Saturday, April 20, 2024

दिल्ली हिंसा: ऊपरी आदेश की प्रतीक्षा ने पुलिस को किया विकलांग

आज़ादी के बाद 1984 के दंगों को छोड़ दें तो दिल्ली में दंगों का इतिहास नहीं रहा है। उस दंगे में भी पुलिस की भूमिका पर सवाल उठा था, और आज जब दिल्ली हिंसा पर बात हो रही है तो कठघरे में पुलिस ही है। इस दंगे में पुलिस अपना प्रोफेशनल दायित्व निभाने में असफल रही औऱ कई ऐसे अवसर पर जब उसे मज़बूती से कानून को लागू करना चाहिए था तो वह निर्णय विकलांगता की स्थिति में दिखी। दिल्ली में जब 23 फरवरी को छिटपुट हिंसा होंने लगी तो जो स्वाभाविक प्रतिक्रिया किसी भी पुलिस बल की होती है वह भी करने में दिल्ली पुलिस असफल रही। आज सबसे अधिक सवाल दिल्ली पुलिस की भूमिका पर ही उठ रहे हैं।
पुलिस के गैर-पेशेवराना रवैये पर टिप्पणी करते हुये धर्मवीर की अध्यक्षता में गठित, नेशनल पुलिस कमीशन ने भी 1979 में कहा है कि, “पुलिस की वर्तमान स्थिति उसी विरासत की देन है, जो ब्रिटिश उपनिवेशवाद से पुलिस को मिली है। वह राजनीतिक सत्ता को बनाये रखने का एक औज़ार बन कर रह गई है।” चालीस साल पहले की गयी, पुलिस कमीशन की यह टिप्पणी आज भी उतनी ही प्रासंगिक है। इसी को देखते हुए पुलिस कमीशन ने पुलिस सुधार के लिये कई सिफारिशें की हैं जो अभी तक लंबित हैं या कुछ राज्यों द्वारा आधी अधूरे तरह से लागू की गई हैं।
दिल्ली हिंसा आकस्मिक नहीं है और न ही इसका तात्कालिक कारण धर्म से जुड़ी कोई इमारत मंदिर या मस्ज़िद है। न तो यह मुहर्रम या दशहरे से जुड़े किसी उन्मादी जुलूस के बीच आपसी टकराव का नतीजा है और न ही होली, बकरीद से जुड़ी किसी घटना से। नए नागरिकता कानून के विरोध स्वरूप देश भर में विरोध प्रदर्शन चल रहे हैं दिल्ली में भी ऐसे ही एक धरना और सड़क जाम के दौरान भाजपा नेता कपिल मिश्र वहां पहुंचते हैं और कहते हैं कि ट्रम्प के जाने तक वे चुप रहेंगे फिर निपटेंगे। यह नेता पहले भी दिल्ली चुनाव प्रचार के दौरान भी आपत्तिजनक साम्प्रदायिक भाषण दे चुके हैं। फिर उसके बाद हिंसा भड़क उठी। आज तक यह उन्माद थमा नहीं है।
दिल्ली पुलिस देश की सबसे साधन संपन्न पुलिस मानी जाती है। लेकिन इस दंगे में यह कई जगह किंकर्तव्यविमूढ़ सी दिखी। जब कुछ नेताओं द्वारा अनर्गल बयानबाजी की जा रही थी, और उससे शहर का माहौल बिगड़ रहा था, जब हिंसा हो रही थी, तब भी जितनी तेज और स्वाभाविक पुलिस का रिस्पॉन्स होना चाहिए था, जब कर्फ्यू लगा कर शांति स्थापित करने की सबसे अधिक, ज़रूरत थी तब पुलिस का रवैया बिल्कुल अनप्रोफेशनल था। साफ जाहिर हो रहा है कि पुलिस किसी ऊपरी आदेश की प्रतीक्षा में है, और वह यह निर्णय ले ही नहीं पा रही है कि कब क्या किया जाय। दिल्ली पुलिस की यह बदहवासी बढ़ती हिंसक घटनाओं के बावजूद नहीं दिखी। साथ ही, पिछले तीन चार महीने में जो पुलिस का रिस्पॉन्स जेएनयू, जामिया यूनिवर्सिटी, शाहीनबाग आदि के बारे में दिखा निराश करता है।
पुलिस की ऐसी अनप्रोफेशनल स्थिति हुयी कैसी इसका सबसे बड़ा कारण है, पुलिस के दिन-प्रतिदिन के कार्यो में राजनीतिक हस्तक्षेप। इस दखलंदाजी से मुक्त करने के लिए बीएसएफ और यूपी के पूर्व डीजीपी, प्रकाश सिंह ने पुलिस सुधार पर राष्ट्रीय पुलिस आयोग की सिफारिशों को लागू करने के लिये सुप्रीम कोर्ट में याचिका दायर की।
