Friday, March 29, 2024

संविधान के प्रति समर्पित जस्टिस के एम जोसेफ और ‘देश हित’ में फैसला देने वाले जस्टिस एम आर शाह की विदाई

सुप्रीम कोर्ट में मई और जून 23 में पांच न्यायाधीश अवकाश ग्रहण कर रहे हैं। जस्टिस एम आर शाह ने 15 मई को अवकाश ग्रहण कर लिया और जस्टिस केएम जोसेफ 16 जून को रिटायर हो जाएंगे। उनका आखिरी वर्किंग डे 19 मई को है। 16 जून सुप्रीम कोर्ट के ग्रीष्मावकाश के दौरान पड़ेगा। इसलिए सुप्रीम कोर्ट में इन जजों का विदाई समारोह मई में आयोजित किया गया। जहां जस्टिस जोसेफ ने लोकतंत्र को बनाए रखने के लिए न्यायपालिका के स्वतंत्रता के महत्व पर बात किया वहीं जस्टिस शाह ने प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी की तारीफ करने पर सफाई दी और कहा कि उन्हें इस बात की कोई मनाही नहीं है।

हालांकि जस्टिस शाह ने यह भी कहा कि उन्होंने सरकार के खिलाफ कई फैसले पारित किए हैं। उन्होंने कहा कि जब हम निर्णय देते हैं तो इस बात पर विचार नहीं करते कि सरकार में कौन हैं बल्कि यह देखते हैं कि क्या यह देश हित में है। जस्टिस जोसेफ जहां संविधान और कानून के शासन पर बल देने वाले जज माने जाते रहे हैं वहीं जस्टिस शाह को सरकार समर्थित जज माना जाता रहा है।

19 मई को मोदी सरकार के प्रतिनिधियों ने जस्टिस जोसफ को ‘दबे हुए स्वर में विदाई’ दी। सेरोमोनियल बेंच में दो दूसरे जजों की बड़ाई की गई, और उनसे गर्मजोशी से मुलाकात भी की गई। लेकिन अटॉर्नी जनरल ने जस्टिस जोसफ को कुल 20 सेकेंड दिए, और सॉलिसिटर जनरल ने 10 सेकेंड। आलोचकों का कहना है कि जस्टिस जोसफ के साथ यह रूखा व्यवहार, उनके सरकार के प्रति सख्त रवैये का नतीजा है। बेशक, जस्टिस जोसफ सरकार की ताकत के आगे झुकने को तैयार नहीं थे।

खुद से पहले रिटायर होने वाले जजों से अलग, जस्टिस जोसफ ने न तो कभी आला सरकारी ओहदेदारों की तारीफ के पुल बांधे थे और न ही किसी दूसरे पक्ष को उनसे कमतर माना था। वह ताकतवर कार्यपालिका के सामने भी निष्पक्ष रहकर फैसले सुनाते थे। वे संविधान और कानून के शासन पर आधारित फैसलों के लिए जाने जाते हैं। यही वजह थी कि जस्टिस जोसफ लोकतांत्रिक आदर्शों के आधार पर दृढ़ता से आदेश जारी करते थे, भले ही वे सत्ताधारी सरकार के खिलाफ हों।

गौतम नवलखा, बीमार और वयोवृद्ध, शायद काल कोठरी की सलाखों के पीछे दम तोड़ देते। उनके वकीलों ने यह दलील दी थी कि उनकी दिनों-दिन गिरती सेहत को देखते हुए जेल में उनके दुरुस्त होने की उम्मीद बहुत कम है। जुलाई 2021 में जब फादर स्टेन स्वामी ने आखिरी सांसें लीं, तब वह विचाराधीन कैदी थे। बीमार होने पर उन्हें अस्पताल में भर्ती कराया गया था।

अगस्त 2022 को 33 वर्ष के अपराधी पांडु नरोटे को गंभीर बीमारी हो गई और वह जेल में इतना बीमार पड़ गया कि अस्पताल में भर्ती होने के कुछ समय बाद ही उसकी भी मौत हो गई। लेकिन सुप्रीम कोर्ट ने कम से कम, नवलखा को बचा लिया। खासतौर से जस्टिस के एम जोसफ और ह्रषिकेष रॉय की पीठ  ने नवलखा को हाउस अरेस्ट की इजाजत दे दी। इसके बावजूद कि सरकार ने उन्हें जेल में ही रखने के लिए एड़ी-चोटी का जोर लगाया था। 

