऐसे हिंदू रीति मानने वाले आदिवासी समुदायों या परिवारों को भी आरक्षण के लाभ से वंचित किया जाएगा? यह आरएसएस-बीजेपी के एक राजनीतिक पैंतरे के सिवाय और कुछ नहीं है।”

दूसरी ओर बीटीपी के एक अन्य नेता वेलाराम घोघरा ने आरएसएस के जनजाति सुरक्षा मंच की ओर से डिलिस्टिंग की मांग का पुरजोर विरोध करने के साथ-साथ आदिवासियों के धर्मकोड को बहाल करने की मांग उठाई है।

क्या कहता है संविधान?

डिलिस्टिंग संपूर्ण रूप से संविधान के खिलाफ है। भारत के संविधान में आरक्षण का आधार धर्म नहीं, बल्कि भौगोलिक परिस्थितियां, पिछड़ापन और परिवेश है। संविधान के अनुच्छेद 342 के तहत आदिवासियों को अनुसूचित जनजाति में नोटिफाइड किया गया है। नोटिफिकेशन में स्पष्ट कहा गया है कि आदिवासी किसी भी धर्म से संबंधित नहीं हैं। यानी आदिवासी न ईसाई, न मुस्लिम, न हिन्दू और न सिख। इस पर माननीय सर्वोच्च न्यायालय व अलग-अलग राज्यों के उच्च न्यायालय भी कई आदेश दे चुके हैं। इन आदेशों के अनुसार आदिवासी लोग सभी धर्मों का सम्मान भी करते हैं, और वे अपनी इच्छा के अनुरूप किसी भी धर्म को मान सकते हैं। लेकिन आदिवासी समुदाय और उनकी संस्कृति प्रकृति और पूर्वजों की उपसना से अभिन्न रूप से जुड़ी है।

सामान्य तौर पर गैर-अनुसूचित क्षेत्रों में मान्य कई क़ानून अनुसूचित क्षेत्र में मान्य नहीं है। संविधान के आधार पर जयस जैसे संगठन का मानना है कि कुछ धार्मिक संगठन लगातार आदिवासियों में भय फैला रहे हैं। संगठन के पदाधिकारियों के अनुसार आदिवासियों में धर्मांतरण को मुद्दा बना कर समाज में विभाजन पैदा किया जा रहा है। आदिवासी समुदाय में डिलिस्टिंग कैंपेन एक भय पैदा करने में कामयाब हुआ है। इस अभियान से एक और तथ्य साफ़ हो रहा है कि इसका दायरा किसी एक राज्य तक सीमित नहीं है। आदिवासी क्षेत्रों में धार्मिक उन्माद फैलाने वाले संगठनों को संविधान के अनुच्छेद 19 (5) के तहत अनुसूचित क्षेत्र में प्रतिबंधित किया जाना चाहिए।

छत्तीसगढ़ हाई कोर्ट के अधिवक्ता आशीष बेक के अनुसार आदिवासियों के बीच यह सवाल कभी नहीं उठता है, जब उनकी पहचान हिंदू धर्म से संबंधित होती है। कहने के लिए तो उनकी पहचान आदिवासी की है, पर वास्तव में हिंदू ही की है क्योंकि हर एक के जाति प्रमाण पत्र में हिंदू ही लिखा जाता है। यही वजह है कि जैसे ही हिंदू के अलावा और किसी धर्म, उदाहरणार्थ ईसाई धर्म, की बात होती है, तब पूरे के पूरे हिंदू राष्ट्र के प्रचारकों में खलबली मचने लगती है।

बीटीपी के राजस्थान प्रदेश प्रवक्ता देवेन्द्र कटारा बताते हैं कि अगर डीलिस्टिंग होती है, तो संविधान के अनुच्छेद 244 का अस्तित्व ही समाप्त हो जायेगा। इससे आदिवासियों के लिए आरक्षण की व्यवस्था खत्म हो जाएगी। इतना ही नहीं आदिवासियों के लिए आरक्षित लोकसभा व विधानसभा सीट खत्म होने के साथ कई प्रकार के नुकसान होंगे।

