Saturday, April 20, 2024

शिवसेना विवाद पर सुप्रीम कोर्ट ने कहा- पार्टी में असंतोष नहीं हो सकता है सदन में बहुमत साबित करने का आधार

सुप्रीम कोर्ट ने बुधवार को टिप्पणी की कि सत्तारूढ़ दल में विधायकों के बीच केवल मतभेद के आधार पर बहुमत साबित करने को कहने से एक निर्वाचित सरकार पदच्युत हो सकती है। चीफ जस्टिस डीवाई चंद्रचूड़, जस्टिस एम आर शाह, जस्टिस कृष्ण मुरारी, जस्टिस हिमा कोहली और जस्टिस पी एस नरसिम्हा की संविधान पीठ ने कहा कि राज्य का राज्यपाल अपने कार्यालय का इस्तेमाल इस नतीजे के लिए नहीं होने दे सकता। पांच जजों की संविधान पीठ ने कहा कि यह लोकतंत्र के लिए एक शर्मनाक तमाशा होगा।

संविधान पीठ ने यह टिप्पणी पिछले साल महाराष्ट्र में अविभाजित शिवसेना में एकनाथ शिंदे के नेतृत्व में हुई बगावत के बाद जून 2022 में महाराष्ट्र में पैदा हुए राजनीतिक संकट को लेकर दायर याचिका पर सुनवाई करने के दौरान की।

सुप्रीम कोर्ट ने राज्यपाल से कहा कि आप सिर्फ इसलिए विश्वास मत नहीं बुला सकते क्योंकि किसी पार्टी के भीतर मतभेद है। पार्टी के भीतर मतभेद फ्लोर टेस्ट बुलाने का आधार नहीं हो सकता। आप विश्वास मत नहीं मांग सकते। नया राजनीतिक नेता चुनने के लिए फ्लोर टेस्ट नहीं हो सकता। पार्टी का मुखिया कोई और बन सकता है। जब तक कि गठबंधन में संख्या समान है, राज्यपाल का वहां कोई काम नहीं। ये सब पार्टी के अंदरूनी अनुशासन के मामले हैं। इनमें राज्यपाल के दखल की जरूरत नहीं है।

संविधान पीठ ने कहा कि पार्टी के विधायकों के बीच मत का आधार कुछ भी हो सकता है, जैसे विकास कोष का भुगतान, पार्टी का आदर्शों से हटना, लेकिन क्या यह आधार राज्यपाल द्वारा सदन में बहुमत साबित करने को कहने के लिए पर्याप्त हो सकता है? राज्यपाल को अपने कार्यालय का इस्तेमाल खास नतीजे के लिए नहीं करने देना चाहिए। बहुमत साबित करने को कहने से निर्वाचित सरकार पदच्युत हो सकती है।

संविधान पीठ ने कहा कि इस मामले में नेता प्रतिपक्ष का पत्र मायने नहीं रखता क्योंकि वह हमेशा कहेंगे कि सरकार ने बहुमत खो दिया या विधायक नाराज हैं। इस मामले में विधायकों द्वारा जान को खतरा बताए जाने वाले पत्र भी प्रासंगिक नहीं है। संविधान पीठ ने कहा कि केवल एक चीज 34 विधायकों का प्रस्ताव है जो बताता है कि पार्टी के काडर और विधायकों में अंसतोष है। क्या यह बहुमत साबित करने को कहने के लिए पर्याप्त है? हालांकि, हम कह सकते हैं कि उद्धव ठाकरे संख्याबल में हार गए थे।

एसजी तुषार मेहता ने घटना का सिलसिलेवार उल्लेख किया और कहा कि उस समय राज्यपाल के पास कई सामग्री थी जिनमें शिवसेना के 34 विधायकों के हस्ताक्षर वाला पत्र, निर्दलीय विधायकों का तत्कालीन मुख्यमंत्री उद्धव ठाकरे नीत सरकार से समर्थन वापस लेने का पत्र शामिल है। साथ ही नेता प्रतिपक्ष ने सदन में बहुमत साबित करने की मांग की थी।

महाराष्ट्र के तत्कालीन राज्यपाल भगत सिंह कोश्यारी ने तब ठाकरे को सदन में बहुमत साबित करने को कहा था। हालांकि, ठाकरे ने सदन में बहुमत प्रस्ताव पर मतदान होने से पहले ही इस्तीफा दे दिया। इससे शिंदे के नए मुख्यमंत्री के तौर पर शपथ लेने का रास्ता साफ हुआ।

तुषार मेहता ने कहा कि 47 सदस्यों ने चिट्ठी लिखी थी। इनमे दो दूसरी पार्टी के विधायक भी थे। सदस्य कह रहे हैं कि उन्हें पार्टी पर भरोसा नहीं है। ऐसा नहीं है कि विधायक दल के सदस्य राजनीतिक दल से अलग हो रहे हैं। यहां वे अपना समर्थन वापस ले रहे हैं और यही अंतर है। दूसरे गुट के विधायक धमकी दे रहे हैं। क्या ऐसे में राज्यपाल का यह राय बनाना उचित नहीं होगा कि वास्तव में सरकार ने बहुमत खो दिया है। क्या शक्ति परीक्षण नहीं किया जा सकता? वह कौन सी सामग्री हो सकती है, जो राज्यपाल के निर्णय का आधार बने। ऐसे में राज्यपाल मूकदर्शक बने नहीं रह सकते हैं। ऐसे हालात में राज्यपाल का फ्लोर टेस्ट बुलाना संवैधानिक दायित्व है।