जस्टिस के एम जोसेफ उस संविधान पीठ का हिस्सा थे, जिसके फैसले में कहा गया कि भारत के चुनाव आयोग के सदस्यों की नियुक्ति एक पैनल की सलाह से की जानी चाहिए, जिसमें भारत के प्रधानमंत्री, भारत के चीफ जस्टिस और विपक्ष के नेता शामिल होंगे। अगर विपक्ष का कोई नेता न हो तो लोकसभा में सबसे बड़ी विपक्षी पार्टी का नेता इस पैनल में शामिल किया जाएगा। इससे पहले, चुनाव आयोग के मुख्य अधिकारी की नियुक्ति में सिर्फ केंद्र सरकार की मर्जी चलती थी, क्योंकि राष्ट्रपति ने केंद्रीय मंत्रिपरिषद की सलाह पर नियुक्तियां की थीं, जो देश के प्रधानमंत्री के काबू में होती हैं।

जस्टिस जोसेफ की अध्यक्षता वाली पीठ ने सभी राज्यों और केंद्र शासित प्रदेशों को हेट स्पीच के मामलों में स्वतः संज्ञान (यानी औपचारिक शिकायत का इंतजार किए बिना) के आधार पर कार्रवाई करने का निर्देश दिया था। इसके अलावा, जस्टिस जोसेफ और बीवी नागरत्ना की पीठ ने “यह स्पष्ट करना” उचित समझा कि कार्रवाई संविधान के धर्मनिरपेक्ष मूल्यों के अनुरूप होनी चाहिए।

उत्तराखंड हाईकोर्ट के चीफ जस्टिस के तौर पर पारित आदेश में उत्तराखंड में राष्ट्रपति शासन को खत्म कर दिया गया था। उनकी अगुवाई वाली खंडपीठ ने कहा था कि ऐसी कार्रवाई करते समय सरकार से ‘पूरी तरह पक्षपात रहित’ होने की उम्मीद की जाती है और केंद्र की तरफ से राष्ट्रपति शासन लगाना एपेक्स कोर्ट के निर्धारित नियम के एकदम खिलाफ था। हालांकि, यह निर्णय हमेशा केंद्र सरकार के अनुकूल नहीं रहा। कानून के जानकारों का मानना है कि इसी वजह से केंद्र को जस्टिस जोसेफ को सुप्रीम कोर्ट पहुंचाना मुफीद नहीं लगा, जब तक कि कोलेजियम ने इस बात को दोहराया नहीं। लेकिन उस दौरान, जब जस्टिस जोसफ की नियुक्ति को लेकर अनिश्चितता कायम थी, उन्होंने अपना बड़प्पन दिखाया, न तो नाराजगी जताई और न ही बेचैनी।

सिर्फ उनके फैसलों के चलते खलबली नहीं मची थी। अदालत में उनकी बातचीत और संवाद से भी एक सख्त न्यायिक व्यक्तित्व की झलक मिलती थी जो किसी शक्तिमान के असर में न आता हो। लेकिन जस्टिस जोसफ बेफिक्र थे। इसके बावजूद कि उन्होंने नफरत भरे भाषणों के लेकर सरकारों को चेतावनी दी थी। पक्षपात करने वाले मीडिया को लताड़ा था और धार्मिक आधार पर खेमेबंदी को खारिज किया था। जस्टिस जोसेफ तब परेशान हो जाते थे, जब उन्हें उनका काम करने से रोका जाता था।