ईसाई आदिवासी महासभा के अध्यक्ष मुन्ना टोप्पो के मुताबिक संविधान के अनुच्छेद 342 और 342 (1) के आधार पर हर राज्य ने अपनी सूची निर्धारित की है। इस आधार पर 1950 में जारी अनुसूचित जनजाति अध्यादेश (सूचि) मूलतः 1931 में तैयार की गयी आदिम जनजातियां (प्रिमिटिव ट्राइब्स) तथा भारत सरकार अधिनियम 1935 के तहत की गई पिछड़ी जनजातियां (बैकवर्ड ट्राइब्स) की सूची पर आधारित हैं। इसे तैयार करते समय भौगोलिक अलगाव, विशिष्ट जीवन शैली, आदिम अर्थ प्रणाली, रूढ़ि व परंपरायें, विलक्षण रीति-रिवाज, प्रथागत कानून, जनजातीय भाषा का प्रयोग, युवा गृह आदि लक्षणों को ध्यान में रखा गया था। क्या इसे इतनी आसानी से बदला जा सकता है?

इस संदर्भ में पीयूसीएल छत्तीसगढ़ के प्रदेश अध्यक्ष डिग्री प्रसाद चौहान एक और महत्वपूर्ण पहलू की ओर इशारा करते हैं। चौहान का कहना है कि धार्मिक अल्पसंख्यकों को देश के संविधान में समानता के अधिकार के तहत सुरक्षा प्राप्त है। अनुच्छेद-14 एवं अनुच्छेद-16 उन्हें देश के कानूनों के तहत समान सुरक्षा की गारंटी देता है तथा धार्मिक आधारों पर उनके साथ किसी तरह के भेदभाव का निषेध करता है। लेकिन देश के कई राज्यों में धार्मिक स्वतंत्रता कानून उसके नाम के विपरीत व्यक्ति को एक धर्म से दूसरे धर्म में दीक्षित करने पर रोक लगाने हेतु लागू किये गए हैं। यह कानून जितने सरल और हानिरहित लगते हैं, वास्तविकता में उतने हैं नहीं। जहां इस कानून की आड़ में अल्पसंख्यकों को प्रताड़ित और अपमानित करने की अद्भुत संभावनाएं हैं। वहीं दूसरी ओर, घर वापसी अथवा मूल धर्म में वापसी जैसे धर्म उन्मादी व कट्टरपंथी कृत्यों को इन कानूनों के दायरे से बाहर रखा गया है।

क्या है धर्मान्तरण के बहस का असली कारण?

डिलिस्टिंग का मामला धर्मान्तरण के सवाल से उत्पन्न हुआ है। हाल ही में बस्तर संभाग के विगत 3 सालों में हुए कुछ 300 से अधिक धर्मान्तरण संबंधित घटनाओं का अध्ययन किया गया। इनमें से कुछ 40 मामलों में विस्तृत केस स्टडी भी किया गया। संघ परिवार के विभिन्न संगठनों द्वारा हमेशा यह आरोप लगाया जाता है कि धर्मान्तरण तरह-तरह के दबाव, प्रलोभन, लालच, जोर-जबरदस्ती, पैसा देकर, धमकाकर किया जाता है। पर हमारे अध्ययन में ऐसा एक भी मसला सामने नहीं आया। इसके विपरीत घर-वापसी के नाम पर धमकी, जोर-जबरदस्ती और दबाव के कई सारे मामले सामने आये।

इस संदर्भ में एक और घटना ध्यान देने योग्य है। विगत 1 अक्टूबर, 2021 को प्रदेश के सरगुजा जिले में सर्व सनातन हिंदू रक्षा मंच ने धर्मान्तरण के खिलाफ एक विशाल विरोध रैली का आयोजन किया था। यह आदिवासी हिंदुओं के ईसाई धर्म के प्रति बढ़ती आस्था के खिलाफ था। इसमें मुख्य वक्ता स्वामी परमानंद थे। रैली में आये हुए लोगों को संबोधित करते हुए वह कहते हैं, “मैं ईसाइयों और मुसलमानों के लिए अच्छी भाषा बोल सकता हूं, पर इनको यही भाषा समझ आती है। धर्म की रक्षा भगवान का काम है और यही हमारा काम भी है। हम किसके लिए कुल्हाड़ी रखते हैं? जो धर्मान्तरण करने आता है उसकी मुंडी काटो। अब तुम कहोगे कि मैं संत होते हुए भी नफरत फैला रहा हूं। लेकिन कभी-कभी आग भी लगानी पड़ती है। मैं तुम्हें बता रहा हूं; जो कोई भी आपके घर, गली, मोहल्ले, गांव में आता है, उन्हें माफ नहीं करना।”

