संदेशखाली हिंसा की तुलना मणिपुर से न करें: सुप्रीम कोर्ट

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सुप्रीम कोर्ट ने पश्चिम बंगाल के संदेशखाली में हिंसा की जांच केंद्रीय जांच ब्यूरो (सीबीआई) या विशेष जांच दल (एसआईटी) से कराने की मांग करने वाली जनहित याचिका पर विचार करने से सोमवार को इनकार कर दिया।

न्यायमूर्ति बीवी नागरत्ना और न्यायमूर्ति उज्जल भुइयां की पीठ ने याचिकाकर्ता अलख आलोक श्रीवास्तव से कहा कि वह संदेशखाली में हुई हिंसा की तुलना मणिपुर में हुए दंगों से न करें। याचिकाकर्ता ने मणिपुर में महिलाओं के खिलाफ यौन हिंसा पर सुप्रीम कोर्ट की चिंता का हवाला दिया था। न्यायमूर्ति नागरत्ना ने कहा, “कृपया मणिपुर में जो हुआ उसकी तुलना यहां जो हुआ उससे न करें।”

अदालत ने कहा कि याचिकाकर्ता राहत के लिए कलकत्ता उच्च न्यायालय का दरवाजा खटखटा सकता है। इसके बाद श्रीवास्तव ने याचिका वापस लेने का फैसला किया और अदालत ने उन्हें उच्च न्यायालय जाने की स्वतंत्रता प्रदान की। पीठ ने अपने आदेश में कहा, ”यह याचिका खारिज की जाती है क्योंकि इसे वापस लिया गया है और उच्च न्यायालय जाने की स्वतंत्रता सुरक्षित है।

सुनवाई के दौरान श्रीवास्तव ने इस बात पर जोर दिया कि याचिका में प्रार्थनाओं को देखते हुए, कलकत्ता उच्च न्यायालय मामले को नहीं देख सकता। उन्होंने जोर देकर कहा कि उचित जांच के लिए, अन्य राज्यों के अधिकारियों को शामिल करना आवश्यक होगा।

न्यायमूर्ति नागरत्ना ने हालांकि असहमति जताई और रेखांकित किया कि उच्च न्यायालयों के पास अन्य राज्यों के अधिकारियों के साथ एसआईटी गठित करने की शक्ति भी है। जस्टिस भुइयां ने भी इस बात पर प्रकाश डाला कि कलकत्ता उच्च न्यायालय पहले ही इस मामले का संज्ञान ले चुका है।

श्रीवास्तव ने तब पश्चिम बंगाल में अपने कर्मियों पर कथित हमलों के कारण प्रवर्तन निदेशालय (ईडी) के सामने आने वाली कठिनाइयों का हवाला दिया।

उन्होंने कहा, यहां टीएमसी नेता शेख शाहजहां हैं। ईडी उनकी जांच कर रही है और जब ईडी वहां गई तो उन सभी पर हमला किया गया। यहां तक कि ईडी के लिए भी वहां ट्रायल करना मुश्किल है।”

उन्होंने आगे कहा कि संदेशखाली में महिलाओं ने गैंगरेप का आरोप लगाया है और उनका भी उतना ही उत्पीड़न किया गया है।

गरीब मजदूर से विवाद को 22 साल तक खींचने पर  राजस्थान पर ₹10 लाख का जुर्माना

सुप्रीम कोर्ट ने राजस्थान सरकार द्वारा 2001 में एक गरीब, अंशकालिक कर्मचारी के पक्ष में पारित श्रम अदालत के फैसले को लागू करने से बार-बार इनकार करने पर आपत्ति जताई। न्यायमूर्ति विक्रम नाथ और न्यायमूर्ति सतीश चंद्र शर्मा की पीठ ने कहा कि इसके परिणामस्वरूप मजदूर को करीब 22 साल तक इस मामले में मुकदमा लड़ना पड़ा।