जस्टिस जोसेफ ने एक मामले में सुनवाई के दौरान कहा था कि मैं ईसाई हूं, इसके बावजूद मुझे हिंदू धर्म से लगाव है, जो एक महान धर्म है और इसे नीचा नहीं दिखाया जाना चाहिए। हिंदू धर्म जिस ऊंचाई पर पहुंचा है और उपनिषदों, वेदों एवं भगवद्गीता में जो उल्लेख किया गया है, कोई भी व्यवस्था उस तक नहीं पहुंची है। हिंदू धर्म आध्यात्म ज्ञान में बड़ी ऊंचाइयों पर पहुंचा है। हमें इस महान धर्म पर गर्व होना चाहिए और हमें इसे नीचा नहीं दिखाना चाहिए।

बिलकिस बानो ने गुजरात सकार के उस फैसले को सुप्रीम कोर्ट में चुनौती दी थी, जिसमें सरकार ने राज्य में दंगों के दौरान सामूहिक बलात्कार और हत्या के दोषियों की समय से पहले रिहाई की इजाजत दी थी। बिलकिस की याचिका पर जस्टिस जोसेफ और नागरत्ना की एक बेंच फैसला सुनाने वाली थी लेकिन लाइव लॉ के मुताबिक, मामले की अंतिम सुनवाई नहीं हो सकी, क्योंकि दोषियों की तरफ से पेश होने वाले कुछ वकीलों ने बिलकिस के एफिडेविट के बारे में विवाद खड़ा कर दिया था कि उसने नोटिस सर्विस नहीं किया।

इस पर जस्टिस जोसेफ ने पेशकश की कि वह रिटायरमेंट से पहले छुट्टियों में इस मामले की सुनवाई कर सकते हैं। लेकिन सॉलिसिटर जनरल तुषार मेहता और प्रतिवादियों के वकील कथित तौर पर इस बात पर राजी नहीं हुए। इस पर जस्टिस जोसेफ ने कहा था कि यह साफ है कि यहां क्या कोशिश की जा रही है। मैं 16 जून को रिटायर हो जाऊंगा। चूंकि इस दौरान छुट्टियों होंगी, तो मेरा आखिरी वर्किंग डे, शुक्रवार 19 मई है। जाहिर है, आप नहीं चाहते कि यह बेंच मामले की सुनवाई करे। लेकिन, यह मेरे साथ नाइंसाफी है।

जस्टिस जोसफ की विरासत अमूल्य है। संवैधानिक मूल्यों और नागरिक स्वतंत्रता के प्रति उनकी अगाध श्रद्धा का प्रतीक है। वह इंसाफ के ऐसे रखवाले हैं, जिसने किसी ताकतवर के चंगुल में फंसना मंजूर नहीं किया।

अगर जस्टिस जोसफ को इंसाफ की और ऊंची कुर्सी मिलती तो वह और बेहतर करते। वह और अच्छा करते, अगर उन्हें समय पर फैसले सुनाने दिए जाते। उनका इंसाफ एडजर्नमेंट्स की मार न झेलता। अगर उनके सफर में इतनी रुकावटें न आतीं, तो वह और बेहतर करते। शायद ये रुकावटें, उनके अच्छे कामों के चलते ही पैदा हुईं, जो वह पहले से ही कर रहे थे।

के एम जोसेफ को 14 अक्टूबर, 2004 को केरल उच्च न्यायालय का स्थायी न्यायाधीश नियुक्त किया गया था। 18 जुलाई 2014 को, तत्कालीन सीजेआई राजेंद्र मल लोढ़ा की सिफारिश पर, भारत के राष्ट्रपति ने जोसेफ को उत्तराखंड के अगले मुख्य न्यायाधीश के रूप में नियुक्त किया। 31 जुलाई 2014 को, उन्होंने नैनीताल में उत्तराखंड उच्च न्यायालय के 9वें मुख्य न्यायाधीश के रूप में शपथ ली ।

जस्टिस जोसेफ की अध्यक्षता वाली पीठ ने उत्तराखंड राज्य में नरेंद्र मोदी के नेतृत्व वाली भाजपा सरकार द्वारा 2016 में राष्ट्रपति शासन लगाने को रद्द कर दिया था। केरल उच्च न्यायालय में एक न्यायाधीश होने के दौरान, न्यायमूर्ति जोसेफ की एक खंडपीठ ने अलाप्पुझा जिले में नेदियाथुरुथु द्वीप पर अवैध रूप से निर्मित कपिको रिसॉर्ट्स को ध्वस्त करने का आदेश दिया।