वह आगे ईसाइयों को सही रास्ते पर लाने का रोको, टोको और ठोकोका फॉर्मूला भी देते हैं। परमानंद महाराज ऊंचे स्वर में बोलते हैं, “पहले उन्हें (ईसाइयों) मित्र की तरह समझाओ। उन्हें रोकोऔर अगर नहीं मानें तो ठोको। मैं उनसे पूछता हूं जो इस धर्म (ईसाई) में चले गए, समुद्र छोड़कर कुएं में क्यों चले गए? इन्हें रोको‘, फिर टोको (विरोध) और ठोको।

धर्म परिवर्तन की बहस और घर वापसी एक ही सिक्के के दो पहलू हैं। अब इस बहस में एक नया पहलू डिलिस्टिंग भी जुड़ गया है। इसने एक नई खतरनाक प्रवृत्ति को जन्म दिया है जो व्यक्तिगत धार्मिक स्वतंत्रता, और भारत की संवैधानिक अधिकारों की अनिवार्य धर्मनिरपेक्षता दोनों के लिए खतरा है। केंद्र में भाजपा सरकार की वजह से हिंदू राष्ट्र का एजेंडा मजबूत हुआ है, जिसके अंतर्गत धार्मिक अल्पसंख्यकों के आराधना स्थलों और व्यक्तियों के खिलाफ व्यापक हिंसा के चलते वे बहुत अधिक असुरक्षित महसूस कर रहे हैं।

डिलिस्टिंग आदिवासियों को धर्म के नाम पर आपस में लड़वाने का नया और बेहतरीन औजार है। आदिवासी इलाकों की एक और विशेषता है कि यह खनिज संपदा से भरपूर है जिस पर बहुराष्ट्रीय कंपनियों की नज़र लंबे समय से है। यदि मध्य भारत के राज्यों को देखें, जैसे छत्तीसगढ़, ओडिशा, झारखंड, मध्यप्रदेश और विदर्भ, यहां लंबे समय से माओवाद और माओवाद के खात्मे का हिंसा-प्रतिहिंसा का चक्रव्यूह भी जारी है। इन इलाकों में आदिवासी मूलनिवासी लोगों का जल, जंगल, जमीन, नदी, नाला, फल-फूल, कंद-मूल व अन्य संपदा के छीने जाने और उसे बहुराष्ट्रीय कंपनियों को दिए जाने में समाज, सरकार, माओवादी, हिंदूवादी, आदिवासीवादी – किसी को भी संस्कृति के नष्ट या विलुप्त होने का खतरा नहीं दिखता। शायद इन सबके अनुसार संस्कृति का खात्मा केवल ईसाई बनाने से ही होता हैं। ऐसे में इस उलझन को बनाये रखने और उसे बढ़ावा देने का सबसे उचित उपाय है – धर्म, संस्कृति, देवी-देवता, इत्यादि। डिलिस्टिंग इसी उलझन को लंबे समय तक बनाये रखने का एक खतरनाक राजनीतिक रणनीति है।

2015 में, पी.ई.डब्लू (प्यू) द्वारा किए गए शोध ने बताया कि धर्म से जुड़े उच्चतम सामाजिक शत्रुता के लिए भारत दुनिया में सीरिया, नाइजीरिया और इराक के बाद चौथे स्थान पर था। यह स्थिति आज और भी भयानक हो चुकी है। संवैधानिक रूप से, भारतीय राजनीति और धर्म के बीच के संबंध को धर्मनिरपेक्षता द्वारा परिभाषित किया गया है। हालांकि, भारत की धर्मनिरपेक्ष पहचान अपनी बहसों से रहित नहीं है, जिनमें से कम से कम भारतीय सामाजिक ताने-बाने में जाति व्यवस्था से जुड़ी चुनौतियां सबसे ऊपर हैं। आदिवासी संदर्भ से अनगिनत बुनियादी सवाल उठते हैं, पर इस पर कोई बहस नहीं है। लेकिन भारत को अनिवार्य रूप से हिंदू राष्ट्र घोषित कर पूरे समाज को नई रीति के जातिगत गुलामी की ओर धकेलने की तैयारी स्पष्ट रूप से जरूर दिख रही है।

(छत्तीसगढ़ से पत्रकार और एक्टिविस्ट डॉ. गोल्डी एम जॉर्ज की रिपोर्ट।)

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