वैश्विक मंदी के बावज़ूद दुनिया भर में बेशुमार मुनाफ़ा कमा रही हैं हथियार कम्पनियां

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आज दुनिया भयानक रूप से आर्थिक मंदी की शिकार है। कोरोना महामारी के दौरान यह स्थिति और बिगड़ गई। मंदी के कारण मुनाफ़े की दर बहुत कम हो गई।‌ तीसरी दुनिया तथा विकसित तथा विकासशील देश सभी इस मंदी का‌ शिकार हैं।

ग़रीबी और बेरोज़गारी बढ़ रही है। इन सबके बावज़ूद एक सेक्टर जिस पर मंदी का कोई असर नहीं है। यह यों कहें कि सबसे ज़्यादा मुनाफ़ा कमा रहा है, वह है-हथियारों का वैश्विक बाज़ार।

अभी आई एक रिपोर्ट के अनुसार भारत में नागपुर की विस्फोटक सामग्री बनाने वाली कम्पनियों 3000 करोड़ का ऑर्डर मिला है। अब तक 1000 करोड़ का माल सप्लाई भी हो चुका है।‌

ख़ास बात यह है कि यहां ख़रीददार रूस-यूक्रेन नहीं बल्कि बुल्गारिया, स्पेन, जर्मनी, दक्षिणी अफ्रीका, वियतनाम, ब्राजील, पोलैंड और सऊदी अरब जैसे देश हैं। वास्तव में ख़रीदने के बाद इन गोला-बारूदों की सप्लाई कहीं और ही की जाती है।

इस बाज़ार में सबसे ज़्यादा मांग 155 एमएम, होवित्जर गन, 40 एमएम शोल्डल फायर्ड रॉकेट की है। टाइम्स ऑफ इंडिया की रिपोर्ट के मुताबिक पिछले तीन महीने में नागपुर से 900 करोड़ से ज़्यादा के कारतूस, रॉकेट और बम सप्लाई हो चुके हैं। इसके अलावा 3 हजार करोड़ से ज़्यादा का ऑर्डर मिला है। इसमें कच्ची बारूद का ऑर्डर भी शामिल है।

दुनिया भर में चल रहे युद्धों और अशान्ति के कारण भारत जैसे विकासशील देशों तक की युद्धक सामग्री बनाने वाली कम्पनियां तक जब अपार मुनाफ़ा कमा रही हैं। तब यह आसानी से समझा जा सकता है कि बड़े विकसित देशों की कम्पनियां कितना सुपर मुनाफ़ा कमा रही होंगी।

भले ही ये विकसित देश दुनिया में शान्ति की बात करते हों, लेकिन यह उनके हित में है कि दुनिया भर में युद्ध चलते रहें और उनका मुनाफ़ा बढ़ता रहे।

22-23 सितंबर को न्यूयॉर्क में संयुक्त राष्ट्र की आम सभा हुई। इसमें विभिन्न देशों के प्रधानमंत्री, राष्ट्रपति और अन्य प्रमुखों ने दुनिया के ज्वलंत मुद्दों पर चर्चा की। दो सबसे बड़े मुद्दे जो लगभग हर वक्ता के भाषण का केंद्र बिंदु बने, वे थे गाज़ा और यूक्रेन में चल रहे युद्ध।

दुनिया में युद्ध की आग सबसे ज़्यादा भड़काने वाली साम्राज्यवादी शक्ति संयुक्त राज्य अमेरिका के राष्ट्रपति जो बाइडेन ने दोनों युद्धों को रोकने और दुनिया में शान्ति स्थापित करने की दोगली बातें की। अन्य देशों के प्रमुखों ने भी ऐसी ही घिसी-पिटी बातें दोहराई।

ग़ौरतलब है कि दुनिया-भर के लुटेरे शासक (ख़ासकर साम्राज्यवादी) साल-भर शांति वार्ताओं, सम्मेलनों आदि में हिस्सा लेते रहते हैं और शांति बनाने की अपीलें जारी करते हैं, लेकिन व्यवहार में लगातार ना केवल युद्ध छेड़ रहे हैं, बल्कि भविष्य के युद्धों के लिए लगातार हथियार बनाने में लगे हुए हैं।

इनके काम इनकी कथनी के पूरी तरह उलट हैं। यह बात दुनिया में ज़्यादातर देशों में बढ़ रहे सैन्य खर्चें और हथियार कंपनियों के बढ़ते मुनाफ़े से भी साफ़ होती है।

एक ताज़ा रिपोर्ट के अनुसार साल 2022 में संसार-भर के देशों का कुल सैन्य खर्चा 3.7 प्रतिशत से बढ़कर 2. 24 खरब अमेरिकी डॉलर हो गया है। जिसमें बड़ा हिस्सा मुट्ठी-भर देशों का ही है।

अमेरिकी साम्राज्यवादी शासक अपने साम्राज्यवादी गुट नाटो के देशों पर यह दबाव डाल रहे हैं कि वे अपना सैन्य खर्चा बढ़ाकर कम से कम सकल घरेलू उत्पादन के 2 प्रतिशत तक ले आएं। इस बढ़ रहे सैन्य ख़र्च का सीधा फ़ायदा दुनिया की 15 सबसे बड़ी हथियार उत्पादक कंपनियों को हुआ है।