पीठ ने अफसोस जताया “यह दुर्भाग्यपूर्ण है कि राजस्थान राज्य एक गरीब वादी,अंशकालिक मजदूर को परेशान कर रहा है, जिसे वर्ष 2001 में श्रम न्यायालय द्वारा लाभ दिया गया था, यानी पिछले 22 वर्षों से वह मुकद्मा कर रहा है। यह पूरी तरह से एक तुच्छ याचिका है।

इस प्रकार, शीर्ष अदालत ने मामले में राजस्थान उच्च न्यायालय के 8 दिसंबर के आदेश के खिलाफ राज्य की अपील को खारिज कर दिया, जबकि राजस्थान सरकार को लागत के रूप में 10 लाख रुपये का भुगतान करने का आदेश दिया।

एक श्रम विवाद के बाद, मजदूर को 2001 में एक श्रम अदालत द्वारा सेवा में वापस बहाल कर दिया गया था। श्रम अदालत के फैसले को चुनौती देने वाली राज्य की याचिका को बाद में उच्च न्यायालय ने खारिज कर दिया था। हालांकि, मजदूर को श्रम अदालत के फैसले को लागू करने की मांग करते हुए अदालतों में जाना पड़ा।

उच्च न्यायालय की कई पीठों ने राज्य द्वारा मजदूर को किए जाने वाले भुगतान को बरकरार रखा, जिससे राजस्थान सरकार द्वारा शीर्ष अदालत के समक्ष तत्काल अपील की गई।

उक्त अपील को अब सुप्रीम कोर्ट ने खारिज कर दिया है, जिसने राज्य को चार सप्ताह के भीतर मजदूर को लागत के रूप में 10 लाख रुपये का भुगतान करने का आदेश दिया है।

हालांकि, न्यायालय ने कलकत्ता उच्च न्यायालय को इस मामले को संभालने की आवश्यकता पर जोर दिया ताकि विभिन्न अदालतों के समक्ष कई कार्यवाही से बचा जा सके। श्रीवास्तव ने तब कलकत्ता उच्च न्यायालय का दरवाजा खटखटाने की स्वतंत्रता के साथ याचिका वापस ले ली।

शरद पवार गुट को अगले आदेश तक राष्ट्रवादी कांग्रेस पार्टी – शरद चंद्र पवारनाम का उपयोग करने की अनुमति

सुप्रीम कोर्ट ने सोमवार (19 फरवरी) को अजित पवार के गुट को प्रामाणिक राष्ट्रवादी कांग्रेस पार्टी (NCP) के रूप में मान्यता देने के भारत के चुनाव आयोग (ECI) के फैसले को चुनौती देने वाली शरद पवार की याचिका पर नोटिस जारी किया। पूर्व में अस्थायी राहत देते हुए अदालत ने यह भी निर्देश दिया कि अनुभवी राजनेता के नेतृत्व वाले गुट के लिए ‘राष्ट्रवादी कांग्रेस पार्टी-शरद चंद्र पवार’ का नाम देने का आयोग का 7 फरवरी का आदेश, अगले आदेश तक जारी रहेगा। इसके अतिरिक्त, इसने उन्हें पार्टी चिन्ह के आवंटन के लिए ECI से संपर्क करने की अनुमति दी और चुनाव आयोग को आवेदन के एक सप्ताह के भीतर इसे आवंटित करने का निर्देश दिया।

जस्टिस सूर्यकांत और जस्टिस केवी विश्वनाथन की खंडपीठ शरद पवार द्वारा दायर विशेष अनुमति याचिका पर सुनवाई कर रही थी। पिछले शुक्रवार को इस याचिका का उल्लेख सीनियर एडवोकेट अभिषेक मनु सिंघवी ने चीफ जस्टिस ऑफ इंडिया (सीजेआई) डी.वाई. चंद्रचूड़ के समक्ष तत्काल सूचीबद्ध करने के लिए किया था, जिसमें आगामी महाराष्ट्र विधानसभा सत्र के दौरान शरद पवार को अजीत पवार से व्हिप का सामना करने के आसन्न जोखिम पर जोर दिया गया था। सिंघवी ने तात्कालिकता को रेखांकित करते हुए कहा कि शरद पवार के गुट को कोई भी पार्टी चिन्ह आवंटित नहीं किया गया, जिससे वे अजीत पवार के निर्देशों के प्रति असुरक्षित हो गए हैं।

