कुम्भ मेले में बच्ची का दान: पितृसत्ता की जड़ें और सामाजिक व्यवस्था पर सवाल

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महाकुम्भ-2025 में एक 13 वर्षीय बच्ची को कथित तौर पर ‘दान’ करने की घटना ने न केवल समाज की नैतिकता और कानून को झकझोरा है, बल्कि यह धर्म, परंपरा और पितृसत्ता के नाम पर कमजोर वर्गों और विशेष रूप से महिलाओं के शोषण की पुरानी परंपरा को भी उजागर किया है। यह घटना सिर्फ एक अपराध नहीं, बल्कि हमारे समाज में गहरी जड़ें जमाए सामंती सोच और स्त्री-विरोधी मानसिकता की तस्वीर पेश करती है।

धर्म और पितृसत्ता का गठजोड़

भारतीय समाज में धर्म और परंपरा का उपयोग लंबे समय से महिलाओं और कमजोर वर्गों को नियंत्रित करने के लिए किया जाता रहा है। बच्ची का ‘दान’ करना कोई धार्मिक परंपरा नहीं, बल्कि पितृसत्ता और सामंती सोच की अभिव्यक्ति है। यह घटना स्त्रियों की स्वतंत्रता, शिक्षा और अधिकारों को हाशिए पर धकेलने का क्रूर उदाहरण है। डॉ. भीमराव अंबेडकर ने कहा था कि भारतीय समाज में धर्म ने स्त्रियों और दलितों को हमेशा ही दासत्व में रखा। उनके अनुसार, “धर्म का उपयोग समाज में भेदभाव और शोषण को वैध ठहराने के लिए किया गया।”

13 साल की बच्ची का ‘दान’ यही दिखाता है कि परंपराएं कैसे कमजोरों, विशेष रूप से महिलाओं पर अधिकार स्थापित करने का औजार बन जाती हैं। यह बच्ची की शिक्षा, व्यक्तिगत स्वतंत्रता और स्वाभिमान को कुचलने का प्रयास है। यह घटना पितृसत्तात्मक सोच के उन आयामों को उजागर करती है, जिसमें महिलाएं केवल पुरुषों की संपत्ति मानी जाती हैं, और उनका जीवन उनके निर्णयों पर आधारित होता है।

महिलाओं और बच्चियों का शोषण: एक निरंतर परंपरा

यह घटना महज अपवाद नहीं, बल्कि महिलाओं और बच्चियों पर हो रहे शोषण की लंबी श्रृंखला का हिस्सा है। बच्चियों को ‘दान’ करने जैसी प्रथाएं उनकी पहचान, स्वतंत्रता और शिक्षा के अधिकार को छीन लेती हैं। इस घटना ने समाज की उन कमजोरियों को उजागर किया है, जहां बच्चियों को शिक्षित और सशक्त बनाने के बजाय उनका जीवन पितृसत्तात्मक परंपराओं की भेंट चढ़ा दिया जाता है।

धर्म और अधिकार का संघर्ष

धर्म का उपयोग अक्सर महिलाओं की इच्छाओं और अधिकारों को नियंत्रित करने के लिए किया गया है। अंबेडकर ने कहा था, “महिलाओं की गुलामी का आधार धर्म है। जब तक धर्म को पुनः संगठित नहीं किया जाएगा, महिलाएं कभी स्वतंत्र नहीं हो सकतीं।”

यह घटना बाल अधिकार संरक्षण अधिनियम, 2015 और मानव तस्करी विरोधी कानूनों का खुला उल्लंघन है। किसी भी बच्चे को उसकी इच्छा के बिना किसी धार्मिक या सामाजिक परंपरा के नाम पर ‘दान’ करना कानूनी और नैतिक अपराध है।
बच्ची का ‘दान’ मानव तस्करी की परिभाषा के अंतर्गत आता है, और यह महिलाओं और बच्चों की सुरक्षा के लिए बनाए गए कानून का भी अपमान है।

धार्मिक आयोजनों में ऐसे अपराधों पर कानून और प्रशासन की चुप्पी यह दर्शाती है कि महिलाओं और बच्चियों के अधिकार उनकी प्राथमिकता नहीं हैं।

पितृसत्ता का निरंतर वर्चस्व

इस घटना से यह स्पष्ट होता है कि पितृसत्ता और सामंती सोच आज भी समाज में गहरी जड़ें जमाए हुए है। बच्ची को ‘दान’ करना उसी मानसिकता का प्रतिबिंब है, जहां महिलाओं को स्वतंत्र व्यक्तित्व नहीं, बल्कि पुरुषों के अधिकार क्षेत्र की वस्तु माना जाता है।

समाज की यह जिम्मेदारी है कि वह धर्म और परंपरा के नाम पर होने वाले शोषण के खिलाफ आवाज उठाए। हमें अंबेडकर के इस विचार को आत्मसात करना होगा कि “धर्म का उद्देश्य मानवता को ऊंचा उठाना है, न कि उसे गुलाम बनाना।”

शिक्षा और सशक्तिकरण की जरूरत

बच्चियों और महिलाओं को शिक्षित और सशक्त बनाना हमारी प्राथमिक जिम्मेदारी है। उन्हें ऐसे सामाजिक और धार्मिक पाखंडों से बचाना और उनके अधिकारों के लिए खड़ा होना ही सच्चा धर्म है।

धर्म और परंपरा पर सवाल

समाज को धर्म और परंपरा की उन प्रथाओं पर सवाल उठाने की जरूरत है, जो महिलाओं और कमजोर वर्गों के अधिकारों का हनन करती हैं। धर्म और परंपरा का उपयोग शोषण के लिए नहीं, बल्कि मानवता और समानता के लिए होना चाहिए।

कुम्भ मेले में बच्ची का ‘दान’ कोई अकेली घटना नहीं, बल्कि यह हमारे समाज में पितृसत्ता और धर्म के नाम पर होने वाले शोषण का प्रतीक है। बच्चियां किसी की संपत्ति नहीं हैं। उन्हें स्वतंत्रता, शिक्षा और सशक्तिकरण का अधिकार है।

धर्म का उद्देश्य मानवता का कल्याण होना चाहिए, न कि स्त्रियों और कमजोर वर्गों का शोषण। सरकार, समाज और हर नागरिक को यह सुनिश्चित करना चाहिए कि इस घटना के दोषियों को सजा मिले और इस बच्ची को न्याय मिले।

धर्म और परंपरा के नाम पर स्त्रियों और कमजोर वर्गों का शोषण अब और स्वीकार्य नहीं हो सकता। बच्चियों को ‘दान’ की वस्तु नहीं, बल्कि एक बेहतर समाज की निर्माणकर्ता माना जाना चाहिए।

(राजेश सारथी शोधार्थी व स्वतंत्र पत्रकार हैं)

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