कल शाम को जैसे ही मौजूदा वित्त वर्ष की दूसरी तिमाही के जीडीपी आंकड़े जारी हुए, अचानक से मीडिया और बाजार में कोहराम मच गया है। हर कोई चिंतित है कि आखिर ये क्या हो गया। आरबीआई ने तो मौजूदा वित्त वर्ष के लिए 7.2% जीडीपी ग्रोथ का लक्ष्य तय कर रखा है, जबकि सरकार भी 6.5-7% ग्रोथ रेट को लेकर आश्वस्त थी। फिर ऐसा क्या हो गया जो देश के विकास की रफ्तार पर ब्रेक लग गया है?
इसके साथ ही सवाल उठने शुरू हो गये हैं कि क्या अगले 2 वर्षों में भारत 5 ट्रिलियन डॉलर इकॉनमी के अपने घोषित लक्ष्य को हासिल कर सकेगा, जिसे पहले पीएम मोदी 2022 में ही हासिल करने जा रहे थे, लेकिन अब इसे 5 वर्ष आगे के लिए खिसका दिया गया था।
सोशल मीडिया में तरह-तरह के मीम बनने लगे हैं। कुछ लोग स्वर्गीय अरुण जेटली तक को उधृत करते हुए तब का किस्सा बता रहे हैं, जिन्होंने यूपीए सरकार के दौरान पीएम मनमोहन सिंह पर व्यंग्य करते हुए कहा था कि पीएम की कुर्सी पर गधा भी बैठ जाये, भारत की जीडीपी वृद्धि 7-8% तो हो ही जाएगी। आप इतने बड़े अर्थशास्त्री हैं, आपको दोहरे अंकों की ग्रोथ रेट देनी चाहिए।
जीएसटी और जीडीपी को लेकर भी कई मीम देखने को मिल रहे हैं, क्योंकि ग्रोथ अगर किसी एक चीज में है तो वह है जीएसटी कलेक्शन में। लंबे समय से देखने को मिल रहा है कि भारी मुद्रास्फीति और उपभोक्ता खपत में कमी का रोना तो अब एफएमसीजी सेक्टर से लेकर कंज्यूमर उत्पाद निर्माता कंपनियां सभी कर रही हैं, लेकिन ऊंचे दामों पर जीएसटी की दर अपनेआप आंकड़ों को चमकदार बनाती जा रही हैं।
इसी तरह सोशल मीडिया X पर वित्त मंत्री निर्मला सीतारमण पर चुटकी लेते हुए यूजर सौविक उनकी जुबानी कहते हैं, “हमने मध्यम वर्ग को विनम्रता सिखाने के लिए जानबूझकर जीडीपी वृद्धि को धीमा कर दिया है।” कुछ अन्य लोग पिछले 3 दिनों से अडानी की कंपनियों में असामान्य उछाल का हवाला देते हुए उनके हाथों में सीधे देश चलाने और तीव्र वृद्धि को साकार करने का कार्यभार सौंपने की मांग की है।
बाजार और वित्तीय मामलों के विशेषज्ञों की चिंता वाजिब है। इस वित्तीय वर्ष की पहली तिमाही में ग्रोथ रेट 6।7% थी, और दूसरी तिमाही में यह अनुमानित 7% के बजाय घटकर 5.4% रह गई है। इस लिहाज से देखें तो अगर अगली छमाही तक भी यही रुख रहता है तो भारत की जीडीपी वृद्धि दर 7-7.2% के बजाय 6% पर अटक सकती है, जिससे तमाम अंदाजे और लक्ष्य डगमगा सकते हैं। विदेशी पूंजी निवेश पर भी सवाल खड़े हो सकते हैं। वर्ष 2022-23 की तीसरी तिमाही के बाद यह सबसे कमजोर प्रदर्शन है, जिसने चिंता बढ़ा दी है।
लेकिन सबसे बड़ी चिंता है विनिर्माण, खनन और बिजली क्षेत्र में, जिसमें भारी गिरावट देखने को मिल रही है। मैन्युफैक्चरिंग सेक्टर में पिछली तिमाही में 7% की तुलना में मात्र 2% की वृद्धि सबसे भारी चिंता उत्पन्न करती है। इसी तरह बिजली उत्पादन, गैस, पानी वितरण एवं अन्य सेवाओं में भी 10.4% की जगह मात्र 3.3% वृद्धि दर संकट की ओर इशारा कर रही है। संतोष की बात यही है कि कृषि क्षेत्र में 2% की तुलना में 3.5% की वृद्धि दर ने स्थिति को कुछ हद तक संभाले रखा है।
इससे पिछले वित्त वर्ष की इसी तिमाही में जीडीपी ग्रोथ रेट 8.1% थी। जबकि इससे पिछली तिमाही में यह 6.7 फीसदी रही थी। आपकी जानकारी के लिए बता दें कि यह आंकड़े नेशनल स्टेटिस्टिक्स ऑफिस की ओर से जारी किए जाते हैं, और अर्थशास्त्री अरुण कुमार की मानें तो इन आंकड़ों का आधार मुख्यतया संगठित क्षेत्र से इकट्ठा किया जाता है, और इसे पूरी अर्थव्यवस्था के लिए प्रोजेक्ट कर दिया जाता है।
ऐसे में सबसे बड़ा सवाल यह है कि देश में संगठित क्षेत्र तो मात्र 6% है, जबकि समूचा भारत 94% असंगठित क्षेत्र के तहत काम कर रहा है। उसके हालात तो 2017 से (नोटबंदी) ही बुरी तरह बिगड़े हुए हैं, और कोविड लॉकडाउन और उसके बाद से देश K-शेप इकॉनमी में चले जाने के कारण हालात बद से बदतर ही हुए हैं। ऐसे में ये 5.4% जीडीपी वृद्धि भी कितना सही है, इसको लेकर बड़ा संदेह बना हुआ है।
