न जानवरों को चरी मिल रही न लोगों को सब्जी, यूपी के गांवों में बिजली कटौती से हाहाकार

प्रयागराज। उत्तर प्रदेश के पूर्वी व मध्य क्षेत्र के जिलों में खेतों को पानी न मिलने से तपती धूप में चरी की पत्तियां ऐंठ ऐंठकर न जाने क्या हो गई हैं। चरी के खेतों मेड़ों से गुज़रते हुये लगता है जैसे वो मातम मना रहे हों। ऐसे ही एक खेत में किसान सुरेश यादव मिल गये। अपनी मजबूरी का रोना रोते हुये सुरेश यादव कहते हैं कि हरा चारा न मिलने से दुधारुओं ने दूध तोड़ दिया है। गौरतलब है कि गर्मियों में हरे चारे की किल्लत होती है। ऐसे में किसान चरी और बरसीम बोते हैं ताकि दुधारुओं को खाने की तकलीफ़ न हो। लेकिन पिछले डेढ़ महीने से बिजली कटौती ने किसानों को कहीं का नहीं छोड़ा। सुरेश यादव बिजली कटौती को महंगाई से जोड़ते हुये आगे कहते हैं दाल सब्जी में तो पहले ही महँगाई की आग लगी हुई है। गर्मियों में दूध माठा ही सहारा था वो भी छिन गया।

वहीं शाम के समय डीजल इंजन चरी की सिंचाई करके इंजन और पाइप लादे-फांदे खेतों से घर वापस लौट रहे पप्पू पाल बताते हैं कि डीजल महंगा होने के चलते लोगों ने इंजन से सिंचाई करना लगभग बंद ही कर दिया था। लेकिन अब बिजली कटौती ने डीजल इंजन के दिन फेर दिये हैं। इससे सिंचाई महंगी पड़ रही है लेकिन क्या करें कोई विकल्प भी तो नहीं है।

सोरांव क्षेत्र इलाहाबाद जिले में सब्जी उत्पादन का गढ़ माना जाता है। लेकिन बिजली कटौती के चलते वहां के सब्जी उत्पादक किसानों की स्थिति दयनीय हो चुकी है। मंडियों में हरी सब्जियों की आवक कम है जिसके चलते सब्जियों के दाम बढ़े हुये हैं। पालक, करेला, भिंडी, तोरी, लौकी, परवल, कोई भी सब्जी 50 रुपये प्रति किलो से कम नहीं है। इलाहाबाद जिले के पाली गांव के जितेंद्र बहादुर पटेल सब्जी उगाकर बेचते हैं। यही उनकी आजीविका का सहारा भी है। जितेंद्र बताते हैं कि सब्जियों के पौधों और लताओं में फूल आ आकर मर गये। सिंचाई के लिये टुल्लू लगाया है लेकिन बिजली ही नहीं रहती। डीजल इंजन से कितनी सिंचाई करें। डीजल का दाम बढ़ने से सिंचाई भी महंगी हो गई है। खेतों में लौकी, तोरी, करेला बोये हैं लेकिन समय पर सिंचाई न होने से सब्जी नहीं तैयार हो पा रही। यह केवल जितेंद्र बहादुर की कहानी नहीं है उत्तर प्रदेश के हर एक सब्जी उत्पादक किसान की यही पीड़ा है। यही कारण है लौकी, तोरी, भिंडी, करेला जैसी सब्जियों के दाम आसमान छू रहे हैं।

बादशाहपुर के एक गांव के किसान द्वारिका नाथ बताते हैं कि खेती और फसल का एक ‘ताव’ होता है, समय होता है। ताव मर जाता है तो सारी फसल चौपट हो जाती है। वो अपनी उड़द और मूंग की पानी में खौलकर डंठल हुई फसल दिखाते हुये बताते हैं कि गर्मियों में फसल की सिंचाई का सबसे अच्छा समय होता है देर शाम या रात का समय। लेकिन उस समय बिजली अक्सर नहीं आती। थक हारकर दिन के समय उड़द-मूंग की फसल सींच दी और सारी फसल सूरज की गर्मी से पानी में खौलकर सूख गई। सारी लागत मिट्टी में मिल गई। किसान द्वारिका नाथ आगे कहते हैं अरहर, चना, मटर हमारे क्षेत्र में नहीं होता। दलहन में उड़द मूंग ही सहारा थी। लेकिन बिजली न आने के चलते उड़द की मूंग की फसल के साथ साल भर की दलहन की उम्मीद भी खत्म हो गई।  