फरवरी 2017 में, भारत के सुप्रीम कोर्ट के कॉलेजियम के एक जज जस्टिस चेलमेश्वर ने जस्टिस के. एम. जोसेफ को भारत के सुप्रीम कोर्ट में पदोन्नत नहीं करने पर एक जोरदार शब्दों में असहमति नोट दर्ज किया। चेलामेश्वर ने लिखा कि जस्टिस जोसेफ त्रुटिहीन ईमानदारी के साथ एक उत्कृष्ट न्यायाधीश हैं और सर्वोच्च न्यायालय में पदोन्नति के लिए सबसे उपयुक्त न्यायाधीश हैं। उन्होंने नोट में कहा, “जस्टिस जोसेफ जैसे अत्यधिक सक्षम न्यायाधीश को पदोन्नत नहीं करके, कॉलेजियम एक अस्वास्थ्यकर मिसाल कायम कर रहा था।”

मीडिया रिपोर्ट्स के मुताबिक, 11 जनवरी 2018 को सुप्रीम कोर्ट कॉलेजियम ने सुप्रीम कोर्ट के जज के रूप में नियुक्ति के लिए जस्टिस जोसेफ के नाम की सिफारिश की थी। सर्वोच्च न्यायालय में पदोन्नति के लिए न्यायमूर्ति जोसेफ के नाम की सिफारिश करते हुए, 5 सदस्यीय कॉलेजियम ने सर्वसम्मति से कहा कि “कॉलेजियम ने सिफारिश के समय माना था कि न्यायमूर्ति के.एम. जोसेफ, जो केरल उच्च न्यायालय से हैं और थे उत्तराखंड उच्च न्यायालय के मुख्य न्यायाधीश के रूप में कार्य करना, भारत के सर्वोच्च न्यायालय के न्यायाधीशों के रूप में नियुक्त होने के लिए अन्य मुख्य न्यायाधीशों और उच्च न्यायालयों के वरिष्ठ न्यायाधीशों की तुलना में सभी प्रकार से अधिक योग्य और उपयुक्त हैं।

26 अप्रैल 2018 को, सरकार ने भारत के तत्कालीन मुख्य न्यायाधीश दीपक मिश्रा को लिखे एक पत्र में कहा था कि उस समय सुप्रीम कोर्ट के न्यायाधीश के रूप में न्यायमूर्ति के एम जोसेफ की प्रस्तावित नियुक्ति उचित प्रतीत नहीं होती थी। पत्र में, कानून और न्याय मंत्री, रविशंकर प्रसाद ने कहा कि न्यायमूर्ति के. एम. जोसेफ को तब अखिल भारतीय उच्च न्यायालय के न्यायाधीशों की वरिष्ठता सूची में 42वें स्थान पर रखा गया था और उस समय विभिन्न उच्च न्यायालयों के 11 मुख्य न्यायाधीश थे। अदालतें जो उनसे वरिष्ठ थीं। यदि उनका नाम वापस कर दिया गया, तो कॉलेजियम उनके नाम को दोहरा सकता है, जिससे सरकार के लिए सर्वोच्च न्यायालय में उनकी नियुक्ति के लिए वारंट जारी करना अनिवार्य हो जाएगा।

जस्टिस जोसेफ को सर्वोच्च न्यायालय के न्यायाधीश के रूप में नियुक्त करने से सरकार के इनकार के उसी दिन, सुप्रीम कोर्ट बार एसोसिएशन ने 100 वकीलों की तरफ से हस्ताक्षरित एक याचिका दायर की, जिसमें इंदु मल्होत्रा को सुप्रीम कोर्ट के न्यायाधीश के रूप में नियुक्त करने के वारंट पर रोक लगाने की मांग की गई थी , जैसा कि वरिष्ठ वकील ने उल्लेख किया है। मुख्य न्यायाधीश के इंदिरा जयसिंह ने कहा कि याचिका श्रीमती इंदु मल्होत्रा के खिलाफ नहीं थी लेकिन सरकार के खिलाफ थीं, जो कॉलेजियम की सिफारिश को अलग करने के लिए जस्टिस जोसेफ के नाम को मंजूरी नहीं दे रही थी। सुप्रीम कोर्ट ने न केवल मल्होत्रा की नियुक्ति पर रोक लगाने से इनकार कर दिया, बल्कि याचिका को अकल्पनीय भी करार दिया।

