केरोसिन के बगैर अंधेरे में बीतती दलितों-बहुजनों की सांझ

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पिछले साल कोरोना महामारी के आगमन के साथ ही उत्तर प्रदेश की सरकारी राशन की दुकानों (कोटा) में मिलने वाले मिट्टी के तेल (केरोसिन) की आपूर्ति और वितरण बंद कर दिया गया। जिसके चलते मेहनतकश गरीब दलित बहुजन वर्ग के लोगों को बेहद कठिनाइयों का सामना करना पड़ रहा है।

प्रतापगढ़ जिले के एक गांव के कोटेदार भोला नाथ बताते हैं कि कोटा में मिट्टी का तेल बंद होने से गरीब गुरबे, छोटजतिये (कथित) लोगों को जीवन बिताना मुश्किल हो रहा है। राशन लेने आने वाला लगभग हर शख्स एक बार ज़रूर पूछता है- “मट्टी का तेलवा ना मिली का पंडित जी।”  

आजमगढ़ जिले के चैतपुर गांव के कोटेदार राम मूरत यादव बताते हैं कि डेढ़ साल से कोटे में मिट्टी का तेल आना बंद है। पहले धीरे धीरे कम होता गया मिट्टी का तेल आना। एक समय तो सिर्फ़ लाल कार्ड धारकों को बाँटने भर का ही 40-50  लीटर तेल आता था। लेकिन कोरोना महामारी आने के बाद तो केरोसिन आना बंद ही हो गया। राम मूरत यादव आगे बताते हैं कि लोग बाग राशन लेने आते हैं तो यह ज़रूर पूछते हैं कि मिट्टी का तेल कब आयेगा, आयेगा भी कि अब कभी नहीं आयेगा?

किस जाति के लोग मिट्टी के तेल के बारे में ज़्यादा पूछते हैं। इस सवाल के जवाब में प्रयागराज जिले के मनेथू और पाली गांव के कोटेदार लालजी जायसवाल बताते हैं कि चमार, पासी, खटिक, गड़ेरिया, मुसहर, कुर्मी कोइरी, केवट, बिंद, भुँजवा जाति के लोग मिट्टी के तेल के बारे में सबसे ज़्यादा पूछते हैं। ये लोग जितनी बार आते हैं बस मिट्टी का तेल की रट लगाते आते हैं। लोगों को अब भी उम्मीद है कि सरकार मिट्टी के तेल का कोटे के माध्यम से पुनर्वितरण करेगी।   

डीजल से ढिबरी जलाते हैं लोग

कोटे के बाहर बाज़ार में मिट्टी का तेल 80-90 रुपये प्रति लीटर बिक रहा है। कमोवेश डीजल भी इसी दाम पर बिक रहा है। प्रतापगढ़ में एक पेट्रोल टंकी पर काम करने वाले मोहित बताते हैं कि आये दिन आस-पास के गांवों के लोग छोटी छोटी बोतलों में 20 रुपेय, 30 रुपये, 50 रुपये का डीजल लेकर जाते हैं। पूछने पर बताते हैं कि मिट्टी का तेल मिलता नहीं तो शाम को ढिबरी, दीया जलाने के लिये डीजल ख़रीद कर ले जाते हैं।

उमा देवी का परिवार।

मोहित कहते हैं सरकार को इन ग़रीबों के घर के उजाले के बारे में भी सोचना चाहिये। अक्सर गांवों में शाम को बिजली नहीं रहती। जबकि शाम 6 बजे से रात 10 बजे तक बच्चों की पढ़ाई से लेकर खाना बनाने खाने, गोरू बछेरू अगोरने तक सारा काम इसी समय में होता है।

कौन से लोग डीजल लेने आते हैं, यह पूछने पर मोहित बताते हैं कि ये दिहाड़ी करने वाले दलित बहुजन बस्तियों के लोग होते हैं। 

