Thursday, April 25, 2024

आखिरकार वन विभाग की संवेदनहीनता ने ले ली बेज़ुबान चंपा की जान

झारखंड का सरायकेला- खरसवां जिले के चांडिल प्रखंड के दलमा इको सेंसेटिव जोन के मुख्य द्वार पर वर्षों से चंपा व रजनी नाम की एक हथिनी व एक हाथी बच्चा पर्यटकों के लिए सेल्फी का केंद्र बना हुआ था, जो अब चंपा हथिनी के मर जाने के बाद सन्नाटा में बदल गया है। 2009 में एक हाथी बच्चा रजनी चाण्डिल के कुआं में गिरने से घायल हो गया था, जिसे टाटा जू लाया गया था। जिसे इलाज के बाद दलमा लाया गया था, जिसकी उम्र अब 13 वर्ष की हो गई है। वहीं चंपा हथिनी को धनबाद से जब्त कर दलमा लाया गया था, जिसकी उम्र आज के दिन में 57 वर्ष के करीब थी। उन दोनों को जंजीरों से बांधकर रखा गया था।

संयुक्त ग्राम सभा मंच, झारखंड का आरोप है कि रजनी और चंपा की शारीरिक स्थिति दिन प्रतिदिन कमजोर होती जा रही थी। क्योंकि इनका उचित रखरखाव व देखभाल ठीक से नहीं हो रहा था। क्षेत्र के लोगों का मानना है कि एक हाथी दिन भर में 16-17 घंटे भोजन करता है, लेकिन चंपा हथनी को कभी भी उतना भोजन नहीं मिला। वे कहते हैं कि भोजन देने के बजाय उसे भूखे-प्यासे ज़ंजीरों में क़ैद रखकर पर्यटकों के सामने मनोरंजन का सामान बनाकर नचाया जाता रहा। जबकि चंपा महीनों से बीमार चल रही थी। जिसे लेकर संयुक्त ग्राम सभा मंच ने लगातार आवाज उठाई और वन विभाग के उच्चाधिकारियों को मामले से अवगत कराया था।

मंच के लोगों का कहना है कि कई महीनों से इसके ज़ंज़ीरों में जकड़े होने और भूख से बीमार रहने की पुरज़ोर मांगें उठायी जा रहीं थी लेकिन किसी के कान में जूं तक नहीं रेंगा। अंततः वन विभाग की संवेदनहीनता ने बेज़ुबान चंपा की 25 दिसंबर को जान ले ली। मंच ने पहले भी सवाल उठाता रहा था कि आखिर इनके हिस्से का खाना कौन खा रहा है? इनके इस हालात के लिए कौन जिम्मेवार हैं? क्या जानवरों के साथ खिलवाड़ करने का अधिकार वन विभाग को मिला हुआ है?

संयुक्त ग्राम सभा मंच का कहना है कि दलमा इको सेंसेटिव जोन बनने से पहले इसी जंगल में मनुष्य व जानवर दोनों साथ-साथ रहा करते थे, लेकिन कभी भी जानवरों की स्थिति इस तरह नहीं थी। कभी भी जंगल में रहने वाले लोग वन विभाग से गुहार नहीं लगाया था कि आप जंगल में रहने वाले हाथियों को लोहे की जंजीर में बांधकर कैद करके रखें। ऐसे में साफ पता चलता है कि जल-जंगल-जमीन की लूट से सिर्फ आदिवासी-मूलवासी ही नहीं जंगल में रहने वाले जानवर भी दमन का शिकार हो रहे हैं।

बता दें कि जब चंपा हथनी बीमार थी तो मामले को लेकर दिनांक 30 नवंबर 2022 से संयुक्त ग्राम सभा मंच के तत्वावधान में दलमा इको सेंसेटिव जोन के मुख्य द्वार पर चंपा व रजनी के भोजन, स्वास्थ्य व जंजीर से मुक्त करना को लेकर गांव-गांव में जनसंपर्क अभियान चलाया गया था। वहीं पिछले 5 दिसंबर से संयुक्त ग्राम सभा ने चंपा-रजनी हथनियों को ज़ंजीरों से तत्काल आज़ाद कर समुचित भोजन देने व उचित इलाज की मांग को लेकर गांव गांव ‘पदयात्रा अभियान’चलाया था। दलमा इको सेंसेटिव ज़ोन के अभ्यारण्य के जीव-जंतुओं की देखभाल और भोजन के लिए जारी किए गए भारी फंड की लूट को लेकर स्थानीय प्रशासन और वन विभाग के ख़िलाफ़ आंदोलन छेड़ रखा था। लेकिन मामले पर कहीं से कोई संज्ञान नहीं लिया गया। उलटे वन विभाग ने इन सभी पर ‘राजनीति करने’का आरोप लगा दिया।

दलमा पहाड़ के तराई क्षेत्र शहर बेड़ा गांव के परम्परागत ग्राम प्रधान मान सिंह मार्डी के नेतृत्व में ग्रामीणों से चंपा व रजनी के सवालों को लेकर संवाद भी किया गया था। मान सिंह मार्डी कहते हैं कि वन विभाग के डीएफओ व रेंजर के मिलीभगत से इको सेंसेटिव जोन के नाम पर वन प्राणी अश्राणियों अभ्यारण्य के नाम पर जो पैसा आ रहा था, उसमें लूट खसोट मचा हुआ था। जिसका परिणाम है कि चंपा व रजनी की स्थिति दिनों – दिन खराब होती गई और अंततः चंपा की जान चली गई।