5.4% ग्रोथ रेट पर असली चिल्ल-पों तो संगठित क्षेत्र मचा रहा है, जिसके तीव्र विकास का मार्ग पिछले 7 वर्षों से बदस्तूर जारी था, जबकि भारत की वास्तविक अर्थव्यवस्था इससे कहीं खराब गत से गुजर रही है। संगठित क्षेत्र के पास मांग में कमी होने पर उत्पादन में गिरावट लाकर अपने लिए मुनाफे को बरकरार रखने का विकल्प खुला हुआ था, जिसका वो अभी तक लाभ उठा रहा था और भारी मुनाफा कमा रहा था।
लेकिन जिस 40% शहरी उपभोक्ता के द्वारा 60% खपत पर हिस्सेदारी थी, आज वह भी मुद्रास्फीति, बढ़ती बेरोजगारी और घटती आय के चलते अपने खपत में कमी कर रहा है और ऑटोमोबाइल सहित अन्य उपभोक्ता वस्तुओं की खरीद में कटौती कर अब इस संकट को उनके लिए भी रियल बना रहा है, जो अभी तक बाजार में मोनोपोली या कार्टेलिंग कायम कर भारी मुनाफा कमा रहे थे।
डॉलर के मुकाबले गिरता रुपया और ट्रम्प की वापसी से विदेशी निवेशकों का पलायन
सरकार और रिजर्व बैंक के लिए इसके अलावा भी कुछ और बड़ी चिंताएं हैं। यह सिर्फ खराब जीडीपी वृद्धि या उच्च मुद्रास्फीति का मामला ही नहीं है। दिन-प्रतिदिन रुपया रिकॉर्ड निचले स्तर पर पहुंच रहा है, वह भी तब जब आरबीआई इस गिरावट को रोकने के लिए अपने विदेशी मुद्रा भंडार को लगातार खाली करता जा रहा है। कल शुक्रवार को डॉलर के मुकाबले रूपये ने एक बार फिर से रिकॉर्ड बनाते हुए खुद को 84.60 रूपये के भाव पर टिका दिया है।
इसका सीधा मतलब है हर आयात पर हम महंगाई मुफ्त में गिफ्ट के तौर पर लेने के लिए मजबूर हैं। दिक्कत बस ये है कि आज हम सिर्फ पेट्रोल, डीजल, खाद और गैस ही आयात नहीं कर रहे, बल्कि इलेक्ट्रॉनिक आइटम, आई फोन के कॉम्पोनेन्ट से लेकर वे सारी चीजें भी चीन, ताइवान और मलेशिया से खरीदने को मजबूर हैं, जिन्हें हम दो दशक पहले तक अपने ही देश में निर्मित करते थे।
इसके अलावा पिछले 7 हफ्तों में देश अपने विदेशी मुद्रा भंडार में 47 बिलियन डॉलर भी गँवा चुका है। 22 नवंबर के आंकड़ों के मुताबिक विदेशी मुद्रा भंडार 656.88 बिलियन डॉलर के साथ पांच महीने के सबसे निचले स्तर पर पहुंच चुका है।
अडानी समूह के मालिकों पर अमेरिकी अदालत में आरोपपत्र और राष्ट्रपति चुनावों में डोनाल्ड ट्रम्प की जीत ने भी विदेशी निवेशकों के भरोसे को गिराने में मदद की है। ट्रम्प की जीत के एक सप्ताह के भीतर शेयर बाजार से निवेशक 7 अरब डॉलर निकाल चुके हैं। भारतीय बाजार में बड़े निवेश से पहले अब संस्थागत निवेशक और कंपनियों के लिए भारतीय सरकार और रेगुलेटरी अथॉरिटी की निष्पक्षता और जवाबदेही पहले से महत्वपूर्ण हो सकती है।
पिछले 7-8 वर्षों से तमाम अर्थशास्त्री बीजेपी सरकार को सलाह दे चुके हैं कि देश में विकास दर में वृद्धि के लिए सप्लाई साइड की जगह खपत वृद्धि पर फोकस रखना चाहिए। देश में मात्र 5% को ध्यान में रखते हुए आर्थिक नीतियों के निर्माण और पूंजीगत व्यय से न तो खपत में वृद्धि संभव है और न ही इस नीति पर चलकर बहुसंख्यक आबादी के लिए रोजगार, शिक्षा और स्वास्थ्य के उपाय संभव हैं। लेकिन मोदी सरकार ने धनिक वर्ग के कॉर्पोरेट टैक्स में छूट, कर्ज माफ़ी और जीएसटी को लागू कर बेहद न्यून वर्ग को और ज्यादा धनवान बनाकर उन्हें नए उद्योग धंधे खोलने के लिए प्रोत्साहित करने के बजाय शेयर बाजार और रियल एस्टेट में दांव खेलने के लिए ही तैयार किया है।
यही कारण है कि कोविड-19 संकट में देश की जो 80% आबादी एक बार घिरी वह 3 वर्ष बाद भी 5 किलो मुफ्त अनाज और अब चुनाव के समय मुफ्त की रेवड़ी से ऊपर नहीं उठ पा रही है। केंद्र सरकार की यह हाराकिरी अब गरीब और मध्य वर्ग से बढ़कर स्वंय अभिजात्य वर्ग के लिए संकट पैदा कर रही है, जीडीपी में गिरावट उसी का संकेत है।
(रविंद्र पटवाल जनचौक संपादकीय टीम के सदस्य हैं)
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