झूठ-फरेब के भ्रम-जाल के भीतर से भारत के लोकतंत्र में नये आदमी का नया सूरज उगेगा

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अभी पिछले दिनों नेता प्रतिपक्ष संयुक्त राज्य अमेरिका की यात्रा पर थे। वहां विभिन्न कार्यक्रम में उन की भागीदारी और उन के भाषणों की जबरदस्त चर्चा यहां देश में हो रही है। नकारात्मक और तीखी चर्चा। भारतीय जनता पार्टी के कई बड़े नेता, वरिष्ठ मंत्री, प्रवक्ताओं की टोली लिट्टी-पानी लेकर राहुल गांधी पर पिल पड़े हैं। लिबरल बुद्धिजीवी तो कसमसा ही रहे हैं। राहुल गांधी को देश-द्रोही, आरक्षण-विरोधी, देश के सामाजिक-धार्मिक सद्भाव को क्षति पहुंचानेवाला, चीन समर्थक और न जाने क्या-क्या घोषित किया जा रहा है। बात यहां तक पहुंच गई है कि नेता प्रतिपक्ष राहुल गांधी की संसद सदस्यता को लेकर भी खींच-तान करने की ललक भारतीय जनता पार्टी के नेताओं के ‘उद्गारों’ से अभिव्यक्त हो रही है।

वैसे भी नेता प्रतिपक्ष राहुल गांधी गांधी अपमानजनक तरीके से यह कहने पर कि जिन की जात का पता नहीं है वे जातिवार जनगणना की बात करते हैं! पर टिप्पणी करते हुए राहुल गांधी संसद में बोल चुके हैं कि वंचना और वंचितों के हित का सवाल उठानेवालों को गाली-गलौज का सामना करना ही पड़ता है। साथ ही यह भी कहा कि वे गाली-गलौज की परवाह किये बिना जातिवार जनगणना करवा के रहेंगे। एक अर्थ में तो कहा जा सकता है कि राहुल गांधी भारतीय जनता पार्टी के संभाले संभल नहीं पा रहे हैं। वे राहुल गांधी पर जो भी मनगढ़ंत आरोप लगाते हैं, वह तुरंत फुस्स हो जाता है। मायावी मनगढ़ंत जन-हित के किसी भी सिद्धांत को बहुत देर और दिन तक आच्छादित करके नहीं रख सकता है।

भारतीय जनता पार्टी के नेतागण की तिल-मिलाहट तो फिर भी समझ में आती है। लेकिन सत्तासीन गठबंधन और इंडिया गठबंधन से बाहर खड़ी बहुजन समाज पार्टी जैसी सामाजिक न्याय की राजनीतिक पार्टी के ‘सुप्रीमो’ का रुख बिल्कुल समझ के परे है। जो बात समझ में आती है, उसे उसी रूप में समझना बहुत कठिन और कष्टकर है। यह नहीं भूलना चाहिए कि 2024 के आम चुनाव में भारत के मतदाता समाज के राजनीतिक व्यवहार से एक बात बिल्कुल साफ-साफ झलक रही है कि पूर्व-परिभाषित ‘वोट-बैंक’ के अपने करिश्मा पर भरोसा करना राजनीतिक नेताओं के लिए अब निरापद नहीं रहा। यह भी नहीं भूलना चाहिए कि स्थाई बहुमत के जुगाड़ के भरोसे पर ‘चार सौ के पार’ की उन्मत्त घोषणा के साथ चुनाव में उतरी भारतीय जनता पार्टी जैसी बड़ी पार्टी मुंह की खा चुकी है। समझना जरूरी है भारत के मतदाता समाज के सामूहिक विवेक की राजनीतिक शक्ति को। फिलहाल तो यह भी कि इस समय के नेता प्रतिपक्ष राहुल गांधी की राजनीति की नई शैली को समझना जरूरी है।

