Thursday, March 28, 2024

सोलह महीने बाद भी 17वीं लोकसभा को उपाध्यक्ष नहीं मिल सका

सत्रहवीं लोकसभा का गठन हुए 16 महीने हो चुके हैं। यानी उसका एक चौथाई कार्यकाल बीत गया है। इस बीच उसके चार सत्र भी संपन्न हो चुके हैं। चारों सत्रों के बारे में सरकार की ओर से दावा किया गया है कि इन सत्रों में लोकसभा ने रिकॉर्ड कामकाज करते हुए कई महत्वपूर्ण विधेयकों को पारित किया है। यह दावा खुद प्रधानमंत्री तो अपने भाषणों में कर ही रहे हैं, लोकसभा अध्यक्ष भी कह रहे हैं कि जिस तरह से सदन चला है, उससे लोकतंत्र मजबूत हुआ है। लेकिन इन 16 महीनों में चार सत्रों के दौरान जो एक महत्वपूर्ण काम लोकसभा नहीं कर सकी, वह है अपने उपाध्यक्ष यानी डिप्टी स्पीकर का चुनाव। 

हालांकि उपाध्यक्ष का चुनाव न होने की स्थिति में लोकसभा के कामकाज पर कोई असर नहीं पड़ रहा है, क्योंकि अध्यक्ष की अनुपस्थिति में उनके द्वारा नामित पीठासीन अध्यक्ष मंडल के सदस्य सदन की कार्यवाही संचालित करते ही हैं। फिर भी एक भारी भरकम बहुमत वाली सरकार के होते हुए भी 16 महीने तक लोकसभा अध्यक्ष का चुनाव न हो पाना हैरानी पैदा करता है और बताता है कि सरकार संवैधानिक संस्थाओं और संवैधानिक पदों को कितनी ‘गंभीरता’ से लेती है। 

वैसे परंपरा के मुताबिक तो लोकसभा उपाध्यक्ष का पद विपक्षी दल को दिया जाता है, लेकिन यह परंपरा बीच-बीच में भंग होती रही है। इस परंपरा की शुरुआत छठी लोकसभा से हुई थी। उससे पहले पहली लोकसभा से लेकर पांचवीं लोकसभा तक सत्तारूढ़ कांग्रेस से ही उपाध्यक्ष चुना जाता रहा। आपातकाल के बाद 1977 में छठी लोकसभा के गठन के बाद जनता पार्टी ने सत्ता में आने पर मधु लिमए, प्रो. समर गुहा, समर मुखर्जी आदि संसद विदों के सुझाव पर लोकसभा उपाध्यक्ष का पद विपक्षी पार्टी को देने की परंपरा शुरू की थी। उस लोकसभा में कांग्रेस के गौड़े मुराहरि उपाध्यक्ष चुने गए थे। 

हालांकि जनता पार्टी की सरकार गिरने के बाद 1980 में कांग्रेस ने जब सत्ता में वापसी की तो उसने इस परंपरा को मान्यता नहीं दी। हालांकि उसने अपनी पार्टी के सदस्य को तो उपाध्यक्ष नहीं बनाया, मगर यह पद विपक्षी पार्टी को देने के बजाय अपनी समर्थक पार्टी एआईएडीएमके को दिया और जी. लक्ष्मणन को सातवीं लोकसभा का उपाध्यक्ष बनाया। 1984 में आठवीं लोकसभा में भी कांग्रेस ने यही सिलसिला जारी रखा और एआईएडीएमके के एम. थंबी दुराई को सदन का उपाध्यक्ष बनाया। 

1989 में जनता दल नीत राष्ट्रीय मोर्चा ने सत्ता में आने पर जनता पार्टी की शुरु की गई परंपरा को पुनर्जीवित किया और नौवीं लोकसभा का उपाध्यक्ष पद प्रमुख विपक्षी पार्टी कांग्रेस को दिया। कांग्रेस के शिवराज पाटिल सर्वसम्मति से उपाध्यक्ष चुने गए। वे बाद में 1991 में दसवीं लोकसभा के अध्यक्ष भी बने। लेकिन इस लोकसभा में भी कांग्रेस ने लोकसभा उपाध्यक्ष का पद विपक्ष को न देते हुए दक्षिण भारत की अपनी सहयोगी पार्टी एआईएडीएमके को ही दिया और एम. मल्लिकार्जुनैय्या उपाध्यक्ष बने। 

1997 में जब जनता दल नीत संयुक्त मोर्चा की सरकार बनी तो उसने फिर उपाध्यक्ष का पद विपक्षी पार्टी को देने की परंपरा का अनुसरण किया। भाजपा के सूरजभान सर्वसम्मति से ग्यारहवीं लोकसभा के उपाध्यक्ष चुने गए। 1998 में मध्यावधि चुनाव हुए और बारहवीं लोकसभा अस्तित्व में आई। भाजपा के नेतृत्व में राष्ट्रीय जनतांत्रिक गठबंधन (एनडीए) की सरकार बनी। इस सरकार ने भी अपनी पूर्ववर्ती सरकार की तरह लोकसभा उपाध्यक्ष का पद विपक्षी पार्टी को दिया। कांग्रेस के पीएम सईद उपाध्यक्ष बने। 1999 में फिर मध्यावधि चुनाव हुए और तेरहवीं लोकसभा का गठन हुआ। फिर एनडीए की सरकार बनी और पीएम सईद फिर सर्वानुमति से लोकसभा उपाध्यक्ष चुने गए। 