सुप्रीम कोर्ट ने वर्ष 2006 में पुलिस सुधार पर जनहित में कार्यवाही करने के लिये राज्य सरकारों को कुछ दिशानिर्देश ज़ारी किये। अदालत और आयोग की मुख्य चिंता पुलिस को बाहरी दबाओं से दूर रखने की थी। उन्हें यह पता है कि न तो कानून अक्षम है और न ही अधिकारी निकम्मे हैं, लेकिन 1861 से चली आ रही औपनिवेशिक मानसिकता कि कानून से अधिक सरकार चलाने वाला महत्वपूर्ण है, पुलिस का प्राइम मूवर बना हुआ है। इसीलिए, अदालत ने बाहरी दबावों से पुलिस को बचाने के लिए, एक महत्वपूर्ण दिशा निर्देश के रूप में राज्य सुरक्षा आयोग के गठन का निर्देश दिया। कुछ राज्यों ने सुप्रीम कोर्ट के दिशा निर्देशों के अंतर्गत उसके अनुपालन में कानून बनाए हैं, लेकिन वे कानून और गठित राज्य सुरक्षा आयोग सुप्रीम कोर्ट के उन उद्देश्यों की पूर्ति नहीं करते हैं, जिनके बारे में सोच कर सुप्रीम कोर्ट ने दिशा निर्देश जारी किये थे। मतलब स्पष्ट था कि सरकार कोई भी हो वह अपने राजनीतिक एजेंडे के अनुसार, पुलिस पर अपना नियंत्रण बनाये रखना चाहती है।
सभी दंगों की समीक्षा होती है। चाहे वह न्यायिक जांच के रूप में हो या प्रशासनिक जांच या कोई और अन्य जांच एजेंसी इसकी जांच करे। हर जांच में सबसे अधिक निशाने पर पुलिस की भूमिका ही होती है। दंगा भड़काने और फैलाने वालों की जो भी भूमिका और षड्यंत्र हो, उनके खिलाफ कार्यवाही करने, उन्हें नियंत्रित करने और शांति स्थापित कर कानून व्यवस्था बनाये रखने की जिम्मेदारी पुलिस बल की ही है। 1984 के सिक्ख विरोधी दंगे में पुलिस की भूमिका पर अपनी टिप्पणी करते हुये जस्टिस ढींगरा कमेटी ने अपनी एक रिपोर्ट में कहा है कि, ” हत्या, दंगा, लूटपाट, आगजनी के बड़ी संख्या में दर्ज अपराधों के लिए जो कारण बताए गये हैं वे एक दूसरे से मेल नहीं खाते हैं तथा असंबद्ध हैं। इन दर्ज मामलों की जांच और निपटारा, कानून के अनुसार करने या दोषियों को दंडित करने के इरादे से उठाये गए कदम, तार्किक नहीं हैं। “
दंगे किसी सामूहिक अपराध की तरह नहीं होते और आईपीसी के अंतर्गत दर्ज अपराधों के अनुसार वे गंभीर हों, यह भी ज़रूरी नहीं। जैसे मारपीट, आगजनी, संपत्ति का नुकसान आदि धारायें हत्या या हत्या के प्रयास आदि गम्भीर धाराओं की तुलना में हल्के अपराध हैं। लेकिन जब एक समूह के रूप में उन्मादित भीड़ योजनाबद्ध तरीके से यह सब अपराध करते चली जाती है तो, यही सारे अपराध जो असर भुक्तभोगियों और समाज पर डालते हैं, वे लंबे समय तक उनके मनोमस्तिष्क पर बने रहते हैं जिनका परिणाम बहुत घातक होता है। यह दुखद है कि 1984 के दंगों से जो सबक सीखे जाने चाहिए थे, वह इस दंगे के समय भी नहीं सीखे जा सकते। 1984 का दंगा भी पुलिस की किंकर्तव्यविमूढ़ता का एक दस्तावेज था और यह भी उसका एक लघुरूप ही लगता है। तभी हाईकोर्ट के जज जस्टिस मुरलीधर ने कहा कि वे दिल्ली को 1984 नहीं बनने देंगे। जब वे यह कह रहे थे तो उनका आशय राजनेता, पुलिस दुरभिसंधि जन्य पुलिस कार्रवाई ही थी। कोई आश्चर्य नहीं कि दिल्ली ही नहीं, अन्य राज्यों में भी इधर हाल के आंदोलनों में पुलिस की जो भूमिका रही, वह औपनिवेशिक काल के समान रही है, न कि एक लोककल्याणकारी राज्य की पुलिस सेवा की तरह।
चाहे दंगे हों या सामान्य अपराध या आंदोलनों से निपटने के अवसर, हर परिस्थितियों और आकस्मिकताओं के लिये कानून बने हैं। पुलिस को उन कानूनों को लागू करने के लिये उन्ही कानूनों में अधिकार और शक्तियां भी दी गयीं है। बस ज़रूरी यह है कि कानून को कानूनी तरीके से ही लागू किया जाय और पुलिस बल एक अनुशासित, प्रशिक्षित और दक्ष कानून लागू करने वाली एजेंसी की तरह काम करे न कि राजनैतिक आक़ाओं की एजेंडा पूर्ति करने वाले एक गिरोह में बदल जाय।