भारत की राजनीति के कुछ छूटे हुए क्षण को याद करना प्रासंगिक है। भारत के ‘लोकतंत्र की जननी’ होने के गर्व-गौरव की बात अपनी जगह, फिलहाल तो यह कि भारत में संवैधानिक लोकतंत्र की स्थापना हुए काफी समय हो गया है। भारत में अठारहवीं लोकसभा का गठन हो चुका है। स्पष्ट है कि भारत के मतदाता समाज को विधायी-सभाओं के लिए अपने जन-प्रतिनिधियों को चुनने का खासा खट्टा-मिट्ठा अनुभव हो चुका है। माना जा सकता है कि भारत के लोगों में लोकतांत्रिक राजनीति की चेतना परिपक्व हो चुकी है। जन-प्रतिनिधियों का चुनाव करने के लिए मतदाता समाज में आम तौर पर तर्कशील चयन की सुमति सक्रिय और सचेत रहती है। गौर किया जाये तो अचरज ही होगा कि हतोत्साहित करनेवाली साक्षरता दर के बावजूद भारत के मतदाता समाज का सामूहिक विवेक बिना किसी चूक के तर्क-संगत फैसला करता रहा है; 2024 के आम चुनाव का परिणाम भी यही साबित करता है।

इस संदर्भ में एक दो उदाहरण काफी होगा। आम धारणा के अनुसार ब्रिटिश हुकूमत से आजादी हासिल करने, सुदृढ़ संवैधानिक और राजनीतिक ढांचा बनाने में बड़ी भूमिका भारतीय राष्ट्रीय कांग्रेस की ही रही है। भारत के मतदाता समाज का सामूहिक विवेक कांग्रेस के प्रति अपनी गहन सामूहिक कृतज्ञता-बोध के बावजूद कांग्रेस के ‘एहसान’ के नीचे कहीं दब नहीं गया था। भारत में चुनावी प्रक्रिया के शुरू होने के दो दशक बीतते-न-बीतते मतदाता समाज ने अपनी विवेक शक्ति का भरपूर एहसास कांग्रेस को करा दिया था। याद किया जा सकता है कि जन-हित के मुद्दों पर कांग्रेस (ओ) और कांग्रेस (आर) के रूप में कांग्रेस दो फाड़ हो गई थी। मतदाता समाज ने अपने हित की पहचान करते हुए हुए जन-हित के मुद्दों को अपना चुनावी समर्थन दिया था। मुद्दे के साथ इंदिरा गांधी थी। इंदिरा गांधी चुनाव जीत गई। समझ में आने लायक बात है कि वे मुद्दे ‘पूंजीवाद’ के लिए बहुत सुविधाजनक नहीं थे।

जन-हित के मुद्दों और पूंजीवाद के इरादों में प्रत्यक्ष-अप्रत्यक्ष तरीके से चूहा-बिल्ली की भाग-दौड़ और मार-बचाव की प्रक्रिया चलती रहती है। सरकार में रुझान समाजवाद के प्रति हो और व्यवस्था में आकर्षण पूंजीवाद के प्रति हो तो सरकार और व्यवस्था में एक प्रकार का राजनीतिक तनाव उत्पन्न हो ही जाता है। लोकतांत्रिक राजनीति इस तनाव को राजनीतिक शक्ति के सहारे नहीं, बल्कि नैतिक शक्ति के सहारे ही झेल सकती है। नैतिक चेतना होती तो सामूहिक है, लेकिन उस में व्यक्ति की भूमिका भी बहुत महत्वपूर्ण होती है। जाने-अन-जाने बुद्धिजीवी पत्रकारों ने इंदिरा गांधी की चुनावी जीत को इंदिरा गांधी के व्यक्तित्व की ‘चमत्कारिक शक्ति’ से जोड़ने में अपनी सारी मेधा खपा दी। जबकि ‘चमत्कार’ का तत्व इंदिरा गांधी के राजनीतिक व्यक्तित्व से अधिक, मूल रूप से मुद्दों की नैतिक शक्ति में था।

व्यक्ति की लोकप्रियता में घट-बढ़ जितनी जल्दी-जल्दी होती है, मुद्दों की लोकप्रियता में घट-बढ़ उतनी तेजी से नहीं होती है। व्यक्ति की लोकप्रियता में चपल-तत्व अधिक होने के कारण देर-सबेर उसे अनुकूल बनाना आसान होता है। मुद्दों के प्रति नीतिगत शिथिलता राजनीतिक नेताओं की चमत्कारिक शक्ति को मंद और अंततः विलुप्त कर देती है। इसलिए पूंजीवादी मेधा व्यक्ति की चमत्कारिक शक्ति को तूल देती है और मुद्दों की नैतिक शक्ति को ओझल करने में लगी रहती है।