सीबीएसई बोर्ड की 12वीं कक्षा की परीक्षा दे रहे छात्र निखिल कान खुजलाते हुये कहते हैं गर्मी से बहुत बुरा हाल है। ऐसे में बिजली कटौती से पढ़ाई और परीक्षा पर फोकस नहीं हो पा रहा है। पूरा पूरा दिन बिजली नहीं रहती है। इनवर्टर कितना बैकअप दे। इस बार का रिजल्ट बहुत ही खराब आने वाला है। 

दो कमरे के पक्के मकान के ओसारे में बैठकर बेनिया हांकती एक बुजुर्ग महिला बिजली का हाल पूछने पर कहती हैं- बाग़ बगैचा सब उछिन्न (खत्म) हो गये। अब पंखा कूलर का ही सहारा है। लेकिन बिना बिजली के चले कैसे? जैसे-जैसे गर्मी बढ़ती गई वैसे वैसे बिजली भी ग़ायब हो गई। वो बताती हैं कि उनकी बिटिया के बिटिया (नातिन) पैदा हुई है। इस प्रचंड गर्मी और उमस से भरी नई दुनिया में उस नन्हीं जान के लिये सामंजस्य बैठाना मुश्किल हो रहा है। सारा दिन बेनिया डोलाना पड़ता है। हाथ दुखने लगता है। बिजली कटौती ने नवजात बच्चों के लिये जीवन मुश्किल कर दिया है।  

मऊआइमा तहसील के गोवर्धनपुर गांव निवासी भोला पटेल की दो सप्ताह पूर्व एंजियोप्लास्टी हुई है। भोला पटेल कहते हैं दिल का मरीज हूँ, दूरबीन से दिल का ऑपरेशन करवाया है। डॉक्टर ने दो महीने आराम की सलाह दी है। लेकिन इस भीषण गर्मी में रातों-दिन बिजली कटौती ने दिल का दर्द बढ़ा दिया है। सारा दिन बेचैनी रहती है, जी घबराता है। भोला पटेल आगे बताते हैं कि उनकी भान्जी गांव के एक प्राइवेट अस्पताल में काम करती है। 10 दिन के लिये उसके यहां चला गया था वो अस्पताल में बात करके एक खाली बेड दिलवा दी थी, 10 दिन वहां गुज़ारा लेकिन कब तक रहता वापस चला आया। भोला पटेल आगे अपनी आर्थिक हालात पर कहते हैं बहुत संपन्न व्यक्ति तो नहीं हूं लेकिन हां खेती-किसानी करके पंखा-कूलर की व्यवस्था तो कर ही लिया हूँ। बिजली रहती तो यही बहुत था।

प्रतियोगी परीक्षा की तैयारी कर रहे एक छात्र बिजली कटौती पर पूछने पर कहते हैं – “बिजली की खपत बढ़ती है तो गांवों से कटौती करके बैलेंस की जाती है। क्योंकि गांव के लोग सीधे-सादे होते हैं। वो बस बिल भरना जानते हैं। बिजली के लिये सामूहिक होकर लड़ना नहीं जानते। शहरों में बिजली कटती है तो दस मिनट में सारे लोग नजदीकी पॉवर हाउस पहुंच जाते हैं। गांवों में ये नहीं होता। इसलिये सारी कटौती गांवों के सिर मढ़ दी जाती है”।

(प्रयागराज से जनचौक के विशेष संवाददाता सुशील मानव की रिपोर्ट।)  

सुशील मानव
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