विशेषज्ञों ने अनुमान लगाया कि साल 2026 में ये 15 उत्पादक लगभग 52 अरब अमेरिकी डॉलरों के हथियार बेचेंगे। जिनमें 26 अरब अमेरिकी डॉलर के ऑर्डर तो अमेरिका की पांच सबसे बड़ी हथियार कंपनियों (लॉकहीड, मार्टिन, आरटीएक्स, नॉथ्रॉप ग्रुम्मन, बोइंग और जनरल डायनामिक्स) को ही मिलने की उम्मीद है।

इस बढ़ रहे सैन्य ख़र्चे का लाभ केवल संयुक्त राष्ट्र अमेरिका की कंपनियां ही नहीं, बल्कि यूरोप की हथियार उत्पादक कंपनियां भी उठा रही हैं।

इस समय यूरोप के हथियार उद्योग के पास कुल 30 करोड़ अमेरिकी डॉलर के पुराने ऑर्डर पड़े हैं। इस बढ़ी हुई मांग के और आगे बढ़ने के कयासों का प्रभाव सट्टा बाज़ार में भी दिखाई दे रहा है। जहां इन हथियार कंपनियों के स्टॉक लगातार बढ़ रहे हैं।

हथियारों की बढ़ी हुई मांग का फ़ौरी कारण यूक्रेन में जारी रूस-अमेरिका साम्राज्यवादी युद्ध, ताइवान और दक्षिण चीन सागर में तीखे हो रहे चीन-अमेरिकी साम्राज्यवादी तनाव और फि़लिस्तीन पर इज़रायल द्वारा थोपा गया युद्ध है।

दुनिया-भर की हथियार कंपनियां अमेरिकी साम्राज्यवादियों, पश्चिमी यूरोप के साम्राज्यवादियों, रूस-चीन के साम्राज्यवादियों और इनके साम्राज्यवादी कैंप के अन्य देशों को जो हथियार बेच रही हैं, वे इस समय मुख्य तौर पर गाज़ा, यूक्रेन, लेबनान, सीरिया आदि में निर्दोष लोगों का क़त्लेआम करने में इस्तेमाल किए जा रहे हैं।

एक ओर साम्राज्यवादी देश इन युद्ध क्षेत्रों में लोगों की मदद करने के नाम पर कुछ फंड जारी करके ड्रामा करते हैं और दूसरी ओर उस फंड की राशि से कई हज़ार गुना पैसे अधिक हथियार खरीदने पर खर्च करते हैं।

पूंजीवादी उत्पादन का केंद्रीय लक्ष्य अधिक से अधिक मुनाफ़ा हासिल करना होता है। पूंजीपति को इस बात की परवाह नहीं होती कि जो माल वह बाज़ार में बेचता है, वह किस काम आता है, बल्कि उसकी दिलचस्पी केवल माल की क़ीमत में है और उससे होने वाले मुनाफ़े में होती है।

पिछले दशक और ख़ासतौर पर अर्ध दशक से हथियारों के उत्पादक काफ़ी ज़्यादा मुनाफ़ा हासिल कर रहे हैं। इसका कारण विश्व स्तर पर दो साम्राज्यवादी गुटों, अमेरिका के नेतृत्व वाले नाटो गुट और रूस-चीनी साम्राज्यवादी गुट में तनाव बढ़ा है।

इसी बढ़े हुए तनाव का नतीजा दुनिया भर में अलग-अलग तरह के छद्म क्षेत्रीय युद्ध शुरू होना है। यूक्रेन, सीरिया, अफ़्रीका, दक्षिण चीन सागर आदि में यही दो शक्तियां भिड़ रही हैं। गाज़ा में एक ओर फि़लिस्तीनी आबादी है और दूसरी ओर इज़रायली हमलावर हैं, जो अमेरिका की ही मध्य पूर्व में सरदारी के लिए स्थापित की गई साम्राज्यवादी चौकी है।

ये तथ्य दिनों-दिन स्पष्ट होते जा रहे हैं और मुख्यधारा मीडिया का एक हिस्सा भी अब इन तथ्यों की पुष्टि करने पर मज़बूर हुआ है। साम्राज्यवादी देशों और इनके संगी क्षेत्रीय शासकों के संकीर्ण राजनीतिक-आर्थिक हित ही जनता के क़त्लेआम, उजाड़े जाने और भुखमरी के लिए सीधे-सीधे ज़िम्मेदार हैं।

किसी मसले के हल के लिए उसकी जड़ को समझना ज़रूरी होता है।

आख़िर इस पूंजीवादी-साम्राज्यवादी व्यवस्था में ऐसे कौन से कारक हैं, जो इस ख़ूनी हथियार उद्योग को लगातार ज़िंदा रखते हैं। क्यों यह व्यवस्था लगातार विभिन्न तरह के युद्धों को जन्म देती रहती है। जिसके नतीजे के तौर पर ही हथियारों की मांग बढ़ती है।