मुद्दों से भटकाव और राजनीतिक विरोधिता तो अपनी जगह थी ही, लेकिन कुल मिलाकर ना-काफी कारणों से संवैधानिक प्रावधानों का गलत उपयोग करते हुए 26 जून 1975 को देश में आंतरिक आपातकाल लगाना, गैर-मुनासिब प्रशासनिक कार्रवाई, विपक्षी नेताओं के साथ किये गये गैर-लोकतांत्रिक व्यवहार को भारत के मतदाता समाज ने अच्छा नहीं माना; उत्तर भारत के मतदाता समाज ने तो बिल्कुल ही अच्छा नहीं माना।

लोकतांत्रिक मूल्यों की राजनीतिक अवहेलना की भारी कीमत इंदिरा गांधी को चुकानी पड़ी। इंदिरा गांधी की सरकार 1977 का चुनाव निर्णायक ढंग से हार गई। विभिन्न घटक दलों के ताल-मेल और सहयोग से मुरारजी देसाई के नेतृत्व में पहली गैर-कांग्रेसी सरकार के रूप में जनता पार्टी सरकार का गठन हो गया था।

आंतरिक मतभेदों के कारण जनता पार्टी की सरकार अंततः 1980 में टूट गयी। इस के बाद हुए आम चुनाव में भारत के मतदाता समाज के जिस सामूहिक विवेक ने इंदिरा गांधी को सत्ता के बाहर का रास्ता दिखला दिया था, उसी सामूहिक विवेक ने बिना किसी हिचक के इंदिरा गांधी को फिर से देश की सत्ता संभालने का स्पष्ट जनादेश दे दिया। कांग्रेस का इतिहास जानेवाले मानेंगे कि इंदिरा गांधी को देश की सत्ता सिर्फ, यह ‘सिर्फ’ महत्वपूर्ण है, विरासत के कारण नहीं मिली थी। यह जरूर है कि स्वतंत्रता आंदोलन के महत्वपूर्ण नेता के परिवार से जुड़े होने के कारण शुरुआती राजनीतिक बढ़त उन्हें मिली थी, लेकिन जिस राजनीतिक कौशल के साथ सत्ता की राजनीति में इंदिरा गांधी ने अपनी सफलता की पटकथा लिखी वह कम रोमांचक नहीं है।

1984 में इंदिरा गांधी की शहादत के बाद, उन के पुत्र, राजीव गांधी को प्रधानमंत्री की शपथ दिलवाई गई। इस के तुरत बाद हुए आम चुनाव में राजीव गांधी के नेतृत्व में कांग्रेस अब तक के संसदीय इतिहास में सब से बड़े बहुमत के साथ सत्ता में लौटी; इसे ‘सहानुभूति लहर’ के प्रभाव की जीत के रूप में इतिहास ने अपने खाता में दर्ज किया। ‘मिस्टर क्लीन’ के संबोधन के साथ शुरू राजीव गांधी सरकार की यात्रा शीघ्र ही ‘बोफोर्स करप्शन’ से बुरी तरह घेर ली गई। नवंबर 1989 के आम चुनाव में राजीव गांधी के नेतृत्व में कांग्रेस सब से बड़ी पार्टी के रूप में तो संसद में लौटी, लेकिन कांग्रेस को स्पष्ट जनादेश नहीं मिला। राजीव गांधी ने विपक्ष में रहने का विकल्प चुना।

उस के बाद भारत में भारी राजनीतिक उथल-पुथल का दौर शुरू हो गया; कई प्रधानमंत्री आये-गये। अंततः मध्यावधि आम चुनाव की घोषणा हुई और बीच चुनाव में 21 मई 1991 को राजीव गांधी की हत्या हो गई। सारा देश सन्न रह गया। यह शहादत, ‘गांधी परिवार’ के लगातार दूसरी पीढ़ी की शहादत के रूप में इतिहास में दर्ज हो गई। उस के बाद पी. वी. नरसिम्हा राव के नेतृत्व में कांग्रेस की अल्पमत सरकार अस्तित्व में आई। पी. वी. नरसिम्हा राव के नेतृत्व में कांग्रेस की अल्पमत सरकार (21 जून 1991 से 16 मई 1996) पांच साल तक चली।

