Friday, April 19, 2024

गांधीवादियों के अजमेर घोषणा पत्र में करो या मरो का ऐलान 

जिस विचारधारा का राष्ट्रीय आंदोलन और संविधान में विश्वास नहीं है उसे सत्ता में रहने का हक़ नहीं है। पिछले दिनों 25-26 फरवरी को अजमेर में हुए सम्मेलन में गांधीवादियों ने मौजूदा सरकार के ख़िलाफ़ जैसे तेवर दिखाए वैसे तेवर इससे पहले कभी देखने को नहीं मिले थे।

सम्मेलन में पारित अजमेर घोषणा पत्र ने तो गांधीजनों से एकदम करो या मरो के तर्ज़ पर सरकार से सीधी लड़ाई लड़ने के लिए सड़क पर उतरने का आह्वान कर दिया है। अजमेर में देशभर के 200 से अधिक वरिष्ठ और युवा गांधीवादियों ने मौजूदा सरकार के हर एजेंडे को बेनकाब करते हुए इस देश और आने वाली पीढ़ियों के लिए बेहद ख़तरनाक बताया है।

उन्होंने देश की सामाजिक, आर्थिक और राजनैतिक दशा को संवैधानिक स्तर पर लाने के लिए गांधी के विचार के आधार पर जो घोषणा पत्र का प्रस्ताव पारित किया है, उसे ‘अजमेर घोषणा पत्र’ का नाम दिया है।

गांधीवादियों का एक सामूहिक विचार यह रहा कि भविष्य में किनको सत्ता में आना चाहिए इससे ज़्यादा ज़रूरी यह है किसको सत्ता में नहीं आना चाहिए। जिस विचारधारा का राष्ट्रीय आंदोलन और संविधान में विश्वास नहीं है उन्हें सत्ता में रहने का हक़ नहीं है।

इसलिए अजमेर घोषणा पत्र में गांधीवादियों ने करो या मरो आवाहन किया है। देश की मौजूदा स्थिति का विश्लेषण करते हुए यह कहा गया कि देश की साम्प्रदायिकता की स्थिति देश के लिए आत्मघाती है।

साम्प्रदायिकता का माहौल एक विशेष विचार की राजनैतिक विचारधारा को बढ़ाने के लिए योजनापूर्वक बनाया गया है ताकि वोटों का ध्रुवीकरण करके राजनैतिक लाभ मिलता रहे। यह एक देश की संवैधानिक व्यवस्था के लिए आत्मघाती है, और देश को स्वतंत्रता आंदोलन की भावना के और संविधान के विपरीत ले जाने का घातक प्रयास है।

घोषणा पत्र में साम्प्रदायिकता के माहौल को देश के लिए आत्मघाती कहा गया है। यह वही विचारधारा है जिसने देश का विभाजन कराया और महात्मा गांधी की हत्या कराई। अब इसी से देश के सामूहिक आत्मबल को तोड़ा जा रहा है।

देश को आर्थिक, सामाजिक, राजनैतिक, शैक्षिक और सांस्कृतिक दृष्टि से कमजोर किया जा रहा है, और इसके लिए असहमति और विपक्षी विचारों को दबाया और कुचला जा रहा है। ताकि देश में एक विचारधारा का वर्चस्व का प्रचार और प्रसार किया जा सके।

जिस विचारधारा का देश के राष्ट्रीय स्वतंत्रता आंदोलन के इतिहास, देश के राष्ट्रीय गीत देश के तिरंगे झंडे, देश के संविधान और देश के बहुसंस्कृति पर विश्वास नहीं है उन्हें सत्ता पर रहने का भी हक़ नहीं है।

एक विशेष पूंजीपति को सत्ता का साथ मिलने के बाद हालिया दिनों में अर्थव्यवस्था के नकारात्मक रुझान पर यह कहा गया है कि देश की पूंजी और संसाधन कुछ पूंजीपतियों के साथ में केन्द्रित करके देश को गहरे आर्थिक संकट में डाल दिया गया है। जिसका निदान ग्रामस्वराज्य की अवधारणा पर और मिश्रित अर्थव्यवस्था को बढ़ाकर किया जा सकता है।

सार्वजनिक सम्पत्तियों का निजीकरण करके और उन्हें किन्हीं ख़ास पूंजीपतियों को सौंपकर देश को खोखला किया जा रहा है। पूंजी की एकाधिकारवादी व्यवस्था से बेरोजगारी और असमानता बढ़ रही है। देश के मौजूदा नेतृत्व पर प्रहार करते हुए यह कहा गया है कि प्रधानमंत्री का सबका साथ सबका विकास देश में कहीं नज़र ही नहीं आ रहा है।

अजमेर घोषणा पत्र में गांधी जी को बार बार कोट करते हुए कहा गया कि देश की आजादी का मतलब सत्ता पर बैठे कुछ मुट्ठी भर लोगों की मनमर्जी नहीं होती, संविधान और लोकतंत्र के आधार पर सारी शक्ति आमजन में निहित है।

इसलिए सत्ता की ज्यादतियों का प्रतिकार भी जनता की तरफ से किया जाएगा और गांधीजन इसके लिए पूरे देश में जनता के साथ संवाद और सम्पर्क करेंगे। गांधीवादी देश की बिगड़ती दशा को एक चुनौती और मोर्चे के रूप में देख रहे हैं इसलिए हर गांधीवादी सत्याग्रही और सैनिक है। देश में जहां भी चुनाव होंगे गांधीजन देश की राजनीति को दिशा देने के लिए एकजुट होकर कार्य करेंगे। 