(विजय शंकर सिंह अवकाश प्राप्त आईपीएस हैं और कानपुर में रहते हैं।)

जनचौक से जुड़े

0 0 votes
Article Rating
Subscribe
Notify of
guest
0 Comments
Inline Feedbacks
View all comments

Latest Updates

Latest

जौनपुर में आचार संहिता का मजाक उड़ाता ‘महामानव’ का होर्डिंग

भारत में लोकसभा चुनाव के ऐलान के बाद विवाद उठ रहा है कि क्या देश में दोहरे मानदंड अपनाये जा रहे हैं, खासकर जौनपुर के एक होर्डिंग को लेकर, जिसमें पीएम मोदी की तस्वीर है। सोशल मीडिया और स्थानीय पत्रकारों ने इसे चुनाव आयोग और सरकार को चुनौती के रूप में उठाया है।

AIPF (रेडिकल) ने जारी किया एजेण्डा लोकसभा चुनाव 2024 घोषणा पत्र

लखनऊ में आइपीएफ द्वारा जारी घोषणा पत्र के अनुसार, भाजपा सरकार के राज में भारत की विविधता और लोकतांत्रिक मूल्यों पर हमला हुआ है और कोर्पोरेट घरानों का मुनाफा बढ़ा है। घोषणा पत्र में भाजपा के विकल्प के रूप में विभिन्न जन मुद्दों और सामाजिक, आर्थिक नीतियों पर बल दिया गया है और लोकसभा चुनाव में इसे पराजित करने पर जोर दिया गया है।

सुप्रीम कोर्ट ने 100% ईवीएम-वीवीपीएटी सत्यापन की याचिका पर फैसला सुरक्षित रखा

सुप्रीम कोर्ट ने EVM और VVPAT डेटा के 100% सत्यापन की मांग वाली याचिकाओं पर निर्णय सुरक्षित रखा। याचिका में सभी VVPAT पर्चियों के सत्यापन और मतदान की पवित्रता सुनिश्चित करने का आग्रह किया गया। मतदान की विश्वसनीयता और गोपनीयता पर भी चर्चा हुई।

Related Articles

जौनपुर में आचार संहिता का मजाक उड़ाता ‘महामानव’ का होर्डिंग

भारत में लोकसभा चुनाव के ऐलान के बाद विवाद उठ रहा है कि क्या देश में दोहरे मानदंड अपनाये जा रहे हैं, खासकर जौनपुर के एक होर्डिंग को लेकर, जिसमें पीएम मोदी की तस्वीर है। सोशल मीडिया और स्थानीय पत्रकारों ने इसे चुनाव आयोग और सरकार को चुनौती के रूप में उठाया है।

AIPF (रेडिकल) ने जारी किया एजेण्डा लोकसभा चुनाव 2024 घोषणा पत्र

लखनऊ में आइपीएफ द्वारा जारी घोषणा पत्र के अनुसार, भाजपा सरकार के राज में भारत की विविधता और लोकतांत्रिक मूल्यों पर हमला हुआ है और कोर्पोरेट घरानों का मुनाफा बढ़ा है। घोषणा पत्र में भाजपा के विकल्प के रूप में विभिन्न जन मुद्दों और सामाजिक, आर्थिक नीतियों पर बल दिया गया है और लोकसभा चुनाव में इसे पराजित करने पर जोर दिया गया है।

सुप्रीम कोर्ट ने 100% ईवीएम-वीवीपीएटी सत्यापन की याचिका पर फैसला सुरक्षित रखा

सुप्रीम कोर्ट ने EVM और VVPAT डेटा के 100% सत्यापन की मांग वाली याचिकाओं पर निर्णय सुरक्षित रखा। याचिका में सभी VVPAT पर्चियों के सत्यापन और मतदान की पवित्रता सुनिश्चित करने का आग्रह किया गया। मतदान की विश्वसनीयता और गोपनीयता पर भी चर्चा हुई।