बेहद संवेदनशील और संभावनाशील कांग्रेस नेता ममता बनर्जी 1997 में कांग्रेस से अलग होकर पश्चिम बंगाल की तृणमूल कांग्रेस में शामिल हो गई। आगे चलकर 999 में ममता बनर्जी भारतीय जनता पार्टी के नेतृत्व वाली राष्ट्रीय जनतांत्रिक गठबंधन (एनडीए) सरकार में शामिल हो गई और उन्हें रेलवे मंत्री का कार्यभार सौंपा गया। आज ममता बनर्जी इस समय पश्चिम बंगाल की बहुत ही प्रभावशाली मुख्यमंत्री हैं। जो हो, इस बीच ‘गांधी परिवार’ सत्ता की सभी संरचना से लगभग पूरी तरह से बाहर ही रहा। भारतीय जनता पार्टी के महत्वपूर्ण नेता अटल विहारी बाजपेयी के नेतृत्व में बनी राष्ट्रीय जनतांत्रिक गठबंधन (एनडीए) की सरकार 2004 तक चली। हालांकि इस बीच कांग्रेस-जनों के आग्रह और अपील पर श्रीमती सोनिया गांधी ने कांग्रेस की कमान संभाल ली।

अटल बिहारी वाजपेयी के नेतृत्व में ‘शाइनिंग इंडिया’ और ‘फील गुड’ के भरोसा पर चुनाव में जीत की पूर्ण प्रत्याशा के साथ उतरी; लेकिन बहुमत नहीं ला पाई और सब से बड़े दल के रूप में कांग्रेस संसद पहुंच गई। शुरू हो गया भारतीय जनता पार्टी में राजनीतिक हाहाकार का दौर। भारत की प्रधानमंत्री बनने की भरपूर संभावना के सामने खड़ी सोनिया गांधी के विदेशी मूल का होना राजनीतिक गहमागहमी का मामला बन गया।

राजनीतिक गहमागहमी के उस समय की राजनीतिक परिस्थिति और सरकार गठन के बारे में अपनी पुस्तक ‘टर्निंग प्वाइंटस’ में तत्कालीन राष्ट्रपति, एपीजे अब्दुल कलाम ने लिखा है, ‘मेरे पास लोगों, संगठनों और राजनीतिक पार्टियों द्वारा भेजे गये बहुत से ई मेल, और पत्र आये, कि मैं सोनिया गांधी को देश का प्रधानमंत्री न बनने दूँ। मैंने वह सारे पत्र वगैरह, बिना अपनी किसी टिप्पणी के, सूचनार्थ, अनेक सरकारी एजेंसियों को भेज दिये। इसी बीच, मेरे पास बहुत से राजनेता इस बात के लिए मिलने आये कि मैं किसी दबाव के आगे कमजोर पड़ कर, श्रीमती सोनिया गांधी को प्रधानमंत्री न बनने दूं। यह निवेदन किसी भी तरह से संवैधानिक नहीं था। वह अगर अपने लिये कोई दावा पेश करेंगी तो मेरे पास उसे स्वीकार करने के अतिरिक्त कोई रास्ता नहीं होगा।’

इसी पुस्तक में आगे वे यह भी लिखते हैं, ‘तयशुदा समय शाम 8:15 पर श्रीमती गांधी राष्ट्रपति भवन आईं और उनके साथ डॉ मनमोहन सिंह थे। इस भेंट में, रस्मी खुशनुमा बातचीत के बाद उन्होंने मुझे अपने गठबंधन वाले दलों का समर्थन पत्र दिया। उसके बाद मैंने सरकार बनाने योग्य दल के रूप में उनका स्वागत किया और कहा कि राष्ट्रपति भवन उनके बताए समय पर शपथ ग्रहण समारोह के लिए तैयार है। इस पर उन्होंने (श्रीमती सोनिया गांधी) कहा कि वह प्रधानमंत्री पद के लिये डॉ. मनमोहन सिंह को नामांकित करना चाहती हैं। वह 1991 के आर्थिक सुधार के नायक हैं, कांग्रेस पार्टी के विश्वसनीय कर्णधार हैं तथा प्रधानमंत्री के रूप में निर्मल छवि वाले नेता हैं। यह सचमुच मेरे लिये और राष्ट्रपति भवन के लिये एक अचंभा था। सचिवालय को डॉ. मनमोहन सिंह को प्रधानमंत्री नियुक्त करते हुए और यथा शीघ्र सरकार बनाने का आमंत्रण देते हुए, दूसरा पत्र बनाना पड़ा।’