अंधेरा होने से पहले और घर के बाहर पकाते हैं खाना

गांव में दलित बहुजन बस्तियों के लोग शाम का खाना दिन ढले ही बना लेते हैं। चूंकि दिन में भी घर में अंधेरा होता है तो उसका निराकरण लोगों ने घर के बाहर मिट्टी का चूल्हा बनाकर निकाला है। गांव की महिलायें और बच्चियां पांच बजते अदहन चढ़ा देती हैं। और दिन डूबने के पहले-पहले रोटियां सेंक कर रख लेती हैं। चूंकि रोपाई का समय चल रहा है और दलित बहुजन महिलायें खेतों में मजदूरी करने चली जाती हैं तो ऐसे में शाम का खाना बनाने का जिम्मा बूढ़ी सास या 8-10 बररस की छोटी बच्चियों पर होता है।

कृषि मजदूर और गृहिणी उर्मिला देवी बताती हैं कि बिजली तो पहले भी शाम को नहीं आती थी लेकिन तब कोटा से मिट्टी का तेल मिलता था तो ढिबरी का सहारा होता था। अब सरकार मिट्टी का तेल नहीं देती। ऐसे में खाना किसी भी सूरत में दिन ढलने के पहले बना लेना पड़ता है। बाद में मोबाइल की रोशनी, टॉर्च की रोशनी के सहारे खा लेते हैं।

गरीब बच्चों को पढ़ाई में परेशानी होती है

दलित बहुजन समुदाय के बच्चों के लिये शिक्षा हासिल करना वैसे ही मुश्किल है। बढ़ती महंगाई और शिक्षा के निजीकरण ने हालात उनके प्रतिकूल बना दिये हैं। ऐसे में जो बचे खुचे अवसर हैं उनको ये सांझ का अंधेरा लील ले रहा है। राहुल पटेल प्रतापगढ़ के एक सरकारी आईटीआई स्कूल में फिटर ट्रेड की पढ़ाई कर रहे हैं। राहुल बताते हैं कि मजदूर पिता ने परिवार का पेट काटकर उन्हें पढ़ने भेजा है। वो एक सहपाठी के साथ किराये के कमरे में रहते हैं। लेकिन शाम को होने वाली बिजली कटौती ने उनके लिये मुश्किल खड़ा कर दिया है। मोमबत्ती की रोशनी में पढ़ना एक खर्चीला सौदा है। मिट्टी का तेल मिलता नहीं, नहीं तो एक ढिबरी से काम चल जाता।

फूलपुर प्रयागराज की उमा देवी बताती हैं कि बारिश का दिन है। रात में बिच्छू, गोजर, सांप जैसे जहरीले जानवर निकलते हैं। जबकि शाम को अक्सर बिजली नदारद रहती है। मनिया कृषि मजदूर हैं, उनके साथी ट्रक में कोयले की राख लोड करने का काम करते हैं। मनिया कहती हैं शाम को हम पति-पत्नी घर लौटते हैं। पहले मैं खाना बनाने में जुटती और पति एक ढिबरी लेकर बच्चों को पढ़ने के लिये बैठाते। लेकिन अब न बिजली रहती है न मिट्टी का तेल तो बच्चे पढ़ने के बजाय इधर उधर चलते फिरते रहते हैं। एक ओर जहां पढ़ाई का नुकसान होता है वहीं कहीं कोई विषैला जानवर न काट ले इसका भी डर बना रहता है।  

वैकल्पिक व्यवस्था से दूर

बिजली की वैकल्पिक व्यवस्था जैसे कि इनवर्टर या सोलर लैम्प से दलित बहुजनों की पहुंच दूर की कौड़ी है। नौकरी पेशा और आर्थिक रूप से संपन्न वर्गों के लिये ये भले ही एक आसान और सुविधाजनक विकल्प हो पर दिहाड़ी मजदूरी और निम्न आय की नौकरी तक सिमटे वर्ग के लिये इनवर्टर बैटरी लगवाना पहाड़ चढ़ने से कम नहीं। प्रयागराज में बिजली के सामानों के विक्रेता दुकानदार मदन यादव बताते हैं कि बाज़ार में एक इनवर्टर बैटरी सेट की कीमत क़रीब 18-20 हजार रुपये है। जबकि निजी कंपनियों और संविदा पर काम करने वाले मजदूरों का मासिक वेतन 10-15 हजार बमुश्किल होता है। मदन बताते हैं कि दिहाड़ी पेशा वर्ग के लिये बाज़ार में सस्ती चीनी इमरजेंसी लाइट भी एक विकल्प होता है। और कई घरों में ये दिख भी जाता है। लेकिन इनमें से अधिकतर बहुत जल्द, कई बार तो महीने भर में ही खराब हो जाते हैं। इनकी वारंटी भी नहीं होती और न ही इनकी मरम्मत हो पाती है।