अजमेर घोषणा पत्र में यह साफ साफ कहा गया है कि मौजूदा दौर में सत्ता में कौन रहे से यह ज्यादा ज़रूरी हो गया है कि सत्ता में कौन नहीं रहे। इसलिए देश में साम्प्रदायिक ताकतों और उनके गठबंधन को हटाया और हराया जाना बहुत ज़रूरी है।

गांधीजन देशभर में गांधीवादी तरीके से यह कार्य करेंगे। घोषणा पत्र में आने वाली सत्ता और उनके राजनैतिक नेतृत्व को भी चेतावनी दी गई है कि जो मौजूदा सत्ता का विकल्प बनना चाहते हैं।

सम्मेलन को गांधी स्मारक निधि के अध्यक्ष रामचंद्र राही ने संबोधित करते हुए कहा कि इस समय देश की एकता खतरे में है जिसके लिए गांधीजनों को गांधीवादी तरीके से प्रतिकार करना चाहिए, उन्होंने कहा कि वो गुलाम भारत में पैदा हुए हैं लेकिन मौजूदा दौर की गुलामी में मरना पसंद नहीं करेंगे।

अजमेर घोषणा पत्र का प्रारूप प्रस्तुत करते हुए गांधी शान्ति प्रतिष्ठान के अध्यक्ष कुमार प्रशांत ने मौजूदा की राजनैतिक आर्थिक और सामाजिक स्थिति का विश्लेषण करते हुए कहा कि वर्तमान सत्ता की फासिस्ट नीतियों से देश में संकट गहराता जा रहा है।

सवाल केवल साम्प्रदायिकता का नहीं बल्कि संवैधानिक और बहुसंस्कृति के मूल्यों की गिरावट का है। इस स्थिति का मुकाबला गांधी विचार से ही किया जा सकता है। हर समस्या  का समाधान गांधी विचारों में मौजूद है।

उन्होंने राजस्थान सरकार द्वारा राज्य में शांति और अहिंसा विभाग बनाकर उसके माध्यम से प्रदेश के 50 हजार युवाओं को गांधीवादी शान्ति स्वयं सेवक बनाने  के प्रयास की सराहना की और कहा कि इससे समाज में गांधीवादी मूल्यों के आधार पर अन्याय का प्रतिकार करने में मदद मिलेगी।

सेवाग्राम आश्रम प्रतिष्ठान की अध्यक्षता श्रीमती आशा बोथरा ने गांधी जनों से गांधी मूल्यों के आधार पर सामाजिक एकता और सद्भावना के लिए काम करने का आवाहन किया। उन्होंने कहा कि गांधी के विचारों में गाय आर्थिकी की रीढ़ है लेकिन आज गाय की आड़ लेकर नफ़रत फैलाई जा रही है। अख़्लाक़ और पहलू खान जैसे काण्ड हो रहे हैं।

सम्मेलन में सर्वोदय मण्डल उड़ीसा के डा० विश्वाजीत ने देश की बिगड़ती हुई आर्थिक स्थिति पूंजी के एकाधिकार और कार्पोरेट की लूट से गांधीवादी तरीके से लड़ने की बात कही। गांधीवादी लेखक पत्रकार अशोक दीवान ने  मौजूदा राजनीतिक नेतृत्व की तुलना वकासुर राक्षस से करते हुए कहा कि अब यह राक्षस पूरे समाज का अनिष्ट कर रहा है।

उत्तराखंड सर्वोदय मण्डल के अध्यक्ष इस्लाम हुसैन ने वर्तमान समय की गम्भीर साम्प्रदायिक स्थिति से निपटने के लिए इसी एजेंडे पर कार्य करने की आवश्यकता पर जोर दिया उन्होंने कहा कि आज सोच समझ कर देश के अल्पसंख्यक वर्ग को समाज से अलग-थलग करके घृणित वोट की राजनीति की जा रही है।

सम्मेलन के समापन भाषण में राजस्थान विधानसभा के अध्यक्ष सीपी जोशी ने देश की अर्थव्यवस्था पर एक महत्वपूर्ण टिप्पणी करते हुए कहा कि आज़ादी के बाद के नेहरूजी की विकासवादी सोच के कारण भारत का आधारभूत आर्थिक ढांचा विश्वस्तरीय बन सका जिसके आधार पर हमारी जीडीपी बढ़ रही है। इस आधारभूत ढांचे को अब तहस-नहस किया जा रहा है।

सम्मेलन में देश की शीर्ष गांधीवादी संस्थाओं, गांधी शान्ति प्रतिष्ठान, सर्व सेवा संघ, सेवाग्राम आश्रम,  गांधी स्मारक निधि, सर्वोदय समग्र संस्थान और इनसे सम्बद्ध संस्थानों से जुड़े गांधीवादियों ने भाग लिया। 

आमतौर पर यह माना जाता रहा कि आज़ादी के बाद गांधीवादी सत्ता से सीधे टकराव नहीं लेते हैं, जेपी की कथित सम्पूर्ण क्रान्ति को विशुद्ध गांधीवादियों की पहल नहीं माना जाता है उसमें समाजवादियों से लेकर दक्षिणपंथियों की भी मिली भगत थी जिसका ख़ामियाजा आज तक देश भुगत रहा है। यह बात जेपी से अधिक विनोबा के नज़दीक रहे गांधीवादी समझते और कहते आए हैं।

(इस्लाम हुसैन पत्रकार हैं और नैनीताल में रहते हैं।)

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