श्रीमती सोनिया गांधी के प्रधानमंत्री न बनने पर भारतीय जनता पार्टी ने ‘राहत की सांस’ ली। हवा में यह अफवाह फैलती रही कि महामहिम राष्ट्रपति तैयार न थे, कि संयुक्त प्रगतिशील गठबंधन (यूपीए) उन के नाम पर तैयार नहीं था, आदि। राष्ट्रपति का रुख ऊपर स्पष्ट हो चुका है। लेकिन संयुक्त प्रगतिशील गठबंधन (यूपीए) के घटक दलों का रुख क्या था! तथ्य क्या हैं?

अपनी पुस्तक ‘हाउ प्राइम मिनिस्टर्स डिसाइड’ में प्रसिद्ध पत्रकार नीरजा चौधुरी ने लिखा है, ‘वह (सोनिया) वहां सोफे पर बैठी थी। मनमोहन सिंह और प्रियंका भी वहां थे। कुछ ही देर में सुमन दुबे आ गए। सोनिया गांधी व्याकुल दिख रही थीं। तभी राहुल हमारे बीच आए और हम सब के सामने बोले, ‘मैं आपको प्रधानमंत्री नहीं बनने दूंगा। मेरे पिता की हत्या की गई, मेरी दादी की हत्या की गई। छह महीने में तुम मारे जाओगे। राहुल ने धमकी दी कि अगर सोनिया ने उनकी बात नहीं मानी तो वह अतिवादी कदम उठाएंगे। नटवर सिंह ने याद करते हुए कहा, ‘यह कोई साधारण धमकी नहीं थी, राहुल एक मजबूत इरादों वाले व्यक्ति हैं। उन्होंने सोनिया को फैसला करने के लिए 24 घंटे का समय दिया था। सोनिया उस समय उत्तेजित और आंसू बहा रही थीं जब राहुल ने कहा था कि वह अपनी मां को प्रधानमंत्री बनने से रोकने के लिए कोई भी संभावित कदम उठाने को तैयार हैं। कमरे में एक स्तब्ध सन्नाटा था।

उन्होंने (नटवर सिंह ) कहा, ‘राहुल की कुछ कठोर करने की धमकी के कारण सोनिया गांधी को अपना मन बदलना पड़ा। असल में उन के बेटे ने उनके लिए निर्णय लिया। नटवर सिंह ने कहा। उन्होंने जोड़ा, ‘एक मां के रूप में उनके लिए राहुल को नजर अंदाज करना’ असंभव था। बाद में प्रकाश करात ने कहा, ‘वामदलों को उम्मीद थी कि वह प्रधानमंत्री बनेंगी। उन्होंने कहा, ‘यह हमारे लिए आश्चर्य की बात थी कि वह मनमोहन सिंह होंगे।’ डॉ मनमोहन सिंह की नीति और छवि वाम-पंथी विचारधारा से मेल नहीं खाती थी। वामपंथी दलों की आशंकाओं को कम करने के लिए, तभी 2004 में श्रीमती सोनिया गांधी की अध्यक्षता में राष्ट्रीय सलाहकार परिषद (NAC) का गठन हुआ।

राजनीतिक आरोप-प्रतिरोध के बावजूद 2004 से 2014 तक लगातार दस साल संयुक्त प्रगतिशील गठबंधन (यूपीए) की सरकार कामयाबी से अपना काम करती रही, लेकिन 2014 के आम चुनाव में संयुक्त प्रगतिशील गठबंधन (यूपीए) सरकार सत्ता से बाहर हो गई। 26 मई 2014 को नरेंद्र मोदी भारत के प्रधानमंत्री बन गये। आम चुनाव में भारतीय जनता पार्टी को अकेले दम बहुमत मिल गया था। 2019 के आम चुनाव में भी भारतीय जनता पार्टी की जीत का यह सिल-सिला जारी रहा। लेकिन 2024 में यह सिल-सिला टूट गया। भारतीय जनता पार्टी अकेले दम पर स्पष्ट बहुमत पाने से रह गई। राष्ट्रीय जनतांत्रिक गठबंधन (एनडीए) के घटक दलों के समर्थन से नरेंद्र मोदी लगातार तीसरी बार भारत के प्रधानमंत्री बने।