नारी शक्ति की बात करते हैं, इसे करके भी दिखाए केंद्र

भारतीय सेना में महिला अधिकारियों के कमीशन ऑफिसर के तौर पर नियुक्ति की कानूनी लड़ाई में कोस्ट गार्ड की भी एंट्री हो गई है। सुप्रीम कोर्ट ने इस मामले पर सोमवार को सुनवाई करते हुए केंद्र सरकार के रवैये पर सवाल उठाए। अदालत ने पूछा- “कोस्ट गार्ड को लेकर आपका इतना उदासीन रवैया क्यों है? आप कोस्ट गार्ड में महिलाओं को क्यों नहीं चाहते?” चीफ जस्टिस ऑफ इंडिया डी. वाई. चंद्रचूड़ ने कहा, “अगर महिलाएं सीमाओं की रक्षा कर सकती हैं, तो वे तटों की भी रक्षा कर सकती हैं। आप ‘नारी शक्ति’ की बात करते हैं। अब इसे यहां दिखाएं।”

याचिकाकर्ता प्रियंका त्यागी ने खुद को कोस्ट गार्ड के ऑल विमेन क्रू का सदस्य बताया है, जो तटरक्षक बेड़े पर डोमियर विमानों की देखभाल के लिए तैनात किया गया था। यह याचिका AOR सिद्धांत शर्मा के हवाले से दाखिल की गई है। याचिकाकर्ता ने अपनी रिट में 10 वर्षों की शॉर्ट सर्विस नियुक्ति को आधार बनाते हुए एनी नागराज और बबिता पूनिया के मामले में सुप्रीम कोर्ट के फैसले का हवाला दिया है और न्याय की गुहार लगाई है। 

सुप्रीम कोर्ट ने कहा, “आप सभी ने अभी तक हमारा बबीता पुनिया जजमेंट नहीं पढ़ा है। आप इतने पितृसत्तात्मक क्यों हैं कि आप महिलाओं को कोस्ट गार्ड क्षेत्र में नहीं देखना चाहते? आपके पास नौसेना में महिलाएं हैं, तो कोस्ट गार्ड में ऐसा क्या खास है, जो महिलाएं नहीं हो सकतीं? हम पूरा कैनवास खोल देंगे। वह समय गया जब हम कहते थे कि महिलाएं कोस्ट गार्ड में नहीं हो सकतीं। महिलाएं सीमाओं की रक्षा कर सकती हैं, तो महिलाएं तटों की भी रक्षा कर सकती हैं।” 

इस मामले में वरिष्ठ वकील अर्चना पाठक दवे ने बहस की। चीफ जस्टिस डी. वाई. चंद्रचूड़ की बेंच ने इस मामले में केंद्र सरकार से जवाब मांगा है। ये  याचिका दिल्ली हाईकोर्ट के आदेश को चुनौती देते हुए दाखिल की गई है, जिसमें याचिकाकर्ता को राहत नहीं दी गई थी।

मुस्लिम तलाकशुदा महिला गुजारा भत्ते की हकदार है या नहीं?

मुस्लिम तलाकशुदा महिला भी दंड प्रक्रिया संहिता की धारा 125 के तहत पति से गुजारा भत्ते की हकदार है या नहीं? इस मामले में दंड प्रक्रिया संहिता लागू होगी या पर्सनल लॉ के तहत मामले का निपटारा होगा? सुप्रीम कोर्ट ने इस मामले पर सोमवार को सुनवाई के बाद फैसला सुरक्षित रख लिया है। 

दरअसल, अपनी तलाकशुदा पत्नी को अंतरिम गुजारा भत्ता देने के कोर्ट निर्देश को चुनौती देते हुए एक मुस्लिम व्यक्ति ने सुप्रीम कोर्ट का दरवाजा खटखटाया है। 9 फरवरी को पहली सुनवाई के दौरान सुप्रीम कोर्ट इस कानूनी सवाल पर विचार करने के लिए तैयार हो गया है कि क्या एक मुस्लिम महिला CrPC की धारा 125 के तहत याचिका बरकरार रखने की हकदार है? 