संयुक्त ग्राम सभा मंच के संयोजक अनुप महतो बताते हैं कि हम आदिवासी-मुलवासी कृषि व प्रकृति से अपना जीवन यापन करते हैं एवं कृषि से जो फसल उपजाते हैं, उसका पहला हिस्सा हम जीव-जंतुओं को देते हैं। उसके बाद जो उनसे बचता है, उसे हम समेट कर घर लाते हैं। यह हक हमारे पूर्वजों से लेकर अब तक की पीढ़ी इन जीव जंतुओं को देती आयी है। हम आदिवासी -मूलवासी इस देश का मालिक हैं फिर हमारे जीव-जंतुओं के ऊपर अत्याचार करने का हक इस वन विभाग के पदाधिकारियों को कौन देता है?

संयुक्त ग्राम सभा मंच के संयोजक सह पूर्व दलमा क्षेत्र ग्राम सभा सुरक्षा मंच के सचिव शुकलाल पहाड़िया कहते हैं कि दलमा पहाड़ में रहने वाले आदिवासी – मूलवासी के ऊपर इको सेंसेटिव जोन घोषित होने के बाद किस तरह से उनके हक अधिकार व संस्कृतियों पर हमला किया गया, उसका प्रमाण यह है कि हम आदिवासी -मूलवासी जब उस समय अपने हक अधिकार को बचाने के लिए आवाज उठाया तो हम आदिम जनजातियों को सलाखों के पीछे साजिश के तहत बंद कर दिया गया था।

बताते चलें कि चंपा हथनी की देखरेख के ज़िम्मेदार वन विभाग के आला अधिकारी अब एक ही स्वर अलाप रहे हैं कि वह काफ़ी बूढ़ी हो चली थी और तीन पशु चिकित्सकों की टीम ने उसे बचाने की पूरी कोशिश में लगी हुई थी। लेकिन उसकी अधिक उम्र होने के कारण उसके कई अंग काम करना बंद कर चुके थे। दूसरी तरफ अर्थाराइटीस के कारण उठने बैठने में उसे परेशानी हो रही थी। कई दिनों से उसने खाना भी छोड़ दिया था। दलमा क्षेत्र के वन अधिकारी चार दिनों से ख़ुद उसकी देख रेख में जुटे हुए थे।

दूसरी ओर क्षेत्र के निवासी शोकाकुल आदिवासी-मूलवासी समाज के लोगों का कहना है कि आज इसके आला अधिकारी मौत के असली कारणों को दबाने के लिए उम्र का हवाला देकर मौत पर पर्दा डाल रहें हैं। जबकि वन विभाग की संवेदनहीनता ने एक बेज़ुबान की जान ले ली। क्षेत्र के आक्रोशित लोगों का यह भी कहना है कि हम मानते हैं कि जो हाथी अपने झुंड से बिछड़ जाता है उसे फिर अपने झुंड में स्वीकार नहीं किया जाता है। लेकिन जब आपने इसे पालतू पशु बना लिया तो इसे पालने के लिए जो नियम-क़ानून हैं, क्या उसका पालन किया कभी?’

ऑल इंडिया पीपुल्स फोरम से जुड़े संयुक्त ग्राम सभा के आंदोलनकारी सुखलाल पहाड़िया ने हथनी की मौत पर शोक व्यक्त करते हुए मांग की है कि दलमा पहाड़ की बेज़ुबान हथनी चंपा के क़ातिलों पर धारा 428 और 429 के तहत मामला दर्ज होना चाहिए। मुझे दुःख है कि हम चंपा को ज़ंजीर से नहीं आज़ाद करा पाए।

शोकाकुल ग्राम सभा के आंदोलनकारी अब ये सवाल उठा रहें हैं कि जब दलमा पहाड़ी क्षेत्र में रहने वाले इंसानों को आज तक न्याय नहीं मिल पाया है तो क्या जिस बेज़ुबान चंपा की मौत पर पर्दा डाला जा रहा है, उसे इंसाफ़ मिल सकेगा?

यह विडंबना ही है कि हाथी को राज्य का प्रतीक-पशु घोषित किया गया है, बावजूद पिछले 12 वर्षो से सैलानियों का मुफ़्त मनोरंजन कर रही इन हथनियों की दुर्व्यवस्था पर राज्य सरकार ने भी सीधे तौर से कोई संज्ञान नहीं लिया।

लोगों का सवाल टाटा नगरी में ही कोठी बनाकर रह रहे केंद्रीय आदिवासी मामलों के मंत्री अर्जुन मुंडा इतने पास रहकर भी वे एक बार भी यहां नहीं आए। जबकि वे आए दिन मंच के भाषण देते रहे कि उनकी केंद्र सरकार और विशेषकर मोदी जी झारखंड के आदिवासियों के लिए बहुत चिंतित रहते हैं।

चार डॉक्टरों की टीम द्वारा उसका पोस्टमार्टम किये जाने के बाद पूरे सम्मान के साथ चंपा को दफनाया गया। पिछले 12 वर्षों से उसके साथ रहने वाले महावत ने उसे कफ़न ओढ़ाकर फूल चढ़ाया और अंतिम संस्कार के नियम करने के बाद दफ़नाने की इजाज़त दी।

(वरिष्ठ पत्रकार विशद कुमार की रिपोर्ट।)

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