चीफ जस्टिस ने महाराष्ट्र के राज्यपाल से कहा कि उन्हें इस तरह विश्वास मत नहीं बुलाना चाहिए था। उनको खुद ये पूछना चाहिए था कि तीन साल की सुखद शादी के बाद क्या हुआ? राज्यपाल ने कैसे अंदाजा लगाया कि आगे क्या होने वाला है? चीफ जस्टिस ने राज्यपाल से आगे पूछा- क्या फ्लोर टेस्ट बुलाने के लिए पर्याप्त आधार था? आप जानते हैं कि कांग्रेस और एनसीपी एक ठोस ब्लॉक हैं। इस मामले पर बुधवार शाम को करीब चार बजे तक सुनवाई चली। उद्धव ठाकरे गुट की तरफ से कपिल सिब्बल की बहस जारी रहेगी।

चीफ जस्टिस ने राज्यपाल से कहा कि धारणा शिवसेना के भीतर आंतरिक मतभेदों को अधिक महत्व देने की है। एक तो पार्टी के भीतर असंतोष और दूसरा सदन के पटल पर विश्वास की कमी। ये एक-दूसरे का सूचक नहीं हैं। किस बात ने राज्यपाल को आश्वस्त किया कि सरकार सदन का विश्वास खो चुकी है। राज्यपाल को इन सभी 34 विधायकों को शिवसेना का हिस्सा मानना चाहिए तो फिर फ्लोर टेस्ट क्यों बुलाया गया? राज्यपाल के सामने तथ्य यह है कि 34 विधायक शिवसेना का हिस्सा थे। अगर ऐसा है तो राज्यपाल ने फ्लोर टेस्ट क्यों बुलाया। इसका एक ठोस कारण बताना चाहिए।

यह इंगित करते हुए कि एक विधायक दल के सदस्यों का एक नेता में विश्वास खोना पार्टी का आंतरिक मामला है, सीजेआई ने कहा कि राज्यपाल की इसमें कोई भूमिका नहीं है। आप कभी भी राज्यपाल को विश्वास मत मांगने की अनुमति नहीं दे सकते हैं, जब सदन के पटल पर बहुमत को हिलाने के लिए बिल्कुल कुछ नहीं है। विश्वास मत यह निर्धारित करने के लिए नहीं है कि सदन में आपका नेता कौन होगा।

चीफ जस्टिस ने इस बात पर भी प्रकाश डाला कि उनके अनुसार, राज्यपाल ने दो महत्वपूर्ण बातों पर ध्यान नहीं दिया। उन्होंने कहा कि एक, जहां तक कांग्रेस और एनसीपी का संबंध है, कांग्रेस या एनसीपी में कोई आंतरिक असंतोष नहीं है। कांग्रेस के 44 सदस्य थे और एनसीपी के 53 सदस्य थे। यह 97 का एक ब्लॉक है। 97 अभी भी एक ठोस ब्लॉक बना हुआ है।

चीफ जस्टिस ने आगे कहा कि परेशान करने वाली बात यह है कि शिवसेना के पास 56 में से 34 सदस्य हैं। दूसरी बात राज्यपाल को ध्यान में रखनी है कि इस तिथि के अनुसार, ऐसा कोई सुझाव भी नहीं है कि शिवसेना सरकार बनाने के लिए भाजपा के साथ मिलकर काम करेगी। वह इस बात से बेखबर नहीं हो सकते हैं कि तीन दलीय गठबंधन में, तीन में से एक दल में विरोध हुआ है। अन्य दो गठबंधन में अडिग हैं।

चीफ जस्टिस चंद्रचूड़ ने कहा कि विचाराधीन सरकार वैध रूप से बनी थी और चल रही थी। इस प्रकार, राज्यपाल स्वयं को न्यायिक शक्ति नहीं मान सकते थे और इस निष्कर्ष पर पहुंचे कि 34 विधायकों को विचार से बाहर करना होगा क्योंकि वे दसवीं अनुसूची के तहत अयोग्य हो गए थे। उन्होंने कहा कि राज्यपाल को उन्हें शिवसेना का हिस्सा मानना होगा चाहे उनका आंतरिक मामला कुछ भी हो।

वह यह नहीं कह सकते कि इन 34 द्वारा दिया गया पत्र सरकार के विश्वास को हिलाने का एक आधार है। उन्हें इन 34 को एक हिस्सा बनाने के रूप में लेना है। शिवसेना विधायक दल का और अगर वे शिवसेना विधायक दल का हिस्सा हैं, तो यह कहने का आधार कहां है कि सदन में विश्वास की स्थिति में बदलाव हुआ है?

(जेपी सिंह वरिष्ठ पत्रकार और कानूनी मामलों के जानकार हैं)

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