एक स्नातक छात्रा बताती है कि इमरजेंसी लाइट का बैकअप बहुत कम होता है। 7-8 घंटे फुल चार्ज करने के बावजूद ये 3 घंटे नहीं जल पाते। 

सोलर लैम्प का विकल्प तो और भी महंगा है। फूलपुर, जिला प्रयागराज के जगराम पटेल बताते हैं कि चार पांच साल पहले मनरेगा से एक सोलर लैम्प मिला था हालांकि उसके लिये भी उन लोगों से 500 रुपये लिये गये थे। वो 3-4 साल बढ़िया चला था। लेकिन उसके बाद खराब हो गया।

घर के बाहर खाना बनातीं उर्मिला।

2-3 दिन बिजली ही न आये तो सारे वैकल्पिक व्यवस्था फेल हैं

बुजुर्ग लालती देवी कहती हैं भैय्या बहुत बिजली कनेक्शन हो, बहुत इमरजेंसी लाइट हो लेकिन जब बिजली 2-3 दिन आये ही न तो क्या करें। वो आगे बताती हैं कि गांव में बिजली बहुत कम आती है। आंधी बारिश के बाद तो कई कई दिन बिजली नहीं आती। ट्रांसफ़ार्मर फुंक जाये तो महीनों के लिये बिजली ग़ायब हो जाती है। चुन्नी देवी बताती हैं कि कहीं तार गिर जाता है तो कई दिन बिजली कर्मी ट्रांसफ़ार्मर से कनेक्शन काट कर चला जाता है। और फिर जब तक लोग चंदा लगाकर नहीं बनवाते वो नहीं बनता। सामान्य तौर पर भी बिजली गांवों में बहुत कम समय के लिये आती है।

एक समय सुबह शाम बिजली आती ही नहीं थी

एक समय उत्तर प्रदेश के तमाम जिलों के गांवों में आलम ये था कि शाम 5 बजे से रात 10 बजे तक बिजली आती ही नहीं थी। एक तरह से ये समय भी बिजली कटौती के समय में शामिल था। बिजली विभाग के लोग कारण बताते थे कि इन समयों में बिजली की खपत गांवों में ज़्यादा होती है, लोड बढ़ता है इसलिये। बिजली विभाग के लोग आरोप लगाते थे कि गांव के लोग हीटर पर खाना बनाते हैं इसलिये बिजली संयंत्रों पर लोड बढ़ता है जिससे फाल्ट होता है। उससे बचने के लिये ऐसा किया जाता है। दशकों तक गांव के बच्चों नें बिजली की रोशनी में नहीं पढ़ा, न ही गृहणियों ने बिजली की रोशनी में खाना बनाया।

बुजुर्ग दलित महिला पार्वती देवी बताती हैं कि पहले वो आये दिन पति से कहती थीं कि बिजली कटवा दो। शाम को दीया बत्ती के समय जब बिजली ही नहीं रहती तो क्या करना है बिजली का। तब दो बल्ब के सिवाय और कोई प्रयोजन भी नहीं था हमारे लिये बिजली का। हमारे घरों में बिजली का पंखा नहीं था तब। लेकिन अब तो मोबाइल सचर गया है। उसे चार्ज करने के लिये बिजली चाहिये। पंखा है, उसके लिये चाहिये बिजली। 

संविदा बिजलीकर्मी राकेश भारतीया कहते हैं- हालांकि योगी सरकार में शाम 5 बजे से रात 10 बजे तक बिजली कटौती की दशकों पुरानी रवायत टूटी है। इन घंटों में बिजली कटौती अब अपरिहार्य नहीं है। बावजूद इसके बिजली की हालत बहुत नहीं सुधरी है। एक दिन में बमुश्किल 10-12 घंटे ही बिजली दी जाती है गांवों में। सिंचाई के समय और विशेषकर जब गर्मियों में तापमान का पारा बहुत चढ़ जाता है तब गांवों में बिजली कटौती में इज़ाफा आम बात हो जाती है।

(जनचौक के विशेष संवाददाता सुशील मानव की रिपोर्ट।)     

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