16 जुलाई 2018 को, चीफ जस्टिस दीपक मिश्रा की अध्यक्षता वाले सुप्रीम कोर्ट कॉलेजियम ने सर्वोच्च न्यायालय में पदोन्नति के लिए जस्टिस के एम जोसेफ के नाम को दोहराया। कॉलेजियम के प्रस्ताव में कहा गया है कि सावधानीपूर्वक विचार करने के बाद कॉलेजियम को कानून मंत्री के पत्रों में जोसेफ जे की उपयुक्तता के संबंध में कुछ भी प्रतिकूल नहीं मिला। एक अलग प्रस्ताव में, सुप्रीम कोर्ट कॉलेजियम ने क्रमशः मद्रास और ओडिशा उच्च न्यायालयों के मुख्य न्यायाधीश, न्यायमूर्ति इंदिरा बनर्जी और न्यायमूर्ति विनीत सरन के नामों की सिफारिश की। इसके बाद उनकी नियुक्ति सुप्रीम कोर्ट में सबसे जूनियर के रूप में हुई। 

सुप्रीम कोर्ट के जज एमआर शाह सोमवार (15 मई) को रिटायर हो गए। जस्टिस शाह साल 2018 में एक कार्यक्रम के दौरान प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी की तारीफ के चलते कुछ लोगों के निशाने पर आ गए थे। उन्हें कथित तौर पर सरकार समर्थक कहा गया था। हालांकि, रिटायरमेंट के बाद जस्टिस शाह ने कहा है कि वह आज भी अपने बयान पर कायम हैं और कुछ लोगों की आलोचना की चिंता नहीं करते।

जस्टिस एमआर शाह ने साल 2018 में गुजरात हाई कोर्ट के डायमंड जुबली समारोह में हिस्सा लिया था। इस दौरान उन्होंने पीएम मोदी को मोस्ट पॉपुलर, लोकप्रिय, वाइब्रेंट और विजनरी नेता कहा था। इंडिया टुडे से बातचीत में जस्टिस शाह ने कहा कि उनका विवेक स्पष्ट था और उनके फैसले कभी भी व्यक्तिगत विचारों से प्रभावित नहीं हुए।

जस्टिस एम आर शाह ने कहा, कोई भी एक उदाहरण नहीं दे सकता है जो ये दिखाए कि इसने (बयान) न्यायिक पक्ष पर मेरे निर्णय लेने को प्रभावित किया है। जिनके पास करने के लिए कुछ नहीं है वे न्यायाधीशों की आलोचना करते हैं।” उन्होंने कहा- न्यायिक पक्ष में एक साथ काम करने का कोई सवाल ही नहीं है। शाह ने कहा- एक जज के रूप में अपने पूरे करियर में उनके राजनेताओं के साथ गहरे संबंध नहीं रहे।

जस्टिस शाह गुजरात हाईकोर्ट में भी जज रहे हैं। उस दौरान गुजरात के मुख्यमंत्री रहे नरेंद्र मोदी के साथ कामकाजी रिश्ते को लेकर उन्होंने कहा, न्यायिक पक्ष में एक साथ काम करने का सवाल ही नहीं है। एक न्यायाधीश के रूप में अपने पूरे करियर में, उनके राजनेताओं के साथ करीबी संबंध नहीं थे और उन्होंने अपना कर्तव्य ‘बिना किसी भय, पक्षपात या दुर्भावना के’ निभाया। शाह ने कहा, “मैंने सरकार के खिलाफ कई फैसले पारित किए हैं। जब हम निर्णय देते हैं तो हम इस बात पर विचार नहीं करते हैं कि सरकार में कौन है, बल्कि यह देखते हैं कि क्या यह देशहित में है।” 

(जे.पी.सिंह वरिष्ठ पत्रकार और कानूनी मामलों के विशेषज्ञ हैं।)

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