2014 में नरेंद्र मोदी के प्रधानमंत्री बनने के बाद से 2024 के आम चुनाव के परिणाम आने के पहले तक, कांग्रेस राजनीतिक फजीहत के सब से बुरे दौर और ‘अपराजेय’ नरेंद्र मोदी की कांग्रेस-मुक्त भारत के शोर में फंसी रही। साफ-साफ कह जाये तो सिर्फ कांग्रेस ही क्यों ‘अच्छे दिन’ के लुभावने संगीत से मोहित लोगों की फजीहत भी कम नहीं हुई। सरकार के हर तरह के मनमानेपन का शिकार देश बनता रहा। लेकिन जिस राजनीतिक साहस के साथ ‘न्याय योद्धा’ के रूप में आज के नेता प्रतिपक्ष राहुल गांधी ने राजनीतिक परिस्थिति का मुकाबला किया अंततः उस ने अपना रंग दिखाया। लेकिन यह सब बहुत आसान तो नहीं रहा!

23 मार्च 2023 को चीफ जुडिशियल मजिस्ट्रेट ने राहुल गांधी को मान-हानि मामले में दी जानेवाली अधिकतम दो साल की कैद की सजा मुकर्रर कर दी। क्रोनी कैपिटलिज्म पर संसद में उनकी तीखी टिप्पणियों से असहज हो रही सत्ताधारी भारतीय जनता पार्टी में खुशी की लहर दौड़ गई। आनन-फानन में उन की संसद सदस्यता रद्द कर दी गई। सांसद के रूप में उन्हें आवंटित आवास भी उन से खाली करवा लिया गया! राहुल गांधी ‘बेघर’ हो गये! जिस राहुल गांधी के घर-परिवार से तीन-तीन व्यक्ति प्रधानमंत्री हुए, न सिर्फ प्रधानमंत्री हुए बल्कि उन में से दो व्यक्तियों की शहादत भी हुई, उस राहुल गांधी का इस तरह से ‘बेघर’ होना देश के लोगों को कहीं से अच्छा नहीं लगा। न्यायिक प्रक्रिया से राहुल गांधी को किसी तरह की राहत नहीं मिल पा रही थी। अंत में सुप्रीम कोर्ट ने सजा को अमल में लाने पर रोक लगा दी। यह उन के लिए राहत की बात थी।

लेकिन इस बीच राहुल गांधी के द्वारा ‘अध्यादेश फाड़े जाने’ की घटना पर फिर से उन की खिल्ली उड़ाई जाने लगी। विरोधी कहने लगे कि राहुल गांधी ने अध्यादेश न फाड़ा होता तो इस तरह से उन की संसद सदस्यता नहीं जाती। हालांकि, खुद राहुल गांधी को अपने ‘अध्यादेश फाड़ने’ पर कभी कोई अफसोस हुआ हो, ऐसा नहीं दिखा। आखिर क्या था उस अध्यादेश में? राहुल गांधी ने अपने ही दल के नेतृत्व में में चल रही संयुक्त प्रगतिशील गठबंधन (यूपीए) की सरकार के अध्यादेश को क्यों फाड़ दिया था?