2004 में चौदहवीं लोकसभा अस्तित्व में आई। कांग्रेस की अगुवाई में यूपीए की सरकार बनी। इस बार कांग्रेस ने उदारता दिखाई और लोकसभा उपाध्यक्ष का पद विपक्षी पार्टी को दिया। अकाली दल के चरणजीत सिंह अटवाल उपाध्यक्ष चुने गए। कांग्रेस ने यह सिलसिला 2009 में पंद्रहवीं लोकसभा में भी जारी रखा। इस बार उपाध्यक्ष के पद पर भाजपा के करिया मुंडा निर्वाचित हुए। लेकिन 2014 में सोलहवीं लोकसभा में यह स्वस्थ परंपरा फिर टूट गई। भाजपा सरकार ने यह पद कांग्रेस का साथ छोड़कर अपनी सहयोगी बन चुकी एआईएडीएमके को दे दिया। एम. थंबी दुराई तीन दशक बाद एक बार फिर लोकसभा उपाध्यक्ष चुने गए। 

अब सत्रहवीं को अपने उपाध्यक्ष के चुने जाने का इंतजार है। यह तो स्पष्ट है कि भाजपा यह पद विपक्षी पार्टी को नहीं देगी, लेकिन वह अपने सहयोगी दलों में से भी इस पद के लिए किसी का चुनाव नहीं कर पा रही है। पिछली लोकसभा में उपाध्यक्ष रहे थंबी दुराई इस बार चुनाव हार गए हैं। इस लोकसभा में एआईएडीएमके का महज एक ही सदस्य है और वह भी पहली बार चुनाव जीता है। दक्षिण भारत में भाजपा के पास दूसरी कोई सहयोगी पार्टी नहीं है। भाजपा की सबसे पुरानी सहयोगी पार्टी शिवसेना अब उसके साथ नहीं है। दूसरे सबसे पुराने सहयोगी अकाली दल ने भी हाल ही में खेती और किसानों से संबंधित विवादास्पद विधेयकों का विरोध करते हुए न सिर्फ सरकार से बल्कि एनडीए से भी नाता तोड़ लिया है। 

एनडीए में भाजपा अपनी सबसे बड़ी सहयोगी पार्टी जनता दल (यू) के हरिवंश नारायण सिंह को पहले ही राज्य सभा का उप सभापति बना चुकी है। चूंकि हरिवंश बिहार का प्रतिनिधित्व करते हैं, इसलिए भाजपा लोकसभा उपाध्यक्ष का पद बिहार की अपनी दूसरी सबसे बड़ी सहयोगी लोक जनशक्ति पार्टी को भी नहीं दे सकती।

अब भाजपा की निगाहें आंध्र प्रदेश की वाईएसआर कांग्रेस और ओडिशा के बीजू जनता दल पर हैं। इनमें से वाईएसआर कांग्रेस का रुख मोटे तौर पर अभी तक तो भाजपा सरकार के समर्थन का ही रहा है लेकिन अब उसमें बदलाव आ सकता है। क्योंकि आंध्र में उसकी प्रमुख प्रतिद्वंद्वी तेलुगू देशम पार्टी के नेता चंद्रबाबू नायडू भी विपक्षी खेमे से छिटक कर पिछले कुछ दिनों से एक बार फिर भाजपा से अपनी नजदीकी बढ़ाने का प्रयास कर रहे हैं। हाल ही में नागरिकता संशोधन विधेयक का भी उनकी पार्टी ने राज्य सभा में समर्थन किया है। अगर तेलुगू देशम पार्टी की एनडीए में वापसी होती है तो ऐसे में जगन मोहन रेड्डी की वाईएसआर कांग्रेस के लिए भाजपा से दूरी बना लेना स्वाभाविक रूप से लाजिमी हो जाएगा। 

जहां तक बीजू जनता दल का सवाल है, उसका रुख भी आमतौर पर भाजपा सरकार के समर्थन का ही रहा है और कई महत्वपूर्ण विधेयकों को राज्य सभा में पारित कराने में उसने सरकार का साथ भी दिया है। इसलिए संभव है कि लोकसभा उपाध्यक्ष का पद इस बार उसे दे दिया जाए। मगर उपाध्यक्ष का चुनाव कब होगा, यह प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी के सिवाय कोई नहीं बता सकता।

(अनिल जैन वरिष्ठ पत्रकार हैं और आजकल दिल्ली में रहते हैं।)

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