जस्टिस बीवी नागरत्ना और जस्टिस ऑगस्टीन जॉर्ज मसीह की बेंच ने फैमिली कोर्ट के आदेश को चुनौती देने वाले मामले की सुनवाई की। इसमें एक मुस्लिम महिला ने CrPC की धारा 125 के तहत याचिका दाखिल कर अपने पति से गुजारा भत्ते की मांग की। फैमिली कोर्ट ने आदेश दिया कि पति 20,000 रुपये प्रति माह अंतरिम गुजारा भत्ता दे। फैमिली कोर्ट के इस आदेश को तेलंगाना हाईकोर्ट में चुनौती दी गई। याचिका में कहा गया कि पक्षकारों ने 2017 में मुस्लिम पर्सनल लॉ के अनुसार तलाक ले लिया था। इससे संबंधित तलाक सर्टिफिकेट भी है, लेकिन फैमिली कोर्ट ने उस पर विचार नहीं किया।

हालांकि, हाईकोर्ट ने अंतरिम भरण-पोषण के निर्देश को रद्द नहीं किया। इसमें शामिल तथ्यों और कानून के कई सवालों को ध्यान में रखते हुए, याचिका की तारीख से भुगतान की जाने वाली राशि को 20,000 रुपये से घटाकर 10,000 रुपये प्रति माह कर दिया गया। अदालत ने महिला को बकाया राशि का 50 प्रतिशत 24 जनवरी, 2024 तक और शेष 13 मार्च, 2024 तक भुगतान करने का आदेश दिया गया था। इसके अलावा, फैमिली कोर्ट को 6 महीने के भीतर मुख्य मामले का निपटारा करने का प्रयास करने के लिए कहा गया।

याचिकाकर्ता पति ने सुप्रीम कोर्ट का दरवाजा खटखटाया और दलील दी कि एक तलाकशुदा मुस्लिम महिला CrPC की धारा 125 के तहत याचिका दायर करने की हकदार नहीं है। उसे मुस्लिम महिला (तलाक पर अधिकारों का संरक्षण) अधिनियम, 1986 अधिनियम के प्रावधानों के तहत आगे बढ़ना होगा। जहां तक ​​भरण-पोषण में राहत की बात है तो 1986 का कानून मुस्लिम महिलाओं के लिए अधिक फायदेमंद है।

इन तथ्यों के आधार पर याचिकाकर्ता का दावा है कि उसने अपनी तलाकशुदा पत्नी को इद्दत यानी तलाक के बाद एकांतवास की तय अवधि यानी 90 से 130 दिन के दौरान भरण-पोषण के रूप में 15,000 रुपये का भुगतान किया था। उसने CrPC की धारा 125 के तहत फैमिली कोर्ट में जाने की अपनी तलाकशुदा पत्नी की कार्रवाई को भी इस आधार पर चुनौती दी कि दोनों ने मुस्लिम महिला विवाह विच्छेद पर अधिकार अधिनियम 1986 की धारा पांच के मुकाबले CrPC प्रावधानों को प्राथमिकता देते हुए कोई हलफनामा पेश नहीं किया था।

ये दलीलें सुनने के बाद सुप्रीम कोर्ट ने वरिष्ठ वकील गौरव अग्रवाल को अमिक्स क्यूरी यानी अदालत की मदद के लिए न्याय मित्र नियुक्त किया।

ये मुद्दा 1985 में सुप्रीम कोर्ट में शाह बानो बेगम मामले से जुड़ा है। तब सुप्रीम कोर्ट ने मोहम्मद अहमद खान बनाम शाह बानो बेगम मामले में ऐतिहासिक फैसला सुनाया था। सुप्रीम कोर्ट की संविधान पीठ ने उस समय  फैसले में कहा था कि CrPC की धारा 125 धर्मनिरपेक्ष प्रावधान है। ये मुस्लिम महिलाओं पर भी लागू होता है।

(जेपी सिंह वरिष्ठ पत्रकार और कानूनी मामलों के जानकार हैं।)

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