असल में, जुलाई 2013 में सुप्रीम कोर्ट ने एक आदेश पारित किया था कि दो साल या उस से अधिक की सजा के दोषी सांसदों और विधायकों की सदस्यता रद्द की जाएगी। सुप्रीम कोर्ट के आदेश को ‘निष्क्रिय’ करने के लिए संयुक्त प्रगतिशील गठबंधन (यूपीए) सरकार ने एक अध्यादेश पारित कर दिया। इस अध्यादेश की ‘खूबियां’ बताने के लिए 24 सितंबर 2013 को कांग्रेस की ओर से अजय माकन ने एक प्रेस कॉन्फ्रेंस बुलाई थी। इस प्रेस कॉन्फ्रेंस में राहुल गांधी जा पहुंचे। प्रेस कॉन्फ्रेंस में राहुल गांधी ने उस अध्यादेश को न सिर्फ बकवास और फाड़कर फेंक देने के लायक बताया, बल्कि अध्यादेश की प्रति फाड़कर फेंक भी दी। राहुल गांधी ने कहा कि, कांग्रेस, बीजेपी, जनता दल सभी यही करते हैं, लेकिन यह वक्त है कि ये बकवास बंद होनी चाहिए। प्रसंगवश, राहुल गांधी ने जिस नैतिक साहस के साथ 24 सितंबर 2013 को अध्यादेश को फाड़कर फेंक दिया था उस से 25 दिसम्बर 1927 को डॉ बाबासाहेब आंबेडकर के द्वारा वर्ण-व्यवस्था और जाति आधारित भेद-भाव को समाप्त करने के संकल्प के साथ मनुस्मृति जलाने की घटना की याद सहज ही आ सकती है।

राहुल गांधी के अध्यादेश फाड़ने में उन की राजनीतिक और पारिवारिक पृष्ठ-भूमि का जो भी प्रभाव हो, लेकिन उस में राहुल गांधी की नैतिक शक्ति का प्रभाव बहुत अधिक था। अंततः संयुक्त प्रगतिशील गठबंधन (यूपीए) सरकार ने उस बिल को वापस ले लिया था। इस के पहले 2011 में भट्टा-पारसौल में कम मुआवजे पर किसानों की जमीन अधिग्रहण के मामले में भी राहुल गांधी ने जो रुख अख्तियार किया था, उसे कांग्रेस के लिए राजनीतिक रूप से घातक बताया गया था।

कुल मिलाकर यह कि इस बात से इनकार नहीं किया जा सकता है कि राहुल गांधी की न सिर्फ राजनीतिक दृष्टि भिन्न है बल्कि उन के नैतिक साहस के रास्ते में राजनीतिक नफा-नुकसान का हिसाब-किताब बाधक नहीं बन सकता है। ऐसा भी नहीं है कि राजनीतिक नफा-नुकसान का हिसाब-किताब लगाना राहुल गांधी को आता ही नहीं है! आता है, लेकिन वे राजनीतिक नफा-नुकसान से कहीं अधिक जन-हित के नफा-नुकसान की परवाह करते हैं। इसलिए अभी अगस्त 2024 में ही प्रयागराज के आनंद भवन में सामाजिक संस्था ‘ह्यूमन राइट्स लीगल नेटवर्क’ के द्वारा आयोजित ‘संविधान सम्मान सम्मेलन’ को संबोधित करते हुए राहुल गांधी ने देश में ‘हुनर की इज्जत’ के माहौल के अभाव की बात कहते हुए जातिवार जनगणना कराये जाने के महत्व की बात कही। उन्होंने यह भी साफ-साफ कहा कि जाति जनगणना के मुद्दे को उठाने से यदि राजनीति में नुकसान होगा, तब भी जातिवार जनगणना का मुद्दा वे उठाते रहेंगे।

आज भारत की राजनीति में ‘मजबूत इरादों वाले’ कितने ऐसे नेता हैं जो यह कहने का राजनीतिक साहस और सूझ-बूझ रखते हैं कि चुनावी नफा-नुकसान का हिसाब-किताब भुलाकर जन-हित के मुद्दों के लिए मिलकर संघर्ष कर सकते हैं! यह एक ऐसा सवाल है जिस के सकारात्मक जवाब के साथ भारत के लोकतंत्र के नये झंडाबरदार भारत के राजनीतिक क्षितिज पर प्रकट होंगे। भारत की राजनीतिक जमीन पर नई फसल और नये झंडाबरदार का अधीर इंतजार भारत के मतदाता समाज को है। उम्मीद की जा सकती है कि झूठ-फरेब के भ्रम-जाल के भीतर से भारत के लोकतंत्र में नये आदमी का नया सूरज उगेगा।

(प्रफुल्ल कोलख्यान स्वतंत्र लेखक और टिप्पणीकार हैं)

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