जैसा कि पहले ज़िक्र किया गया है कि बढ़ रहे साम्राज्यवादी तनाव के कारण ही हथियारों की मांग बढ़ रही है। असल में यह पूंजीवादी-साम्राज्यवादी व्यवस्था जब तक ज़िंदा रहेगी तब तक इन युद्धों को जन्म देती रहेगी।

इस समय दुनिया में मुख्य तौर पर दो तरह के देश हैं-एक साम्राज्यवादी और दूसरे साम्राज्यवाद पर आर्थिक तौर पर निर्भर लेकिन राजनीतिक तौर पर आज़ाद देश। साम्राज्यवादी देश आज दो मुख्य विरोधी गुटों में बंटे हुए हैं-अमेरिका के नेतृत्व वाला पश्चिमी साम्राज्यवादियों का नाटो गुट और दूसरी ओर चीन-रूस गुट।

हालांकि इन दोनों गुटों में शामिल देशों के अंतरविरोध हैं। लेकिन मुख्य तौर पर ये दो गुट आपस में विश्व राजनीति और आर्थिक वर्चस्व के लिए भिड़ रहे हैं। दूसरे प्रकार के देश आर्थिक, तकनीकी तौर पर साम्राज्यवादी देशों पर निर्भर होने के कारण एक या दूसरे साम्राज्यवादी कैंप में शामिल होने के लिए मज़बूर हैं।

विश्व बाज़ार (पूंजी निवेश करने के लिए, कच्चा माल हासिल करने के लिए, माल बेचने के लिए बाज़ार, सस्ती श्रम-शक्ति हासिल करने के लिए) पर आर्थिक-राजनीतिक नियंत्रण के लिए इन साम्राज्यवादी गुटों में लगातार मुक़ाबला चलता रहता है और पूंजीवादी उत्पादन संबंधों में यह मुक़ाबला कभी भी ख़त्म नहीं किया जा सकता।

इस मुक़ाबले के इज़हार इन साम्राज्यवादी देशों द्वारा देशों से विभिन्न प्रकार के आर्थिक और राजनीतिक समझौते, आर्थिक और राजनीतिक गुट, दूसरे साम्राज्यवादी देशों पर विभिन्न प्रतिबंधों आदि में भी देखने को मिलता है।

विश्व बाज़ार के अधिक से अधिक हिस्सों पर क़ब्ज़े के लिए इस साम्राज्यवादी तनाव के बढ़ने का नतीजा ही युद्ध होता है। जब यह मुक़ाबला आर्थिक-राजनीतिक समझौतों और बातचीत से हल नहीं होता तो इसका विस्फोट युद्ध के रूप में होता है।

साम्राज्यवादी युद्ध कोई ऐसी घटनाएं नहीं जो एकदम किसी व्यक्ति की मूर्खता के कारण शुरू हो जाती हैं। बल्कि यह आर्थिक और राजनीतिक क्षेत्र में साम्राज्यवादी मुक़ाबलेबाजी का लाज़िमी नतीजा हैं। एक जर्मन पत्रिका क्लॉज़विट्ज़ के शब्दों में ‘ युद्ध अन्य तरीक़ों से राजनीति (नीति) की ही निरंतरता है।’

साम्राज्यवादी युद्ध लाज़िमी ही पूंजीवादी-साम्राज्यवादी मुक़ाबलेबाजी का लाज़िमी परिणाम हैं। यही इन साम्राज्यवादी युद्धों की जड़ है। ये युद्ध लाखों-करोड़ों लोगों के क़त्लेआम, उजाड़, तरह-तरह की शारीरिक-मानसिक तकलीफ़ों, बीमारियों का कारण बनते हैं।

इन युद्धों में आम जनता पर होने वाले ज़ुल्मो-सितम, दमन-अत्याचार को शब्दों में बयान नहीं किया जा सकता।

इसके अलावा दुनिया-भर के लुटेरे शासक पूंजीपतियों की सेवा के लिए जो सैन्य ख़र्च बढ़ा रहे हैं, उसके लिए पैसा भी जनता का और ज़्यादा ख़ून चूसकर जुटाया जा रहा है। ऐसे में वे जनता पर टैक्सों का बोझ बढ़ाकर और बुनियादी सार्वजनिक सुविधाओं (शिक्षाए सेहतए पेंशन आदि) पर कट लगाकर कर रहे हैं।

इन क़दमों से जनता पर दुख-तकलीफ़ों का बोझ काफ़ी बढ़ता जा रहा है, लेकिन लोग भी चुप करके नहीं बैठे हैं। जनता में इन शासकों और व्यवस्था के ख़िलाफ़ आक्रोश जमा होता जा रहा है। नतीजतन पिछले तीन-चार साल में दुनिया में समस्त साम्राज्यवादी देशों के रोष-प्रदर्शन और हड़तालों में बढ़ोतरी हुई है।

(स्वदेश कुमार सिन्हा लेखक और स्वतंत्र टिप्पणीकार हैं)

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